वर्ष 2022 समाप्त होने को है। हिंदी सिनेमा के इतिहास में इस वर्ष को हिंदी फिल्मों पर आए संकट के तौर पर याद किया जाएगा। इस संकट के कारणों को लेकर भी वर्ष भर चर्चा हुई। सिनेमा हाल में दर्शकों की कमी पर लगातार चिंता प्रकट की जा रही है। फिल्मों के जानकार अलग अलग कारणों की पड़ताल करने में जुटे हुए हैं। अभिनय के अलावा कहानी, पटकथा, निर्देशन से लेकर एडिटिंग की कमजोरी तक को हिंदी फिल्मों के नहीं चल पाने की वजह बताई जा रही है। कलाकारों के अभिनय में अति नाटकीयता को भी कुछ फिल्म समीक्षक रेखांकित कर रहे हैं। जो लेखक-समीक्षक हिंदी फिल्मों में कलाकारों की अति नाटकीयता को रेखांकित कर रहे हैं वो दक्षिण भारतीय भाषाओं की फिल्मों के हिट होने की कारणों को जब गिनाते हैं तो उसमें कलाकारों की अति नाटकीयता को नजरअंदाज कर देते हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मों में अति नाटकीयता आम है। हिंदी फिल्मों को किसी एक कारण से कम दर्शक नहीं मिल रहे हैं बल्कि उसके अनेक कारण हैं।
हिंदी फिल्मों के निर्माण के दौरान पहले निर्देशक अपने साथी कलाकारों के साथ फिल्म की कहानी, उसके संवाद, उसके गीत और दृष्यों को लेकर खूब चर्चा करते थे। अपने साथी कलाकारों के साथ चर्चा करने से फिल्म की शूटिंग के दौरान अभिनेता और निर्देशक के बीच एक सहज रिश्ता कायम हो जाता था। चूंकि अभिनेता या अभिनेत्री फिल्मों के दृष्यों पर या संवाद पर चर्चा में शामिल रहते थे इस वजह से उनके अभिनय में एक खास किस्म की स्वाभाविकता दिखाई देती थी। आर के स्टूडियो में राज कपूर की कुटिया में होने वाली बैठकी प्रसिद्ध है। पूरी पूरी रात वो अपने साथी कलाकारों के साथ फिल्म निर्माण पर, फिल्म के संगीत पर, फिल्म के संवाद पर बातें करते थे। इससे साथी कलाकारों और निर्देशकों के बीच एक रागात्मक संबंध विकसित होता था। सभी का सोच एक ही दिशा में जाता था। निर्देशक जिस फिल्म की परिकल्पना करता था, साथी कलाकार उस कल्पना को साकार करने में जुटते थे। वी शांताराम जैसे प्रसिद्ध निर्देशक भी अपने साथ काम करनेवाले कलाकारों के साथ फिल्म को लेकर लगातार बैठकें करते थे। के आसिफ जब मुगल ए आजम बना रहे थे तो उस दौरान अभिनेता चंद्रमोहन का निधन हो गया। प्रोड्यूसर सिराज अली हाकिम ने पाकिस्तान जाने का निर्णय किया जिसके कारण शूटिंग बंद हो गई थी। कई वर्षों के के बाद जब के आसिफ को दूसरे प्रोड्यूसर मिले और फिल्म पर नए सिरे से नए कलाकारों के साथ काम आरंभ हुआ तो तय किया गया कि फिल्म को अंग्रेजी और तमिल में भी बनाया जाएगा। आसिफ ने निणय लिया कि फिल्म की पटकथा नए सिरे से लिखी जाएगी। उन्होंने हिंदी फिल्म के लिए एहसान रिजवी, कमाल अमरोही, अमान और वजाहत मिर्जा को हिंदी पटकथा के लिए अनुबंधित किया। ये कलाकारों के साथ बैठकर मंथन का ही परिणाम था कि फिल्म मुगल ए आजम में जोधाबाई के संवाद के लिए हिंदी और उर्दू के शब्दों के साथ ब्रजभाषा के भी कई शब्दों का उपयोग किया गया। इस तरह के संवाद ने जोधाबाई के किरदार को पर्दे पर जीवंत कर दिया था। जब फिल्म की शूटिंग आरंभ हुई थी तो उसके पहले पृथ्वीराज कपूर के चलने के शाही अंदाज पर भी चर्चा हुई थी। तय किया गया था कि वो सीना तान कर अपेक्षाकृत धीरे-धीऱे चला करेंगे। इससे अकबर के व्यक्तित्व के चित्रण में सहायता मिली थी। हिंदी फिल्मों से जुड़े इस तरह के कई किस्से पुस्तकों में दर्ज हैं।
अब हिंदी फिल्म निर्माण में स्थितियां लगभग पूरी तरह से बदल गई हैं। निर्देशकों और कलाकारों के साथ बैठक की परंपरा धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों से फिल्म मेकिंग की कला सीखकर आए निर्देशकों ने फिल्म निर्माण की बारीकियां तो सीखी हीं फिल्म निर्माण का कथित प्रोफेशनल अप्रोच भी सीख लिया। अब हो ये रहा है कि निर्देशक फिल्म निर्माण की प्रक्रिया को एक्सेल शीट पर बनाते हैं। इसको काल शीट कहते हैं। काल शीट में तिथि के अनुसार फिल्म निर्माण की गतिविधियां दर्ज होती हैं। कितने बजे कौन आएगा, कौन सा दृष्य फिल्माया जाएगा। अभिनेता कौन है, वो कितने बजे आएंगे, मेकअप में कितना समय लगेगा, कितने बजे शूट आरंभ होगा, कास्ट्यूम क्या होगा आदि के अलावा नजदीकी अस्पताल, एंबुलेंस के नंबर के साथ साथ सूर्योदय और सूर्यास्त का समय भी लिखा होता है। फिल्म निर्माण में अनुशासन और खर्च को व्यवस्थित करने के लिए काल शीट आवश्यक है। लेकिन जब काल शीट के अनुसार अभिनेताओं को अभिनय करने पर मजबूर किया जाता है तो उसका असर फिल्म पर पड़ता है। इस दौर के प्रसिद्ध अभिनेता ने एक किस्सा सुनाया। एक बार उनको काफी बुखार था। काल शीट के अनुसार उनको बारह बजे सेट पर पहुंचना था। उनपर काफी दबाव बनाया गया कि वो शूटिंग के लिए पहुंचे। सेट पर डाक्टर और एंबुलेंस की व्यवस्था रहेगी। वो दवा लेकर सेट पर पहुंचे। हर शाट के बीच डाक्टर उनकी नब्ज देखते थे और कहते थे कि सब ठीक है आप शूटिंग करिए। दवा खाकर तीन घंटे तक काल शीट के अनुसार उन्होंने अभिनय किया। बुखार का असर अभिनय पर फिल्म बनने के बाद भी दिखा। सुपर स्टार्स ने इसकी काट निकाल ली है। जब वो काल शीट के अनुसार नहीं आ पाते हैं तो कई शाट्स के लिए वो निर्माताओं से कहते हैं कि बाडी डबल का उपयोग कर लें। बाद में फेस रिप्लेसमेंट की तकनीक का उपयोग करके उसको स्वाभाविक दिखा दिया जाता है।
हिंदी फिल्मों के निर्माण को जो एक दूसरी बात नुकसान पहुंचा रही है वो है स्टारडम। बड़े स्टार अब निर्देशकों की नहीं सुनते हैं। वो अपनी मर्जी से स्क्रिप्ट से लेकर सीन तक में बदलाव करवा लेते हैं। इतना ही नहीं वो इससे आगे जाकर अपनी वेशभूषा के बारे में भी निर्णय करने लगे हैं। कई सुपरस्टार को तो सेट पर निर्देशकों को निर्देशित करते हुए देखा जा सकता है। वो निर्देशक को बताते हैं कि फलां सीन को इस तरह से शूट किया जाए। इसका नुकसान ये होता है कि निर्देशक ने फिल्म के बारे में जो समग्र सोच बनाया है उसको सुरस्टार बाधित कर देते हैं। कुछ सुपर स्टार तो फिल्म के एडिट होने के बाद उसमें दृष्य जुड़वाते और कटवाते तक हैं। ये पहले भी होता था लेकिन उस समय अधिकतर सुपरस्टार अपने साथी कलाकारों के चयन में हस्तक्षेप करते थे। वो अपने मन मुताबिक नायिका का चयन करने के लिए निर्माता निर्देशक पर दबाव डालते थे। कई बार लोकेशन को लेकर भी। पर फिल्म निर्माण में दखल कम होता था। अब तो इन सुपरस्टार्स का दखल लगातार बढ़ता जा रहा है। उनको लगता है कि दर्शक उनके अभिनय को पसंद कर रहे हैं तो वो फिल्म को भी अपने हिसाब से बनवाएं। फिल्म निर्देशक बेचारगी में हथियार डाल देते हैं। उनको भी बड़ा बैनर और बड़ी फिल्म का नाम चाहिए होता है।
आज जब आमिर खान और अक्षय कुमार जैसे सुपरस्टार्स की फिल्में एक के बाद एक फ्लाप हो रही हैं तो निर्माताओं को इन कारणों पर ध्यान देने की जरूरत है। खुद को फिल्म में सबसे उत्तम दिखने की सुपरस्टार्स की मानसिकता निर्देशकों को महत्वहीन कर रही है। इस प्रवृत्ति को कम करना होगा। निर्देशकों को छूट देनी होगी कि वो अपने हिसाब से फिल्म बनाएं। काल शीट को लचीला बनाया जाए, कलाकारों के साथ फिल्म निर्माण को लेकर, उसको बेहतर बनाने को लेकर संवाद हो। सुपरस्टार्स निर्देशकों की सुनें और अपनी मनमानी कम करें। ये फिल्म जगत के लिए भी अच्छा होगा और कलाकारों के लिए भी। इन प्रवृत्तियों पर बात होनी चाहिए।
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