प्रेमचंद का किसान क्या आज भी हाशिए पर है?

सुसंस्कृति परिहार : 31जुलाई को प्रेमचंद जयंती है उन्हें याद करते हुए किसानों की याद बेतहाशा आ रही है। प्रेमचन्द का लगभग पूरा साहित्य गाँव और किसान श्रम जीवन पर केन्द्रित है। उनकी रचनाओं में किसान और मध्यम वर्ग के उत्पीड़न का जो मार्मिक रेखांकन हुआ है वैसा वर्तमान में कहीं रचनाओं में देखने नहीं मिलता। हां, मध्यमवर्गीय समाज के इर्द गिर्द व्यापक लेखन हो रहा है किसान हाशिए पर है ऐसा क्यों हुआ है। शायद द्वितीय पंचवर्षीय योजना के बाद से किसान की माली हालत का सुधरना प्रमुख कारण हो सकता है। बेशक जवाहरलाल नेहरू की कृषि क्रांति ने न केवल देश को अन्न के मामले में आत्मनिर्भर किया बल्कि विदेशों को खाद्यान्न निर्यात भी किया। लेकिन मझौले किसान और कृषि कार्य में लगे खेतिहर किसान आज भी प्रेमचंद के किरदारों की तरह आज भी बर्बादी की कगार पर हैं। यदि आज प्रेमचंद होते तो बहुत ग़मगीन और उदासीन होते?

प्रेमचंद का किसान क्या आज भी हाशिए पर है?
फोटो : साभार : Wikimedia

लेकिन दूसरी तरफ प्रेमचंद किसानों को जिस जनवादी लड़ाई में ले जाने की इच्छा रखते थे आज के किसान आंदोलन को देखकर ना केवल ख़ुश होते बल्कि ज़मीनी संघर्ष में साथ हो साथी की भूमिका में होते। प्रेमचंद ने किसान की मरजाद की भावना को भली-भांति जिस तरह समझ लिया था वह बड़ी बात थी। वे मानते थे कि किसान अपनी मरजाद बचाने के लिए और ऋण को चुकाने के प्रति भी प्रतिबद्ध रहता है ताकि कम से कम मरजाद तो बची रहे। प्रेमचंद के किसान-पात्र ऋण-ग्रस्त ज़रूर हैं लेकिन ऋण लेकर बेशर्म बन जाने की प्रवृत्ति उनमें नहीं है। वे ऐसा नहीं सोचते कि ऋण चुकाए बिना जिंदगी जीने की कोई राह चुन ली जाए। यद्यपि वे स्वयं कहीं से दोषी नहीं हैं। ऋण की तत्कालीन महाजनी पद्धति ने उन्हें परेशानी में डाल रखा था। ‘सवा सेर गेहूँ’ में इसकी नंगी सच्चाई देखी जा सकती है। यह किसान जितना श्रम करता है, उससे तो उसे समृद्ध होना चाहिए था, पर व्यवस्थागत दोषों के कारण वह ऋणग्रस्त हो जाता है। ‘महतो’ बने रहना उसका अधिकार है, परंतु चारों तरफ से उसके ‘महतोपन’ पर आक्रमण हो रहे हैं। उसे गैर किसान शक्तियाँ हर तरफ से कमज़ोर बना रही हैं। ग्रामीण समाज की वे ताकतें जो किसानी का काम नहीं करतीं, उनका काम है किसानों को परेशान करने की जुगत लगाते रहना। वे हमेशा कोशिश करती हैं कि किसान के श्रम का लाभ उठाया जाए, उनकी समृद्धि को लूटा जाए। किसान कोशिश करता है कि इज़्जत और मरजाद के साथ परिश्रम पूर्वक जीवन व्यतीत किया जाए। किसान अपनी मरजाद का स्रोत श्रम में तलाशता है। यदि वह अपनी मरजाद की चिंता छोड़ दे तो गैर-किसानी शक्तियों को मिनटों में धूल चटा दे। मगर ऐसी स्थिति में किसान संस्कृति फलस्वरूप भारतीय संस्कृति का अस्तित्व नहीं रह जाएगा। किसान ही हैं जो इसके लिए चिंता आज तक समेटे हुए हैं।

आज यही बात हमें आठ माह से चल रहे किसान आंदोलन में देखने मिल रही है उन्हें अपनी मरजाद का भान है इसलिए उन्होंने प्रतिज्ञा की हुई है कि जब तक पूंजीपति हितैषी तीनों कानून वापस नहीं लिए जाते तब तक वे पीछे हटने वाले नहीं हैं। वे मेहनतकश हैं इसलिए मरजाद की रक्षा करते सदियों से चले आ रहे हैं। वे ही हमारी संस्कृति में प्राकृतिक उत्सवों को बचाए हुए हैं। वे हैं तो रंग हैं तरंग है होली दीवाली है।

प्रेमचंद द्वारा रचित ‘प्रेमाश्रम’ महाकाव्य को ही पढ़ लीजिए. क्या इसे किसान- जीवन का महाकाव्य कहना सही होगा। आज भी ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ की काल्पनिक घटनाएं गांवों की कठोर वास्तविकताएं है लेकिन प्रेमचंद ने सिर्फ किसानों के शोषण-उत्पीड़न को ही चित्रित नहीं किया, बल्कि उनके विरोध की शक्ति को भी जगाने का काम किया है. उनकी कहानियों में किसानी समस्याओं के कारण और निवारण की झलक भी मिलती है।

इसी तरह उनके द्वारा रचित एक कहानी ‘पूस की रात’ का किसान हल्कू अभी भी कहीं गांव-देहात में जिंदा है और उसी अवस्था में है. अन्नदाता कहलाने वाले किसान की आर्थिक हालत इतनी खराब है कि ‘पूस की रात’ की कड़कडाती सर्दी का सामना करने के लिए एक कंबल तक वो नहीं खरीद सकता। वहीं भारत के समाज का एक अंग ऐसा भी है, जिसके पास संसाधन जरूरत से बहुत अधिक हैं। पूंजीवाद का परिचय इतनी सरलता से भला और कहां मिल सकता ?1936 में प्रकाशित ‘गोदान’ कृषक-जीवन का महाकाव्य कहा जाता है। होरी इसका नायक है। होरी इस उपन्यास का नायक है, होरी व्यक्ति नहीं, पूरा वर्ग है। वह भारतीय किसान का एक जीता-जागता चित्र है। ‘होरी’ के रूप में प्रेमचन्द ने भारतीय किसान को मूर्तिमान किया है। जीवन भर परिस्थितियों से संघर्ष करता हुआ किसान अंत में अपनी करुण कहानी का व्यापक प्रभाव छोड़कर समाप्त हो जाता है। भारतीय किसान की समस्त विषमताएँ ‘होरी’ में साकार हो उठी हैं। किसान साल भर खेती में कड़ा परिश्रम करते हैं और जब फसल तैयार होती है तो उसका अधिकांश और कभी-कभी सर्वांश तक महाजनों के आधिपत्य में चला जाता है।’

बदलते हुए समय के साथ कैसे किसान भूमिहीन होता जा रहा है, इस बात को समझने के लिए प्रेमचंद की कहानियों से अच्छा माध्यम शायद ही कुछ और हो सकता है। उन्होंने बताया कि कैसे लोग किसान से मजदूर बनते जा रहे हैं और कैसे लोगों में काम करने की चाहत समाप्त होती जा रही है। आदिवासियों की तरह आज किसान आज भूमिहीन हो रहा है आदिवासियों और किसानों की ज़मीन पर कारपोरेट जगत की नज़र है। आज तो संपूर्ण कृषि को तीन बिलों के ज़रिए अधिग्रहण करने का उपक्रम जारी है।जिससे तमाम खाद्यान्न उपभोक्ता संकट में आ जाएंगे पर किसान अकेले संघर्ष कर रहे हैं। प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में किसान की जिस पीड़ा को महाजनी सभ्यता में उठाया था आज वह बदले तथा निकृष्टतम स्वरुप में सामने है।

प्रेमचंद ने प्रेमाश्रम और रंगभूमि में इन किसान आंदोलनों की भावभूमि, उसकी निर्मिति, छोटे किसानों की दिक्कत और उनके प्रतिरोधों को दर्ज़ करने की कोशिश की. अपने उपन्यास प्रेमाश्रम में वे उतने मुखर और स्पष्ट नहीं हैं लेकिन 1925 में आए अपने उपन्यास रंगभूमि में तो सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ खड़े हो जाते हैं. इस उपन्यास का सबसे मजबूत पात्र सूरदास लगातार ब्रिटिश शासन के कानूनों और उनके भारतीय नुमाइंदों की मुखालफ़त करता रहता है. सरकार द्वारा दी गयी जमीन की कीमत के खिलाफ़ न केवल सूरदास बोलता है बल्कि उसे लताड़ता भी है।

आज प्रेमचंद के ‘सूरदास’ के साथ देश भर के किसान, बहुसंख्यक राजनैतिक दल और सामाजिक कार्यकर्ता खड़े हैं। अपने खेतों खलिहानों और उत्पादित अन्न की सुरक्षा के लिए। यह अलग प्रेमचंद साहित्य से ही मुखरित हुई है। किसान साहित्य में आज भले हाशिए में हों पर किसानों की यह जागृति उन्हें महत्वपूर्ण बनाती है। प्रेमचंद को पढ़ने और जानने वाले लोग किसानों के पक्ष में खड़े हों तभी प्रेमचंद की याद सार्थक होगी। किसान हैं खलिहान हैं अन्न है तभी जहान है और संस्कृतियां हैं।

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