सन बयालीस का भारत छोड़ो आंदोलन और बनारस

प्रतीकात्मक तस्वीर

विजय शंकर सिंह : यह कहानी, बनारस की जीवंतता और अन्याय के प्रति स्वाभाविक रूप से उठ खड़े होने का एक प्रेरक प्रसंग है। सन 1942 में भी, बनारस उद्वेलित हुआ था, और गांधी के आह्वान पर सड़को पर उतर गया था। बनारस में तिरंगा ( इंडियन नेशनल कांग्रेस का ध्वज ) तो 1930 से ही फहराया जा रहा था। 26 जनवरी, 1930 को, लाहौर में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में काग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का संकल्प लिया था और सर्वसम्मति से पूरी आजादी का प्रस्ताव पारित कर लक्ष्य निर्धारित किया था। उसके बाद, औपनिवेशिक स्वराज्य, होम रूल, स्वायत्तता जैसी बातें, जो हमारे नेता पहले कर रहे थे, उन सबका पटाक्षेप हो गया और सन बयालीस आते आते, 8 अगस्त को बम्बई के ग्वालिया टैंक से एक ही आह्वान गूंजा था, अंगेजो भारत छोड़ो। करो या मरो।

सन बयालीस का भारत छोड़ो आंदोलन और बनारस

लाहौर काग्रेस के संकल्प के बाद हर साल 26 जनवरी को, कांग्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाती थी। इसी तिथि को यादगार बनाने के लिये 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया, और भारतीय गणतंत्र का औपचारिक प्रारंभ उसी दिन से माना जाता है। बनारस में, जिला कांग्रेस कमेटी, स्वतंत्रता दिवस 1930 से ही मानती आ रही थी। तब तिरंगा, टाउनहाल मैदान में फहराया जाता था और पूर्ण स्वाधीनता का संकल्प दुहराया जाता था। यह क्रम वास्तविक स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त तक चला। तब इसी तिथि को काग्रेस कमेटी भी टाउन हाल में स्वाधीनता संग्राम का उत्सव मनाने लगी। चूंकि आजादी पूर्व अंग्रेजों का शासन था, इसलिए कांग्रेस के नेता और कुछ लोग, चुपके से टाउनहाल जाते थे, और झंडा फहरा देते थे।

सन 1942 की अगस्त क्रांति आंदोलन के दौरान, बनारस जिले में चार स्थानों पर अंग्रेजी सरकार ने गोलियां चलाई और लोग शहीद हुए।

  • पहली घटना, दशाश्वमेध की थी। 13 अगस्त की शाम काग्रेस ने एक जुलूस निकाला, जिसपर पुलिस ने गोली चलाई। भीड़ ने तितर-बितर होने का मैजिस्ट्रेट का आदेश नहीं माना और, तब के कांग्रेस के नेता, विन्देश्वरी पाठक तिरंगा लेकर आगे बढ़े और पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनकी गिरफ्तारी होने पर भीड़ की तरफ से, पथराव शुरू हो गया। 26 राउंड गोली चली। चार लोग शहीद हो गए, और दर्जनों व्यक्ति घायल हुए। शहीदों में विश्वनाथ (लाहौरीटोला), बैजनाथ प्रसाद (ब्रह्मनाल), हीरालाल (मानमंदिर) का नाम मिलता है।
  • दूसरी महत्वपूर्ण घटना, चन्दौली जिले के धानापुर में 16 अगस्त को हुयी थी। तब चन्दौली, बनारस का ही अंग था। यह महत्वपूर्ण घटना है जिसका नेतृत्व कामता प्रसाद विद्यार्थी ने किया था। इसका विवरण आप आगे पढ़ेंगे।
  • 17 अगस्त को चोलापुर में तीसरी घटना हुयी थी। आयर से वीरबहादुर सिंह के साथ एक जुलूस थाने पहुंचा। वहाँ पर भी गोली चली और, इसमें रामनरेश उपाध्याय, निरहू भर, श्रीराम, चौथी नोनिया और पंचम राम शहीद हुए थे।
  • चौथी घटना, 28 अगस्त को सैयदराजा में घटी। प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता, जगत नारायन दुबे के नेतृत्व में एक जुलूस निकला। जिस पर पुलिस से गोली चलाई और जुलूस में शामिल, तीन व्यक्ति, फेकू, श्रीधर और रामभरोस शहीद हुए।

इसके अतिरिक्त अन्य छिटपुट घटनाएं भी घटी थीं। उदाहरण के लिये, बाबतपुर में विश्वनाथ सिंह, पहाड़ा रेलवे स्टेशन फूंकने में झुलसे, बीएचयू के छात्र नरेश सिन्हा, कैलहट स्टेशन फूंकने में, इंजीनियरिंग में पढ़ रहे पंजाब के छात्र कश्मीरा सिंह गिरफ्तार हुए, जिन्हें बीएचयू के अस्थाई जेल में रखा गया जहां कश्मीरा सिंह की मृत्यु हो गई थी।

जिला काग्रेस कमेटी ने एक जांच समिति का गठन किया, उसकी रिपोर्ट के अनुसार पुलिस उत्पीड़न एवं यातना के चलते रामगति, सिद्धराज व गिरधारी नामक तीन व्यक्तियों की पुलिस हिरासत में मृत्यु हुयी। वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में बनारस जिले में बीस शहादतें हुई थीं। तीन शहादतें 14 अगस्त को हुईं। उन शहीदों की याद में 14 अगस्त को मशाल जुलूस निकालने की परंपरा काग्रेस कमेटी ने शुरू की।

इसमे सबसे चर्चित धानापुर कांड रहा।

9 अगस्त 1942 को मुम्बई में गांधी जी के करो या मरो के आह्वान की गूंज धानापुर तक पहुंच गयी। कांग्रेस के नेता, कामता प्रसाद विद्यार्थी के नेतृत्व में 16 अगस्त सन 1942 को आजादी के दीवानों का एक विशाल जत्था, धानापुर में पकड़ी के पुराने पेड़ के नीचे इकट्ठा हुआ। भारत माता की जय व इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए यह हुजूम, थाने के गेट तक पहुंच गया। जहां राजनारायण सिंह, सूर्यमनी सिंह और बलिराम सिंह सहित अन्य लोग, एसओ, थाना धानापुर, अनवारुल हक से, थाने पर, शांतिपूर्व ढंग से, तिरंगा फहराने के लिए बातचीत करने लगे। लेकिन अनवारुल हक़ ने, तिरंगा फहराने की मांग से इनकार कर दिया और 52 चौकीदारों और कुछ सिपाहियों को लेकर पूरे थाने की घेरेबंदी कर दी। लेकिन इस घेरेबंदी से आंदोलनकारियों का हौसला पस्त नहीं हुआ। उन्होंने पुलिस द्वारा, गोली चलाये जाने के बाद भी, थाने पर झंडा फहरा दिया।

लेकिन पुलिस की गोली से आठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जख्मी हो गए। जिसमें हीरा सिंह मौके पर शहीद हो गए। थानेदार की रिवाल्वर से निकली गोली ने हीरा सिंह, महंगू सिंह, रघुनाथ सिंह सहित आठ क्रांतिकारियों को प्राण घातक चोटें पहुंची। महंगू सिंह रास्ते में और रघुनाथ सिंह सकलडीहा अस्पताल में वीरगति को प्राप्त हुए। साथियों की शहादत का बदला लेते हुए दूसरे अन्य क्रांतिकारियों ने थानेदार और हेड कांस्टेबल को पीट पीटकर थाने में ही मार डाला। शेष सिपाहियों ने भागकर किसी तरह अपनी जान बचाई। जब अंग्रेजों को जानकारी हुई, तो गाजीपुर जिले की सीमा से गंगा पार कर धानापुर आए। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां भी हुईं। इसके बावजूद 16 से 26 अगस्त तक धानापुर थाने पर तिरंगा लहराता रहा।

अरुण श्रीवास्तव जी ने बताया है कि, ‘धानापुर कांड स्वर्णिम था।उपरोक्त लोगों के अलावा उसमें कादिराबाद के गुलाब सिंह, राजनारायण सिंह और गाँव गौसपुर के मोहन कुशवाहा भी सम्मिलित थे। खडान, गुरेहु और मिर्जापुर के लोग भी सम्मिलित थे। थाना फूंकने के लिए कमालपुर के किसी दुकानदार ने मिट्टी का तेल भी मुहैय्या कराया था। विद्याथी जी ने शहीदों की याद में अमर शहीद विद्यामन्दिर,शहीद गांव में स्थापित किया। धानापुर राजकीय महाविद्यालय का नाम शहीद हीरा सिंह के नाम पर रखा गया है।’

धानापुर कांड में शहीदों के अतिरिक्त लगभग 15 व्यक्ति और गिरफ्तार हुए थे जिनपर थाने पर हमला, पुलिस जन की हत्या और राजद्रोह का मुकदमा चला था। मैं उनके नाम ढूंढ नही पाया, पर उनमे से लगभग 8 या 9 लोग धानापुर के पास ही स्थित हिंगुतरगढ़ के थे। इस गांव में मेरी ननिहाल है इसलिए मैंने बचपन मे इस घटना के बारे में सुना है। 15 अगस्त 1947 के बाद जब सारे राजबंदी रिहा किये गए तो यह लोग भी कारागार से मुक्त हुए। बनारस की दीवानी कचहरी, जो अब भी लाल ईंटो से बनी इमारत में है, में प्रथम तल पर वह न्यायालय कक्ष है, जिंसमे धानापुर कांड की सुनवाई हुयी थी। उंस कमरे में एक शिलापट्ट भी है जिसपर यह इबारत लिखी गयी है कि, इस कमरे में धानापुर कांड की सुनवाई हुयी थी। अब वह शिलापट्ट और कमरा अपने वास्तविक स्वरूप में है या नहीं, यह नहीं बतला पाऊंगा। मैं जब यूपी कॉलेज में पढ़ता था और मेरे बड़े पिताजी जो एडवोकेट थे, के यहां एक बार गया था तो उन्होंने मुझे दिखाया था और यह पूरा किस्सा सुनाया था।

धानापुर का यह थाना अब नहीं है। उसे गिरा दिया गया है और उसके बगल में नया और आधुनिक ढंग का थाना बना दिया गया है। पर लगभग 15 साल पहले पुराना थाना बरकरार था। पुराने लोग सन 42 की घटनाओं को उत्साह और गर्व से बताते थे। स्वाधीनता संग्राम केवल, गांधी, पटेल, नेहरू, सुभाष, आज़ाद जैसे नेताओं के ही इर्दगिर्द नहीं सिमटा रहा बल्कि यह जनता के भीतर गहरे तक पेठा रहा। शायद ही कोई जिला हो जहां सन बयालीस का प्रतिरोध नहीं हुआ था। धानापुर भी अपवाद नहीं रहा। धानापुर के पुराने थाने के बारे में, स्थानीय तथा क्षेत्रीय लोगों की मांग थी कि इस ऐतिहासिक थाने को पर्यटक स्थल या शहीद पार्क का रूप दिया जाए, लेकिन ऐसा न हो सका।

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