आना-पाई से चलकर लाखों की स्टार नाईट तक जा पहुंचा बागेश्वर उत्तरायणी मेला

आना-पाई से चलकर लाखों की स्टार नाईट तक जा पहुंचा बागेश्वर उत्तरायणी मेला

एक सरयू गोमती तहजीब थी। सरयू गोमती किनारे पनपी पली बढ़ी आकृति स्वरूप जन्म लेती बहुतेरी संस्कृतियां थीं। उन्हीं संस्कृतियों गुरुत्वता से निर्धारित बिल्कुल सत्य सटीक कथन था कि ” वाक्य की संरचना करना आसान और उसकी यथार्थता का आंकलन कर उसे अनुभव करना कठिन है, जटिल है। जैसे कल्पनाओं में ऊंची उड़ान भरना और पंखों से ऊंची उड़ान भरना। दोनों में कई सौ योजन अनुभव का फर्क है। यूं कल्पनाओं में चाहे तो भूमि की गहराई माप ली जाए या नभ की ऊंचाई लेकिन जब चेतना यथार्थ ऊंचाई और यथार्थ गहराई की माप करती है तब जीवन के मायने थोड़ा नहीं कई गुना अलग हो जाते हैं।”

यूं तो बहुत ख़ास होता है एक मेला। मेले में हर चेहरे पर खुशी हो यह जरूरी नहीं। उदासियों की झुर्रियां भी कई चेहरों पर बटी होती हैं। मेले में भी बहुत बार होंठ सिले होते हैं। फिर भी देखने पर बड़ा हसीन सा लगता है एक मेला। आज भी कुछ खास फर्क नहीं आया है मेले में। वही पुरानी पारंपारिक मिठाईया, कपड़े, कुछ खिलौने और ढेर सारे छोटे मोटे वस्तुओं का भंडार सा लग जाता है। उस दिन कई छोटे छोटे दुकानों पर बड़ी उत्सुकता के साथ भीड़ सी लग जाती है। कई किलकारियां बड़ी उत्तेजना के साथ पुलकित हो उठती हैं और एक मेला अपने दिन की शुरुवात कर देता है।

बात करें बागेश्वर के उत्तरायणी मेले (कौतिक) की तो इसकी शुरुआत आज़ादी से पहले की है। इस दिन देवों की पूजा आरती के साथ शंख और नगाड़ों की ध्वनि से उदघोष कर रहा मेला प्रारम्भ होता था। पुष्प की खुशबुओं और इत्र की सुगंध के साथ अगरबत्तियों की महक लिए मेलार्थी अपने शुरुवाती बिंदु से अपना सफर तय करता है। अतिथि स्वरूप दूर सुदूर से लोग आकर यहीं अपना डेरा जमाने लगते हैं। बस कुछ एक दिन के लिए। भीड़ हर मेले का हिस्सा होता है। बिना भीड़ के कोई मेला मेला नहीं होता। देखने वाली बात यह है कि मेले का सांस्कृतिक महत्व कितना रहा है। उसे किन वजहों से तरजीह दी जाती रही है। उसके विन्यास के प्रतिबिंब उसी आकार में निर्मित होते हैं।

उत्तरायणी मेले में दुकानों की श्रृंखला,आपसी भाईचारे की झलक,छोटी मोटी प्रतियोगिताओं का दौड़, सांस्कृतिक भोज्य पदार्थ, सांस्कृतिक कार्यक्रम, राजनीतिक मंच और विभिन्न प्रकार के छोटे छोटे उद्योग कर्ताओं को अपने सर समान के बिक्री करने का एक सुनहरा अवसर। आज़ादी से पहले की यदि बात करें तो यह मेला व्यापार का मुख्य केन्द्र रहा है। यहां नेपाल, तिब्बत, मुंश्यारी व महानगरों से व्यापारी आकार बाज़ार लगाते थे। पहले वस्तु विनिमय होता था, आज मुद्रा। कहीं राम धनुष लेकर मारीच को मारते तो कहीं कृष्ण की बांसुरी का वादन। मेला अपनी छटा यहां भगवान शंकर जी के आंगन में बहुत बेहतर बिखेरता है। मेला इस विशेष स्थान से संबंधित एक जन्मदिन की तरह होता है। जिसे मनाने आज भी दूरस्थ पदचाप भागते चले आते हैं।

शहर के बूढ़े बुजुर्ग कहते हैं कि “उनके समय में मेले के लिए एक दो दिन पैदल चलकर ही बागेश्वर पहुंचा जाता था और उनके समाज के आधे से अधिक लोगों ने न तो बागेश्वर देखा और न उत्तरायणी का मेला। बस सुना और उनकी यादों में रचा बसा मेला देखे बिना ही ओ इस जहां को अलविदा कह चले। पहले लोगों के पास न संसाधन थे न ही आज की तरह आर्थिक सम्मपन्नता। अस्सी वर्ष की बागेश्वर के एक दूरस्थ गाँव की अम्मा कौशल्या देवी जी बतलाती है कि हम जब जवान थे तब पैदल बागेश्वर टोलियों में जाते व आते थे। इन सबमें तीन या चार दिन का समय लगता था वापस अपने घर गाँव पहुंचने में। कहते हुए उनकी आंखों से बहती आँसुओ की धारा बिन बोले ही हज़ारों दुःख बयान कर जाती है। उनका कहना था कि तब हम बहुत सारी महिलाएँ अपनी सास व अन्य लोगों के साथ भजन कीर्तन करते, बाबा बागनाथ जी के जयकरो के साथ घर से बागेश्वर तक का सफर काटते थे। तब राशन साथ लेकर चलते और जहां रात हुई वही डेरा डाल लेते थे। रात भर झोड़े-चाचरियों की महफ़िल सजाई जाती थी। तब लोग बहुत मिलनसार हुआ करते थे। आज देखो घर के दरवाज़े पर कार, बैठे तो फुर्र बागेश्वर बाज़ार और शाम को घर, “बखता तेर बलाई ल्यूल”। तब हम साल भर आना पाई जोड़ कर मुश्किल से दो चार रुपए जोड़ कर मेला खर्च जुटा पाते थे। उस पर भी गाँव पड़ोस में सभी के लिए “कौतिकि बान” लेकर जाना होता था। तब यहां मिठाई कोई नही जानता था, केवल जलेबी मिला करती थी। देखो आज हमारे देखते देखते आना पाई से मेला लाखों की स्टार नाईट के खर्च पर पहुँच गया है। अभी कुछ समय पहले तक इसे नौ लाख की उत्तरायणी कौतिक कहा जाता था पर अब एक रात के कुछ घण्टों में नौ लाख खर्च हो रहे हैं, इस हिसाब से अब यह करोड़ों का मेला बन चला है। आज मेले में हैलीकाप्टरों में लोग घूम रहे हैं। पहले तो जब पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी यहाँ आई थी तब ही यहाँ की महिलाओं ने ये जहाज़ देखा था। तब डिग्री कालेज का मैदान पूरा भर गया, बाज़ार में कहीं पाँव रखने की जगह नही थी। आज सब जहाज़ से अपना मकान देखने उड़ान भर रहे हैं। पहले झोड़े, चाचरी, भग्नोल गाये जाते थे, आज मंच पर डीजे बजाकर कलाकार नाच रहा है, क्या कहता है कुछ समझ नही आता है। बस बाजे के साथ सब नाच रहे हैं। अपनी बोली भाषा पहाड़ी बोलने से परहेज़ करने वाली नई पीढ़ी का बस यही मेला है। उसे अपनी सभ्यता, संस्कृति से हम लोग ही धीरे-धीरे दूर कर रहे हैं।

वैसे जिन कन्धो पर जनता ने मेले की ज़िम्मेदारी सौंपी होती है वह अधिकारियों के सुर में सुर मिलाकर मेले के स्वरूप को ही बदल बैठे हैं, इन अधिकारियों को क्या मेला तो हमारी और आपकी संस्कृति से जुड़ा है, इसलिए इसे सम्भालने की ज़िम्मेदारी भी हम सभी को लेनी पड़ेगी। अपने अफसरों को खुश रखने की कोशिश करना। इन अधिकारियों की जुबान को वेदवाक्य समझना। अगर वे गलत भी कहें तो उसे ठीक मानना। इसी का नाम नौकरी है और वो यही सब तो कर रहे हैं, तुम थोड़े हो जो लगे पड़े हो। कहती हैं आज कोई बहु अपनी सास के मेला चले जाए ऐसा कम या यूँ कहें ना के बराबर देखने को मिलता है। वह बताती हैं कि माघ के माह के पहले गते को स्नान का बहुत महत्व था। स्नान के बाद तीन दिनों का व्रत होता था। आज कौन इतने नियम मान रहा है। आज मेले में चाऊमीन, मोमो की बहार है।

आज के मेले का मतलब भीड़, हुड़दंग रह गया है। संस्कृति के नाम पर सांस्कृतिक मंच तो सजे है पर उन पर अपनी संस्कृति के बजाय फूहड़ गानों व गायकों को स्टार नाईट के नाम पर बुलाकर लाखों खर्च किए जा रहे हैं। पहले नदी बगड़ में राजनीतिक मंचो के विचारों व नेताओं को सुनने की भीड़ लगती थी, आज नेताओं से दूर भागने की रेस लगा रहे हैं लोग। खैर यह वही राजनीतिक व ऐतिहासिक जगह है जहां पर अंग्रेज़ी हुकूमत की नीव हिलाने का प्रण लेकर कुली बेगार प्रथा के रजिस्टर बहाकर अंत किया गया। आज मेले में मेलार्थियों से ज़्यादा तो पुलिसकर्मी हैं, उसके बाद भी अपराध लगातार चरम पर हैं। मेले में जाकर कभी तो ऐसा लगता है मैं कहीं किसी और देश तो नही आ गया हूँ गलती से। लम्बी बातचीत के बाद अम्मा को अपना परिचय दिया तो वह बोलीं खैर अब तुम क्या कर सकते हो तुम तो बस खबर लिखने वाले हुए पत्रकार साहब। मेला देखो और मौज लो। वैसे भी आज के  पत्रकार कहां कोई पत्रकार रह गए हैं…………

मैं उत्तरायणी मेले को लेकर अपनी यादों की कल्पना करूँ तो मुझे लगता है, पिता का कंधा मेले का रथ होता है। उनकी आंखों से सारा मेला अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई पड़ता है। उत्सव की बागडोर पिता की उंगली पकड़ कर चलने में है। वह मेला बहुत अधूरा सा रह जाता है जहां पिता के कंधों को ढूंढते रह जाया जाए और न मिले। जहां उनकी डांट फटकार कानों में मंत्रों के समान न गुंजित हो पावे। पिता के द्वारा अपने बच्चे को साधना उसे मेले के भीतर घूम रहे छद्म की तमाम अंगड़ाइयों से बचा लेता है जिसकी चपेट में आने से वह विलुप्त हो सकता है।

हर मेला अपने आप में बहुत ख़ास होता है।यह वह पगडंडी होती है जहां संभल कर कदम रखना बहुत आवश्यक है और वे कदम रखना सिखाते हैं पिता। मेले की तहजीब से वाकिफ होना है तो मेले का कारण जानने पर जोर देना चाहिए। मेले में आनंद प्राप्त करना है तो मेले को जीने पर जोर देना चाहिए।मेले को लेखिनी में उतारना हैं तो चेहरों पर लिखी पंक्तियों को अक्षशः पढ़ने पर जोर देना चाहिए। मेले से निकलना हो तो अपने पदांकुर पर बल देना चाहिए। क्योंकि एक मेला एक दिन का होता है। एक दिन चौबीस घंटों का होता है और भले ही मेला एक दिन का हो या कई दिन का, सच यह है कि जीवन में हमेशा मेले नहीं आते। अतः मेला सिर्फ एक दिन का सच है और जिंदगी का संघर्ष कई दिनों का यथार्थ इसलिए समय के कांटों को निश्चित कर मेले से सही समय पर निकल आना चाहिए। आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में वैसे ही कांटों की कहां कोई कमी है जो एक और मोल लेकर खुद ही खुद से पड़ी लकड़ी करें।

“उत्तरायणी आते ही बागनाथ नगरी स्वर्ग की भाँति सज गयी, यहां का तृण तृण शिवमय हो चला। शिव भक्ति में लीन उत्तरायणी देखने की लालसा हर व्यक्ति में रहती है। हर व्यक्ति इस पल को यहां जी भर जी लेना चाहता है।”

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