क्या चुनाव की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है किसान आंदोलन?

क्या चुनाव की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है किसान आंदोलन?

सुसंस्कृति परिहार : अजीब बात है जब कोई आंदोलन चरम पर होता है उसके साथ बड़ा हुजूम समर्थन में खड़ा हो ही जाता है तो एक फिकरा ज़रुर सामने आता है कि यह सब राजनीति है और इसके पीछे विरोधियों का हाथ है। जबकि मूल बात आंदोलनकारियों की मांगे होती हैं जिनकी पूर्ति यदि हो जाती है तो आंदोलन सहजता से समाप्त हो जाते हैं। ऐसा कई दफ़े राज्य और केंद्र सरकारों ने किया है। कभी कभी पूरी मांगे नहीं मानी जाती कुछ मांगों की पूर्ति कर आंदोलन ख़त्म किये  गए हैं जो स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था के परिचायक हैं।

पिछले सात साल से ये सब सिरे से गायब है। हरेक आंदोलनों को बुरी तरह कुचला गया है यहां तक कि शिक्षा देने वाली महिलाओं तक पर लाठी प्रहार हुए हैं। मध्यप्रदेश हो या उत्तर प्रदेश वहां की सरकारों ने नियुक्ति मांग रहे शिक्षक शिक्षिकाओं को इस कदर परेशान किया हैं कि उन्हें अदालतों से निर्णय लेने मज़बूर होना पड़ा। नौकरियों के लिए आंदोलन करते हुए उच्चशिक्षा प्राप्त बेरोजगारों की जिस तरह सरकारों ने फजीहत की।वह सबकी जानकारी में है। किसी सामाजिक समस्या को लेकर हुए प्रदर्शनों को भी इस दौरान बुरी तरह रौंदा जाता है कि अब जैसे आंदोलन करना जुर्म बन गया है। फिर भी बी एस एन एल,बीमा कंपनियों,बैंक ,रेल ,स्वास्थ्य आदि विभाग के कर्मचारियों ने शालीन तरीके से आवाज उठाई है पर उसे भी अनसुना किया गया।  हां,  इस बीच एन आर सी के ख़िलाफ़ शाहीन बाग आंदोलन ने ज़रूर अपना रुतबा कायम किया। दुनिया में पहली बार इस आंदोलन में महिलाओं की भारी भागीदारी की चर्चाएं हुईं। लंबे समय चले इस आंदोलन को कोरोना की वज़ह से जबरिया पुलिस के बल पर ख़त्म कराया गया पर उनकी मांगे आज भी ठंडे बस्ते हैं। विदित हो,ये सभी आंदोलन शांति पूर्ण और अहिंसात्मक रुप से चलाए गए। कहीं कभी कोई गड़बड़ी नहीं हुई।

ऐसे ख़तरनाक दौर में आज  का सबसे बड़ा आंदोलन  किसान आंदोलन दसवें माह में प्रवेश कर चुका है। उनकी मांगों पर कोई समझौता नहीं हो सका है क्योंकि सरकार एक कदम भी पीछे हटने तैयार नहीं तो किसान क्यों पीछे हटने वाले हैं? ये तीनों कृषि बिल जिन्हें किसान काले कानून कहता है उनकी रीढ़ तोड़ कर उनके खेत-खलिहान और उत्पादन छीनने वाले हैं। सरकार ने अपने पूंजीपति मित्रों की खातिर यह बिल आनन-फानन में पास कराए थे। जिस पर ना तो सदन में चर्चा हुई और ना कृषक नेताओं से कोई सलाह मशविरा किया गया। तकरीबन दस बार किसानों से दिखाऊ वार्ता की कोशिशें हुई आंदोलन तोड़ने के षड्यंत्र भी किए गए पर कहीं सरकार को कामयाबी नहीं मिली। बल्कि सड़क से टिकैत को उठाने की बर्बर कार्रवाई के बाद टिकैत के आंसुओं ने आंदोलन की धार को और तेजतर कर दिया।

जब सरकार ने किसानों को सुनने से इंकार किया तब उन्होंने खुद की संसद चलाई अपने विचार उन तक पहुंचाने की पुरजोर कोशिश की। यह भी दांव जब सफल नहीं रहा तो किसानों ने जनता के बीच जाने का फैसला किया है और वे महापंचायत करके अब सरकार को कठघरे में खड़ा करने प्रतिबद्ध हैं।इसे ही राजनीति प्रेरित कहा जा रहा है। किसानों को समर्थन देने अन्य दलों के लोग वहां पहुंच रहे हैं तो कैसी आपत्ति? उनके साथ बड़ी संख्या में सामाजिक कार्यकर्ता, मानवाधिकार कार्यकर्ता , कलाकार और सांस्कृतिक जत्थे जुड़ रहे हैं तो दर्द कैसा? किसान मोर्चा प्रतिबद्ध है वे चुनाव नहीं लड़ेंगे अब कोई राजनैतिक दल इसका फायदा ले ले तो उनकी क्या गलती। उनमें से कोई चुनाव लड़ने भी खड़ा हो जाए तो यह भी उनका अपना अधिकार होगा। सात आठ माह जो किसान भाजपा सरकार में अपनी मुक्ति देखते रहे हों उनका इस तरह मोहभंग होगा ये किसी ने सोचा नहीं होगा। उत्तर प्रदेश हो या उत्तराखंड या अन्य कोई राज्य, किसान मोर्चा हर जगह इस सरकार को शिकस्त देने पहुंचेगा और ये तय है वे रुकने वाले नहीं हैं। तुम्हें जितने अपने अडानी अंबानी पसंद हैं उससे कहीं ज़्यादा उन्हें अपनी ज़मीन और मेहनत से प्राप्त अन्न पसंद हैं जिसकी वे होली, दीपावली मनाकर खुशियां मनाते हैं। उनके साथ सारा देश भी खुशी मनाता है।

यह किसान ही एकमात्र ऐसा उत्पादक है जो अपने श्रम का मूल्य निर्धारित नहीं करता ये सरकार पर छोड़ता है।पर जब लागत बढ़ जाए तो उसी अनुपात में मूल्य सरकार को बढ़ाना चाहिए ।इसे एम एस पी कहते हैं। अभी अभी सरकार ने फिर किसानों को बेवकूफ़ बनाने के लिए जो नया मूल्य निर्धारण किया है वह इतना कम है कि उस पर बात नहीं बन सकती। आईए गेहूं को ही देख लीजिए मात्र चालीस पैसे प्रति किलोग्राम रेट बढ़ाए हैं एक क्विंटल पर चालीस रुपए। यानि गेहूं की कीमत 1975 ₹ प्रति क्विंटल से बढ़ा कर 2015 ₹ कर मात्र 2 प्रतिशत की वृद्धि की गई है। यह महंगाई की मार से दिवालियापन की स्थिति तक पहुंचे किसानों के जले पर नमक छिड़कना जैसा है।

सरकार ने दावा किया हुआ है कि उसने स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को लागू कर दिया है। इस रिपोर्ट के अनुसार किसानों की जुताई, सिंचाई खाद, बीज, बिजली, कीटनाशक आदि की लागत+ उसका श्रम और देखरेख का खर्च+ उगायी गयी फसल वाली जमीन का किराया जोड़ कर एमएसपी निर्धारित किया जाना चाहिए। लेकिन सरकार ने इस बीच डीजल पेट्रोल बिजली के दाम आसमान पर पहुंचा दिये, खाद, कीटनाशक, ट्रैक्टर और अन्य क्रषी उपकरणों के दामों में भारी बढ़ोत्तरी कर दी, अब प्रमुख फसलों पर मात्र 2 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर एमएसपी को बेमानी बना दिया है। यही हाल अन्य जिन्सों का है।

भाकपा के उत्तर प्रदेश राज्य सचिव डाॅ गिरीश ने कहा है कि लगता है देश भर में चल रहे ऐतिहासिक किसान आंदोलन से सरकार ने कोई सबक नहीं लिया और किसानों की परेशानी बढ़ाने वाला असरहीन एमएसपी घोषित कर दिया। इस धोखाधड़ी से किसानों में और भी गुस्सा बढ़ेगा और किसान आंदोलन और व्यापक होगा।

ये तमाम बिगड़ती  परिस्थितियां यकीनन देश में एक सरकार विरोधी लहर को जन्म दे रहीं हैं। इससे साफ़ तौर पर यह दिखाई देने लगा है कि आगत चुनावों में किसान आंदोलन की अहम भूमिका रहेगी। जिसकी शुरुआत मुजफ्फरनगर से हो चुकी है।यह मुहिम निरंतर विस्तार लेगी इसमें शकोसुबह की कोई गुंजाइश नहीं।

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