समलैंगिक विवाह : समाज क्रूर सरकार नर्म !

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में बहस चल रही थी कि समलैंगिकों को शादी का अधिकार हो या नहीं ? फिलहाल  इस लम्बी बहस को सकारात्मक विराम मिला है क्योंकि सरकार के वकीलों ने कह दिया है कि जल्दी ही वे एक समिति का गठन करेंगे क्योंकि इसमें कई विभागों के समन्वय की ज़रुरत होगी।कैबिनेट सचिव स्तर की समिति के सदस्य इस पर भी विचार करेंगे कि इन जोड़ों को सामान्य शादी माना  जाए या फिर एक नए कानून के तहत इनके अधिकार सुरक्षित किये जाएं।  यहाँ तक पहुंचने के लिए इस समुदाय ने  जिसे LGBTQ कहा जाता है ,लंबी लड़ाई लड़ी है। पहले तो वे अपराधी ही माने जाते थे। जेलों में डाल दिए जाते थे केवल इसलिए  क्योंकि वे सामान्य स्त्री-पुरुष की तरह सम्बन्ध नहीं जी पाते थे। धारा 377  जो उन्हें अपराधी क़रार देती थी, वह 128 साल तक देश में बनी रही। कंपनी शासन के साथ भी और कंपनी शासन के बाद भी। इस धारा के हटने के बाद अब समलैंगिक जोड़े शादी के करार में बंधना चाहते हैं जो लोग इसके ख़िलाफ़ हैं वे लगातार  लिख-बोल  रहे हैं कि भारतीय संस्कृति  में विवाह एक संस्कार है, दो आत्माओं का मिलन है। वे पूछते हैं  कि क्या विदेश में जो होता है ,वही एकमात्र जीने का सही और वैधानिक तरीका है ? क्या एक-एक समुदाय की भीतरी परम्पराओं पर भारत जैसे देश में राष्ट्रीय कानून बनने चाहिए ? क्या विकास का अर्थ यौनाचार की स्वतन्त्रता रह जाएगा ? कोई उन माता-पिता का दर्द जान सकता है जिनके बच्चे समलैंगिक यौनाचार में फंसे हैं ?

हम उस समाज से आते हैं जहाँ समलैंगिकों की बात तो दूर आम जोड़े भी अपनी शादी और सम्बन्ध पर खुलकर बात नहीं करते हैं। फिल्म डॉक्टर जी में एक दृश्य है जिसमें एक जोड़े के ब्याह को साल भर से ऊपर हो चुका है लेकिन पत्नी को गर्भ नहीं ठहरता। पत्नी जानती है कि ऐसा होने का क्या कारण है लेकिन वह पति से नहीं कह पाती क्योंकि उसके पुरुष अहंकार को ठेस लगेगी। वह एक बहाने से पर्ची लिखकर डॉक्टर तक अपनी बात पहुंचाती है। जोड़ों के बीच ऐसी संवादहीनता, वैवाहिक रिश्तों पर करारा व्यंग्य है। ज़ाहिर है ऐसे बंद समाज में ये जोड़े सिर्फ बच्चों की पैदाइश को ही विवाह का असली मकसद मानते हैं। इसी समज में एक तबका ऐसा भी है जो ज़िन्दगी को शादी और बच्चे के दबाव में नहीं बल्कि अपने हिसाब से जीना चाहता है। उसे आबादी की भीड़ में एक और बच्चा नहीं पैदा करना। इसमें  एक  समूह ऐसा भी है जिनका  ‘सेक्सुअल ओरिएंटेशन’अलग है। जैसे किसी स्त्री-पुरुष में एक दूसरे के प्रति कुदरती आकर्षण होता है ऐसा ही उसे कुदरती नहीं होता। इसे न अप्राकृतिक कहा जा सकता और ना  यौनाचार की स्वतंत्रता।इसी समूह से जुडी याचिकाएं अपने रिश्ते को कानून के दायरे में लाने की मांग कर रही हैं ,किसी यौनिक आज़ादी की नहीं। अगर जो यह केवल फैशन होता तो ये जोड़े परिवार और समाज के तिरस्कार ,प्रताड़ना और नफरत के बावजूद साथ नहीं रहते। समाज तो बाल विवाह,दहेज़ ,सती प्रथा में भी यकीन रखने वाला रहा है लेकिन क्या देश में कानून नहीं बने।  हम ट्रांसजेंडर्स को किन निगाहों से देखते हैं यह क्या कोई छिपा तथ्य है ? समाज तो उन्हें नाच-गाकर रोटी खाने के लिए मजबूर कर देता है। जीवन भर लोगों की दया पर जीने के लिए। यह कैसी व्यवस्था है कि  किसी के यहाँ बच्चा पैदा हो , आप वहां जाकर नाचो क्योंकि तुम्हें   रोज़गार देने पर समाज ने प्रतिबन्ध लगा रखा है। आज इन्हीं में से कुछ  विधायक, जज और अधिकारी भी हैं। बदलाव का यह सुनहरा सफर बहुत गिने-चुने हिस्से ने तय किया है।

समलैंगिक विवाह : समाज क्रूर सरकार नर्म !

सवाल पुछा जाता है कि क्या एक-एक समुदाय की भीतरी परम्पराओं पर भारत जैसे देश में राष्ट्रीय कानून बनने चाहिए ? हां क्यों नहीं बनने चाहिए। भारत तो है ही अपनी विविधताओं के लिए जाना जाने वाला देश। दुनिया भारत माता के इस रूप पर पहले चकित होती है फिर मोहित। हमारा संविधान भी इसी विविधता को सुनिश्चित करने वाला महान दस्तावेज है। हमारे यहाँ विशेष विवाह अधिनियम (1954 ) है ,जहाँ विजातीय और विधर्मी जोड़े शादी कर सकते हैं। वे सब जिन्हें समाज अपनी सोच के हिसाब से अनुमति नहीं देता। यहाँ तक कि वह ऐसे जोड़ों की जान ले लेने को भी सम्मान से जोड़ लेता है। ऐसे में   संविधान उन्हें सरंक्षण देता है। उनके सम्बन्ध को कानूनी रूप देता है। उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करता है जिन्हें समाज बाहर फैंक देना चाहता है ,परिवार मार देना चाहते हैं। यह एक -एक समुदाय की भीतरी परंपराओं पर बने अलग-अलग कानून नहीं बल्कि अलग-अलग विचारधाराओं और रीतियों के लिए बना एक मज़बूत कानून और प्रावधान है।

समलैंगिक विवाह के विरोध में एक आम तर्क है कि शादी दो विपरीत लिंगियों का मिलन है और संतति को आगे बढ़ाने का आधार। फिर उन शादियों का क्या जहाँ बच्चे पैदा ही नहीं हो पाते या कुछ जोड़े शादी से पहले ही यह फैसला ले लेते हैं कि वे बच्चे पैदा ही नहीं करेंगे तब ये शादियां क्या शादी नहीं रह जाएंगी। समाज तो हर हाल में बच्चे सुनिश्चित करना चाहता है।  शायद उसे इसमें भी कोई हिचक नहीं होगी कि  शादी से पहले ही जोड़ीदार का फर्टिलिटी टेस्ट भी करा लिया जाए। कानून कभी भी प्रचलित धारणा या संस्कृति के आधार पर नहीं बन सकते। अगर जो ऐसा होता तब बाल विवाह,दहेज़, सती प्रथा के खिलाफ कभी कानून नहीं बनते। समाज तो लड़कों के जन्म को भी सौभाग्य से जोड़कर देखता है तब क्या कन्या भ्रूण हत्या भी होने दी जाए?  हो सकता है कि सरकारों की राय भी यही हो कि प्रचलित और लोकप्रिय धारणा के हिसाब से कानून बनते  रहें क्योंकिआखिरकार जनमत के लिए उसे जनता के पास ही जाना है लेकिन  सर्वोच्च न्यायलय के पास संविधान से मिली शक्ति है। यह कतई ज़रूरी नहीं कि कोर्ट सरकारी लीक पर चले। जब फैसले भीड़ तंत्र के हिसाब से लिए जाने लगें तब अदालतें छोटे समूहों को नज़रअंदाज़ ना करे। यही संतुलन लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूती देता  है।  दुनिया के 24 देशों में समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता प्राप्त है। गौरतलब यह भी है कि जब विवाह में तलाक शामिल है तो ये शादियां भी एक करार का आकार ले सकती हैं।

पांच  साल पहले जब  पांच जजों की पीठ ने LGBTQ (Q यानी क्वीर का ताल्लुक अजीब,अनूठे, विचित्र रिश्तों से हैं ) से जुड़ी आपराधिक धारा 377 को हटाया गया था तब भी सरकारी पक्ष के दो विचार थे। फ़ैसले  के बारे में जस्टिस इंदू मल्होत्रा की टिप्पणी थी कि इतिहास को इनसे और इनके परिवार से माफ़ी मांगनी चाहिए क्योंकि जो कलंक और निष्कासन इन्होंने सदियों से भुगता है उसकी कोई भरपाई नहीं है। प्रेम और निजता को सर्वोच्च माना है संविधान ने। यह मनुष्य का बुनियादी हक़ है कि वह कैसे  ज़ाहिर हो अपने निजी पलों में।  जो बात हमारी सभ्यता और संस्कृति की करें तो उसने कभी भी यौन रुझान के कारण किसी को दंड का भागीदार नहीं माना था। दरअसल हम खुद अपनी असलियत से परे इस विक्टोरियन कानून को 128 साल से गले लगाए हुए थे। इसी साल जनवरी में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था  “हम चाहते हैं कि एलजीबीटीक्यू का अपना स्थान हो और उन्हें यह महसूस हो कि वे भी समाज का हिस्सा हैं। उन्हें भी जीने का हक है इसलिए ज्यादा हो हल्ला किए बिना उन्हें सामाजिक स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए। हमें उनके विचारों को बढ़ावा देना होगा।”  मोहन भागवत ने इंटरव्यू में कहा कि  समलैंगिक संबंधों का ज़िक्र महाभारत जैसे ग्रंथों में भी आया है। महाबलशाली राजा जरासंध का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा था कि उसके दो शक्तिशाली सेनापति हंस और डिम्भक के बीच समलैंगिक संबंध थे। जब इन ताक़तवर सेनापतियों को हराना मुश्किल हो गया, तो कृष्ण ने डिम्भक के मरने की अफ़वाह उड़ाई। यह सुनकर उसके मित्र हंस ने नदी में डूबकर जान दे दी। फिर हंस की मौत का समाचार जब डिम्भक के पास पहुंचा, तो अपने मित्र के विरह में उसने भी नदी में कूदकर जान दे दी। सवाल यही है कि क्या हज़ारो साल बाद भी हम उन्हें मरने के लिए छोड़ दें ? अच्छी बात है कि सर्वोच्च  न्यायालय और सरकार ने ऐसे संकेत नहीं दिए हैं।

Disclaimer: यह लेख मूल रूप से वर्षा मिर्जा के ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है। इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। 

लेखिका स्वतंत्र पत्रकार है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।

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