साख के संकट और विवादों के घेरे में, इन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट, ईडी

पिछले आठ सालों में, जिस तरह से सरकार ने, कुछ विशेषज्ञ जांच एजेंसियों को एक खास उद्देश्य से अनुकूलित किया है, उसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि, वे जांच एजेंसियां सरकार के बजाय, सत्तारूढ़ दल या बेहतर होगा यह कहें कि, एक विशेष कॉकस की कठपुतली बन कर रह गई है। राजनीतिक लाभ हानि के उद्देश्य से, जांच एजेंसियों का दुरुपयोग पहले भी होता रहा है, पर यह प्रवृत्ति पिछले आठ सालों में जिस तरह से एक एजेंडे के रूप में बढ़ी है, वह चिंतित करने वाली तो है ही, साथ ही जांच एजेंसियों की साख गिराने वाला भी एक कदम है। सरकार, और सत्तारूढ़ दल में अंतर होता है। सत्तारूढ़ दल और एक विशेष कॉकस यानी शिखर पर कुछ लोग जो यह तय करते हैं कि क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाइए, इसमें अंतर होता है। पर यह अंतर मिटता जा रहा है। आज जिस तरह से महत्वपूर्ण जांच एजेंसियों का दुरुपयोग केवल सरकार बनाने और गिराने के लिए किया जा रहा है, यह न तो लोकतंत्र के लिए शुभ है और न ही सरकार और एजेंसियों के लिए भी।

साख के संकट और विवादों के घेरे में, इन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट, ईडी

जिन जांच एजेंसियों का सबसे अधिक, राजनीतिक कारणों से दुरुपयोग किये जाने की चर्चा है, उनमें एन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट, यानी ईडी, यानी प्रवर्तन निदेशालय, सबसे पहले नंबर पर आता है, जिसके पास आर्थिक अपराधों की विवेचना करने की शक्ति होती है। दूसरे नंबर पर सीबीआई, सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन है जिसके पास आपराधिक मामलों की जांच करने की शक्ति है, फिर एनआईए है जो आतंकी मामलों की जांच करने के गठित की गई है। सीबीआई के साथ, समस्या यह है कि, केंद्र सरकार, राज्यों के मामले, बिना राज्यों की अनुमति के, उसे सौंप नहीं सकतीं है, तो यहां उसके हांथ बंधे होते हैं। लेकिन ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय, जो मनी लांड्रिंग और धन के अवैध लेनदेन पर नजर रखने के लिए गठित है का प्रभाव त्वरित पड़ता है तो इसका राजनीतिक रूप से दुरुपयोग किए जानें की संभावना अधिक रहती है और, इसी को सरकार में बैठे कॉकस की धुन पर थिरकने के लिए बाध्य किया जा रहा है।

प्रवर्तन निदेशालय या ईडी एक बहुअनुशासनिक संगठन है जो आर्थिक अपराधों और विदेशी मुद्रा कानूनों के उल्लंघन की जांच के लिये गठित है। इसकी स्थापना 01 मई, 1956 को हुई थी, जब विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 (फेरा,1947) के अंतर्गत विनिमय नियंत्रण विधियों के उल्लंघन को रोकने के लिए एक प्रवर्तन इकाई, इन्फोर्समेंट यूनिट, का गठन का गया था। वर्ष 1960 में इस निदेशालय का प्रशासनिक नियंत्रण, आर्थिक कार्य मंत्रालय से राजस्व विभाग में हस्तांतरित कर दिया गया था। वर्तमान में, निदेशालय राजस्व विभाग, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण में है।

आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया के चलते फेरा,1973, जो कि, एक नियामक कानून था, उसे खत्म करके, उसके स्थान पर, 01जून, 2000 से, विदेशी मुद्रा अधिनियम,1999 फेमा लागू किया गया। बाद मे, एक नया कानून धन शोधन निवारण अधिनियम,2002 (पीएमएलए) बना और प्रवर्तन निदेशालय को दिनांक 01.07.2005 से पीएमएलए को इंफोर्स प्रवर्तित करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। हाल ही में,विदेशों में शरण लेने वाले आर्थिक अपराधियों से संबंधित मामलों की संख्या में वृद्धि के कारण, सरकार ने भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम, 2018 (एफइओए) पारित किया है और प्रवर्तन निदेशालय को 21 अप्रैल, 2018 से इसे लागू करने का दायित्व सौंपा गया है

ईडी ने पिछले आठ वर्षों में प्रिवेंशन ऑफ मनी लांड्रिंग ऐक्ट, पीएमएलए के अंतर्गत, 3,010 छापे मारे और ₹299,356 करोड़ के अपराध की आय को कुर्क किया. जबकि 2004 से 2014 तक, 112 छापे और ₹25,346 करोड़ अपराध की आय को कुर्क किया गया था। मनी लॉन्ड्रिंग मामलों की जांच के दौरान सबूतों के संग्रह के दृष्टिकोण से तलाशी एक महत्वपूर्ण कदम होता है। इस उल्लेखनीय तुलनात्मक वृद्धि का औचित्य बताते हुए, सरकार ने कहा,

“खोजों की संख्या में वृद्धि, मनी लॉन्ड्रिंग को रोकने के लिए सरकार की प्रतिबद्धता और उपयोग के माध्यम से वित्तीय खुफिया जानकारी एकत्र करने के लिए बेहतर प्रणाली को दर्शाती है। प्रौद्योगिकी, बेहतर अंतर-एजेंसी सहयोग और घरेलू और अंतरराष्ट्रीय सहयोगी दोनों तरह की सूचनाओं का आदान-प्रदान, पुराने मामलों में लंबित जांच को पूरा करने के लिए ठोस प्रयास और जटिल मनी लॉन्ड्रिंग मामलों में जांच जिसमें कई आरोपी हैं जिन्हें कई खोजों की आवश्यकता होती है, की संख्या में वृद्धि के कुछ कारण हैं।”

इसी तरह, 2004-05 और 2013-14 के बीच संघीय एजेंसी द्वारा विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (फेमा) के उल्लंघन के लिए केवल 8,586 जांच की गई, यह संख्या पिछले आठ वर्षों में बढ़कर 22,320 फेमा हो गई। 2004-05 और 2013-14 के बीच, 571 तलाशी की गई और फेमा के प्रावधानों के तहत 8,586 मामलों की जांच की गई जिसके परिणामस्वरूप 2,780 मामलों में एससीएनएस (कारण बताओ नोटिस) जारी किया गया और 1.312 एससीएनएस का अधिनिर्णय हुआ, जिससे 21.754 का जुर्माना लगाया गया। उस अवधि के दौरान केवल ₹14 करोड़ (लगभग) की संपत्ति फेमा के तहत जब्त की गई थी। सरकार ने यह भी कहा कि, “इस अवधि के दौरान देश भर की किसी भी अदालत ने एक भी आरोपी को दोषी नहीं ठहराया।

ईडी के बारे में, सुप्रीम कोर्ट ने भी, कुछ जानकारी तलब की थी। उसी सिलसिले में, फरवरी 2022 में, एडवोकेट मेनका गुरुस्वामी ने, सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया था कि,

“हालांकि प्रवर्तन निदेशालय ने 2011 में 1,569 जांच शुरू की थी और 1,700 छापे मारे थे पर इसके द्वारा जांच किए गए केवल, नौ मामलों में ही सजा हो पाई है।”

मेनका गुरुस्वामी ने जो दावा किया था, लगभग, उसी की पुष्टि, 25 जुलाई 2022 को वित्त मंत्रालय ने भी की है। जेडीयू (यू) के सदस्य राजीव रंजन सिंह के एक प्रश्न के उत्तर में, सरकार ने बताया कि,

“ईडी ने पिछले 17 वर्षों में, पीएमएलए, (प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट), 2002 के तहत 5,422 मामले दर्ज किया है। इसने 992 मामलों में अदालत में चार्ज शीट दायर की गई, लेकिन केवल 23 मामलों में ही, अभियुक्तों को दोषी ठहराया गया।”

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि, ईडी द्वारा छापे और पीएमएलए के मामले 1984 के बैच के आईआरएस अधिकारी संजय कुमार मिश्रा को आयकर विभाग से निदेशक के रूप में नियुक्त किए जाने के बाद अधिक बढे हैं। 2018 में निदेशक के रूप में, उन्हे नियुक्त किया गया था। उन्हें 18 नवंबर, 2022 तक, एक वर्ष के लिए सेवा विस्तार दिया गया था। इस अवधि के दौरान प्रवर्तन निदेशालय ने सत्तारूढ़ बीजेपी से जुड़े किसी भी नेता की शायद ही कभी जांच की, या राजनेताओं पर छापा मारा। ईडी द्वारा जिन राजनीतिक नेताओं की जांच की जा रही है, उनमें से, 95% राजनेता विपक्ष से हैं।

इन आंकड़ों से यह भी स्पष्ट है कि, पिछले आठ सालों में ईडी की उपलब्धियां बढ़ी है और इसका कारण है आर्थिक अपराध के क्षेत्र के इसकी शक्तियां और अधिकारों का बढ़ना। पर साथ ही ईडी पर राजनैतिक रूप से काम करने, चुन चुन कर वर्तमान सरकार के विरोधियों के खिलाफ कार्यवाही करने, और विपक्षी सरकार गिराने और बीजेपी की सरकार बनाने के लिए घोषित बीजेपी के ऑपरेशन लोटस अभियान के एक महत्वपूर्ण अंग में, परिवर्तित हो जाने के आरोप भी, लगातार लग रहे हैं। जिस भी विपक्ष शासित प्रदेश में, ईडी की जांच शुरू होती है तो, यह बात हवा में तैरने लगती है कि, अब यहां सत्ता परिवर्तन का खेल शुरू हो गया है। इस तरह ईडी के अधिकारी लाख सफाई दें कि, यह उनकी रूटीन जांच है, पर उनकी इस सफाई पर बीजेपी के लोगों के अतिरिक्त शायद ही किसी को भरोसा होता हो।

इनमें से कई जांच, छापे और गिरफ्तारियां, चुनाव से पहले ही की गई थीं, जिससे संदेह पैदा हुआ कि क्या ‘स्वतंत्र’ केंद्रीय एजेंसी, एक राजनीतिक एजेंडा के अंतर्गत काम कर रही है, या प्रोफेशनल रूप से अपने दायित्व और कर्तव्यों का निर्वहन कर रही है। कम सजायाबी के उल्लेख पर, ईडी का कहना है कि, वित्तीय अनियमितताओं को साबित करने में शामिल जटिलताओं के कारण सजा की दर कम है। कम सजायाबी का यह तर्क कि जटिलताओं के कारण सजा कम हो रही है, को स्वीकार कर पाना, थोड़ा कठिन लगता है क्योंकि, ईडी का गठन ही जटिल आर्थिक अपराधों की जांच के लिए किया गया है, न कि, सरकार के इशारे पर, विपक्षी दलों के नेताओं का शिकार करने के लिए हांका करने के लिए। फिर जटिलता भरे मामलो की जांच करने और सजा दिलाने के लिए ही तो ईडी का गठन हुआ है और उसे, ऐसे मामलों में विशेषज्ञता हासिल भी है। ईडी को बिना किसी राजनीतिक डिक्टेशन के अपना काम करना चाहिए। पर ऐसा होता दिख नहीं रहा है।

यह तर्क दिया जा सकता है कि ईडी ने जिन विपक्षी दलों के नेताओं के खिलाफ कार्यवाही की है, वे सभी भ्रष्टाचार में लिप्त रहे हैं और उनके यहां से आर्थिक अपराध के प्रमाणिक सुबूत मिले हैं। ईडी का यह कहना सही भी है तो, यहीं यह सवाल उठता है कि, क्या ईडी, आर्थिक अपराध, मनी लांड्रिंग आदि से जुड़ी, जो इंटेलिजेंस जुटाती है, तो वे सारी सूचनाएं विपक्षी नेताओं की ही होती हैं या बीजेपी के नेताओं की भी कोई जानकारी उसके पास है ? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि, पिछले आठ सालों में, क्या ईडी को एक भी ऐसा बीजेपी से जुड़ा नेता नहीं मिला, जो विधायक सांसद हो, और उसने कोई आर्थिक अपराध न किया हो या ईडी ने जानबूझकर बीजेपी से जुड़ी, ऐसी सूचनाओं से परहेज किया या उसने वही किया जो उसके राजनीतिक आकाओं ने करने को कहा और निर्देश दिया ? इन सब से न तो किसी दल की क्षवि पर कोई असर पड़ता है और न ही, किसी अन्य का। पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है ईडी जैसी विशेषज्ञ संस्था की साख पर और उसके प्रोफेशनल स्वरूप पर। अपने प्रोफेशनल स्वरूप और साख को बचाए और बनाए रखने की जिम्मेदारी ईडी के प्रमुख और उसके महत्वपूर्ण अफसरों की है। राजनीतिक दल इस्तेमाल करो और भूल जाओ के सिद्धांत पर काम करने के लिए सिद्धहस्त हैं और वे इस सिद्धांत को कभी नहीं भूलते हैं।

Disclaimer: यह लेख मूल रूप से विजय शंकर सिंह के ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है। इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए द हरिशचंद्र उत्तरदायी नहीं होगा।

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