हर पार्टी का अपना एक चरित्र स्वभाव होता है। कांग्रेस का क्या है? भाग्यवादी!

राहुल गांधी

2014 का लोकसभा चुनाव याद कीजिए! लड़े ही नहीं। जो पार्टी दस साल केन्द्र की सत्ता में रही हो। दिल्ली में 15 साल से शासन रहा हो। असम में भी इतना ही। हरियाणा में दस साल। और भी कई जगह सरकारें। वो पार्टी अगर 2014 का लोकसभा लड़ती। लड़ती सी दिखती तो भी उसकी कम से कम सौ सीटें कहीं गई नहीं थीं। मगर आईं कितनी 44! भारी शर्मनाक। मगर कांग्रेस में शर्म किस को आती है?

और फिर इसके सलाहकार। हार होती नहीं है कि नेता को हार स्वीकार करने के लिए मीडिया के सामने ले आते हैं। पता नहीं इन्हें किसने बता दिया कि हार की जिम्मेदारी मीडिया के सामने स्वीकार करना फर्ज होता है। शान की बात होती है। कोई बेसिक सिद्धांत होता है!

2014 में सोनिया गांधी जो उस समय कांग्रेस अध्यक्ष थीं उनके साथ राहुल गांधी को भी ले आए। 2019 में राहुल अमेठी में हारे नहीं थे। उससे पहले उन्हें कांग्रेस मुख्यालय लाकर उनसे हार स्वीकार करवा ली। वहां मतगणना चल रही थी। कुछ वोट और राहुल को मिलते। मगर जब आदमी हार स्वीकार कर लेता है तो माहौल एकदम निराशाजनक हो जाता है। गिनती में भी कुछ वोट इधर के उधर चले जाते हैं।

एक वाकया याद आता है। शायद 2005 का विधानसभा चुनाव था। लालू यादव बड़े जोर शोर से अपनी जीत के दावे कर रहे थे। मतदान हो गया फिर भी दम से। हालत खराब लग रही थी। मगर मतगणना से पहले वही आत्मविश्वास। खैर नतीजे आए। और लालू की पार्टी हार गई। तो उनसे पूछा कि सबको लग रहा था। क्या आपको अहसास नहीं था कि हार रहे हैं। उन्होंने कहा था। तो क्या कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ देते? अगर मतगणना से पहले बोल देते तो क्या जितने वोट गिने गए उतने गिने जाते?

यह भारतीय चुनाव व्यवस्था की सच्चाई है। यहां नेता की हिम्मत और कार्यकर्ता के आत्मविश्वास से मतदान केन्द्र की गिनती तक में फर्क पड़ता रहता है।

एक सच्ची घटना और बताते हैं। 1977 के लोकसभा चुनाव कांग्रेस हार गई थी। जनता पार्टी ने कई विधानसभाएं भंग करके वहां चुनाव करवा दिए। मध्य प्रदेश में हुए। लोकसभा हारने के बाद कांग्रेस के हौसले पस्त थे। वहां एक विधानसभा दतिया में गिनती के दौरान जनता पार्टी के उम्मीदवार और उनके काउंटिंग ऐजेन्टों के हौसले बहुत बड़े हुए थे। कांग्रेस विरोध नहीं कर पा रही थी। चुनाव अधिकारी जो कलेक्टर होते हैं वह सरकार बदलने के बाद सामान्यत: सत्ता पक्ष की तरफ झुक जाते हैं। वहां उस समय बड़े युवा कलेक्टर थे। नजीब हमीद जंग। बाद में जामिया के वीसी रहने के साथ दिल्ली के उपराज्यपाल भी रहे।

मुकाबला कांटे का था। थोड़ी सी गिनती में इधर का उधर हो सकता था। कलेक्टर जो चुनाव अधिकारी थे हाथ में छोटा सा लाउडस्पीकर लिए टेबल टेबल जाकर गलत गिनती पर विरोध कर रहे कांग्रेस के मतगणना ऐजेन्टों को धमका रहे थे कि आप अशांति मत फैलाइए। जबकि सच यह था कि कांग्रेस के पास पूरे मतगणना ऐजेन्ट तक नहीं थे। जनता पार्टी नई लोकसभा जीती थी। उसके पास दमदार लोग थे। और भी मजबूत निर्दलीय थे। जिन्हें जनता पार्टी का टिकट नहीं मिल पाया था। उस समय जनता पार्टी के टिकट के लिए भारी मारा मारी थी। ऐसे में चुनाव अधिकारी जंग माइक से डायलग बोल रहे थे- मेरी शराफत को मेरी कमजोरी मत समझना।

ऐसे में किसी युवा ने जाकर उनके माइक पर हाथ रख दिया। कहा शराफत नहीं आप बेईमानी की अनदेखी कर रहे हैं। गलत गिनती का विरोध करने वालों को डरा रहे हैं। आप यहां के शांत लोगों की शराफत को कमजोरी समझ रहे हैं। जंग साहब समझ गए। थोड़ा पुराने निष्पक्ष रंग में आए। और कांग्रेस के प्रत्याशी 77 या 80 ऐसे ही कुछ वोटों से चुनाव जीत गए। उस समय मध्य प्रदेश के ग्वालियर चंबल संभाग से दो ही कांग्रेस के विधायक जीते थे। दिग्विजय सिंह पहली बार राघोगढ़ से और श्याम सुन्दर श्याम दतिया से। श्याम जी वरिष्ठ नेता थे। चुनाव का गणित समझते थे। मगर उस समय जो दबाव था वह उन्हें भी विचलित कर गया था। बाद में धन्यवाद सभा में बोले। युवा को क्रेडिट दिया।

तो भारतीय चुनाव व्यवस्था में लड़ाई आखिरी आखिरी वोट तक होती है। और यहीं खत्म नहीं हो जाती पुनर्मतगणना तक चलती है। भाजपा यह सब सीख गई है। और कांग्रेस भाग्यवादी हो गई है। हारती बाद में है हार को स्वीकार करने के लिए पहले भागती है।

2014 के चुनाव में उत्तर भारत में मनीष तिवारी ने और दक्षिण भारत में पी चिदम्बरम ने पहले ही घोषणा कर दी कि हम चुनाव नहीं लड़ेंगे। आधा चुनाव तो कांग्रेस इन्हीं डरी हुई घोषणाओं से हार गई। बाकी कांग्रेस ने उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए पैसा देने से इनकार करना शुरू कर दिया। दिल्ली के दो नेता कांग्रेस मुख्यालय से बहुत अपमानित होकर गए। उनसे कहा गया कि 15 साल सरकार चलाई है। आपका पैसा कहां गया?

कोई कांग्रेस से पूछे कि उनके पास इतना पैसा आने ही क्यों दिया गया? कांग्रेस में मशहूर है कि पार्टी के लिए जो चंदा आता था। उसमें से दस प्रतिशत भी कांग्रेस के फंड में जमा हो जाए तो बड़ी बात है। इसके उलट भाजपा में कोई नेता दस प्रतिशत भी जेब में रख ले यह संभव नहीं है। कांग्रेस 2014 में ही कंगाल थी। मगर पार्टी के नेता मालदार थे। कांग्रेस में कहा जाता है कि पार्टी गरीब और नेता अमीर।

जब पार्टी केन्द्र की सत्ता में थी तब ही कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कांग्रेस स्थापना दिवस पर कोटला रोड पर पार्टी के अपने मुख्यालय का शिलान्यास कर आईं थीं। मगर आज 12 साल से भी ज्यादा हो गए आफिस पूरा बना नहीं है। और अभी 24 अकबर रोड जहां कांग्रेस का मुख्यालय है उसकी बगल में 26 अकबर रोड जहां महिला कांग्रेस, सेवादल और कांग्रेस के भी कुछ कार्यालय थे सरकार द्वारा तोड़ दिए गए हैं। 24 अकबर रोड कांग्रेस मुख्यालय को खाली करने के भी कई नोटिस आ चुके हैं। मगर अपना कार्यालय अभी भी पूरी तरह बनकर तैयार नहीं हुआ है। इन्टीरियर का काम चल रहा है। इस 28 दिसंबर स्थापना दिवस पर शायद महिला कांग्रेस, सेवादल को वहां जगह मिल जाए।

जबकि उसी इलाके में भाजपा को मिली जमीन पर उनका कार्यालय जो काफी बाद में बनना शुरू हुआ था। करीब चार साल पहले ही बनकर तैयार हो गया। और अशोक रोड से वहां शिफ्ट भी हो गया। कई छोटी पार्टियों सीपीएम, सीपीआई यहां तक कि आप ने भी अपना कार्यालय बना लिया है। और कांग्रेस का अभी बन ही रहा है।

गुजरात कांग्रेस ने अपनी उसी भाग्यवादी, तदर्थवादी, लापरवाह नीति की वजह से इतनी बुरी तरह से हारा है। हिमाचल की जीत अच्छी है। मगर क्या उसे जीतने के लिए गुजरात इतनी बुरी तरह हारना जरूरी था?

कांग्रेस 2014 इतनी बुरी तरह क्यों हारी? 2019 तो ठीक है फिर मोदी जी ने कोई मौका दिया ही नहीं। मगर अभी पंजाब और उत्तराखंड क्यों हारे? पंजाब बेमतलब के प्रयोगों में गंवाया। और उत्तराखंड हरीश रावत के बेवजह दबाव में आकर। और अब गुजरात का तो कोई जस्टिफिकेशन ही नहीं है। केवल एक जवाब है कि हिमाचल जीते। यह खुद को बेवकूफ बनाने का बात है। गुजरात नहीं जीतते हो सकता था। प्रधानमंत्री मोदी के लिए वह सबसे प्रतिष्ठित चुनाव होता है। मगर पिछली बार वहां 77 सीटें लाए थे। उसके बाद वहां भाजपा की या राज्य सरकार की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। उल्टा मोरवी पुल टूटने से भाजपा के लिए अप्रत्याशित समस्या आ गई थी। कांग्रेस के लिए कोई भी समस्या नहीं थी। मगर सीधे 60 सीटें और करीब 15 प्रतिशत वोट कम हो गए।

राहुल केवल एक बार गए। क्यों? प्रियंका गईं नहीं। क्यों? क्या इनसे भी बड़े कोई स्टार प्रचारक हैं कांग्रेस के पास। भाजपा में भी दो ही हैं। और दोनों मोदी और अमित शाह वहीं डेरा डाले रहे।

कांग्रेस पुराने जमाने की भारतीय क्रिकेट टीम हो रही है। ड्रा में ही संतोष या जीत का अहसास। गुजरात, हिमाचल एक एक से बराबर हो गया। बड़ी बात। इसी में खुश हैं। मगर अगले साल ही 9 राज्यों में चुनाव हैं और फिर 2024 में लोकसभा। अगर यही संतोष सुख रहा तो फिर बेड़ा गर्क है। कोई नहीं बचा सकता। बिना लड़े पहले भी कभी नहीं जीता जाता था और अब मोदी जी के होते तो यह सोचना भी मूर्खता है!

स्वतंत्र पत्रकार एवं विश्लेषक है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।

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