सशक्त पंचायती राज व्यवस्था द्वारा ही वास्तविक लोकतंत्र लाया जा सकता है

भारत एक कृषि प्रधान देश के साथ साथ ग्रामींण सभ्यता और संस्कृति वाला देश भी है। आज भी भारत में कुल आबादी का लगभग पैंसठ प्रतिशत हिस्सा गाँवों में गुजर बसर करता है। हमारे सहज सरल गाँव और गाँव के लोग भारत की समृद्धि के  आधार स्तम्भ है। वैदिक काल से लेकर अंग्रेजो के आगमन तक भारत के गाँव हमारी शासन व्यवस्था की मौलिक ईकाई रहे हैं। परन्तु अंग्रेजो ने अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं की प्रति- पूर्ति में  भारतीय गाँवों की मौलिकता और आत्मनिर्भरता को तहस-नहस कर दिया। इसलिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान गाँवो के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक उत्थान की आवाज प्रखरता से उठाई और इसके लिए सहृदय और सचेतन प्रयास भी किया। महात्मा गाँधी ने कहा था कि-“भारत का भविष्य गाँवो में बसता है “। गाँवो के उत्थान और विकास के प्रति महात्मा गाँधी की उत्सुकता और उत्कट इच्छा तथा उनके समर्पित भाव को देखते हुए हमारे संविधानविदो ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद चालीस में नीति निदेशक तत्वों के रूप में पंचायती राज व्यवस्था को शामिल किया । इसलिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद चालीस को गांधीवादी अनुच्छेद कहा जाता है। स्वाधीनता उपरांत पंचायती राज व्यवस्था को सुदृढ़ सक्षम सशक्त और सक्रिय बनाने तथा कानूनी हैसियत प्रदान करने के लिए लगभग आधा दर्जन समितियां बनाई गई। जिसमें सबसे पहले बनाई गई बलवंत राय मेहता समिति ने त्रिस्तरीय स्तरीय पंचायतीराज राज व्यवस्था की सिफारिश की। इसी समिति की सिफारिश के आधार पर 1959 मे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने  राजस्थान के नागौर जिले में पंचायती राज व्यवस्था का शुभारंभ किया था । इसके बाद 1977 मे जनता पार्टी की सरकार ने अशोक मेहता समिति बनाई । इस समिति ने द्वि-स्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था की सिफारिश की। महज ढाई साल में ही श्री मोरारजी देसाई की सरकार गिरने के साथ ही अशोक मेहता समिति की सिफारिशे भी मृतप्राय हो गई। स्वर्गीय श्री राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल की अवसान बेला में पंचायत राज व्यवस्था के लिए गम्भीरता से प्रयास किया। उनके कार्यकाल में पंचायती  राज व्यवस्था को सशक्त और सक्रिय बनाने के लिए दो समितियाॅ बनाई गई 1- जी वी के राव समिति और 2- डॉ एल एम सिन्धवी समिति। परन्तु विपक्षी दलों का अपेक्षित सहयोग न मिलने के कारण गम्भीर प्रयास के बावजूद राजीव गांधी को सफलता नहीं मिली। उनके कार्य काल में पंचायती राज व्यवस्था से संबंधित विधेयक राज्य सभा में गिर गया। अंततः 24 अप्रैल 1993 मे 73वे संविधान संशोधन के माध्यम पंचायतीराज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया। जिसके उपलक्ष्य में हर वर्ष 24 अप्रैल को पंचायतीराज दिवस के रूप में मनाया जाता हैं। 73वें संविधान संशोधन के तहत पंचायतीराज संस्थाओं को न केवल संवैधानिक दर्जा दिया गया बल्कि नेतृत्व की दृष्टि से इसका परम्परागत सांचा,ढांचा और खांचा ही पूरी तरह से बदल दिया गया। भारत जैसे विविधतापूर्ण बहुलतावादी समाज में महिलाओं, अनुसूचित जातिओ, अनुसूचित जनजातिओ और पिछड़े वर्गों को आबादी के अनुपात में आरक्षण प्रदान कर सबको नेतृत्व करने का अवसर प्रदान किया गया। यह सत्य है कि- 73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायतीराज संस्थाए सामंतवाद की जकडन से बाहर निकलने में सफल हूई है। महिलाओं सहित वंचित वर्ग मे स्थानीय स्तर पर नेतृत्व करने की चाहत और महत्वाकांक्षा पैदा हूई है। लोकतंत्रिक परिवेश अवश्य व्यापक और विस्तृत हुआ परन्तु जातिगत गोलबंदी भी तेजी से बढी है। लोकतंत्र एक गतिशील अवधारणा हैं। लोकतंत्र की गतिशीलता का स्वाभाविक निष्कर्ष है कि- सत्ता का ऊपर से नीचे की तरफ हस्तांतरण प्रकारान्तर से संकल्पना के रूप में “सत्ता का बिकेंद्रीकरण”। जिसके अनुसार गाँवों के विकास के लिए योजनाओ का निर्माण सूदूर राजधानियों में पंचसितारा सुविधाओं से परिपूर्ण किसी आलीशान सरकारी कक्ष में न होकर किसी दूर-दराज़ गाँव के किसी बरगद या पीपल के वृक्ष के नीचे गाँवों की चौपालो के माध्यम से किया जायेगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सपना भी यही था कि-गाँवो के उत्थान और विकास की योजनाए और  नीतियां गाँवो में ही बननी चाहिए और तभी गाँवों की मौलिकता और आत्मनिर्भरता को वापस लाया जा सकता है।

कहानी में नहीं आता पहेली से नहीं जाता।
ना जाने क्यों ऐ छाॅला मेरी हथेली से नहीं जाता।।
तुम्हें आना पडेगा हमारे गाँव की गुमनाम गलियों में,
क्योंकि सदन का रास्ता तेरी हवेली से नहीं जाता।।

गाँवो के उत्थान और विकास के लिए सवैंधानिक कानूनी और औपचारिक बदलाव के साथ-साथ सामाजिक शैक्षणिक और नैतिक सुधारों की भी  महती आवश्यकता है। हमारे गवंई जन जीवन में कई प्रकार के दुर्गुण और दुर्व्यसन के साथ-साथ सोच-विचार की दृष्टि से कई प्रकार संकीर्णताए और सामाजिक तथा सांस्कृतिक पिछड़ापन पाया जाता है।

सशक्त पंचायती राज व्यवस्था द्वारा ही वास्तविक लोकतंत्र लाया जा सकता है

आधुनिकीकरण के नकारात्मक तत्वों  के तेजी बढते दुष्प्रभाव के फलस्वरूप गाँवो में विशेषकर युवाओं में दुर्व्यसन बढता जा रहा हैं।ताडी, शराब गांजा भाँग ताश, जुऑ और चुगलखोरी की प्रवृत्ति से उबार कर ही गाँवो में आर्थिक समृद्धि और जन जीवन में खुशहाली लायी जा सकती है। इसके लिए सरकारों , पंचायतीराज संस्थाओं के विभिन्न पदों ( ग्राम पंचायत सदस्य, ग्राम पंचायत प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्य और जिला पंचायत) लिए निर्वाचित प्रतिनिधियों और गाँव के बौद्धिक समुदाय द्वारा ईमानदारी सार्थक पहल करने की आवश्यकता है। आजकल गाँवों में कुछ लोगों का   सुबह का नाश्ता ( breakfast) गाँवो के किसी तरकुल या खजूर के पेड़ के नीचे चना चबेना और ताडी के साथ होता हैं। तरकुल पर चढने उतरने के माहिर तरकुलारोही अपने कंधे पर बांस के फट्ठे के आसरे लबनियों को इस तरह लेकर मचलते हुए चलते हैं जैसे लगता है कि श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कंधे पर लटकाये तीर्थयात्रा पर निकले हैं। जेठ के महीने से पूरी गर्मी तक सुबह शाम ताडी का बडा आकर्षण रहता हैं। ताडी का औषधीय गुण बताने वाले देशज गवंई वैद्य भी इसके लाभकारी गुणों को एक ईमानदार विज्ञापनकर्ता की तरह बताते हैं जिससे ताडी पीने वालों की  तादात और चाहत दोनों बढ जाती हैं। अपनी बसुन्धरा से लगभग 100 मीटर की ऊंचाई पर पाएं जानें वाले आकाशीय पेय पदार्थ के लिए किसी अखबार या टीवी चैनल पर विज्ञापन नहीं करना पड़ता हैं। बल्कि कस्तूरी ढूंढने वाले मृग की तरह इसकी चाह रखने वाले स्वयं पहुँच जाते हैं। इसके बाद दुपहरीया तिजहरिया में किसी सुनिश्चित चिन्हित स्थान पर ताश या जुऑ खेलने के लिए बटोर होने लगता है। भारतीय जनमानस में फुरसत के समय में ताश जुऑ और चौसर खेलने का वैसे तो चलन कलन बहुत पुराना है। वेद व्यास रचित हमारे पवित्र पावन ग्रंथ महाभारत के अनुसार हमारे धर्मराज युधिष्ठिर ने द्रौपदी को ही चौसर के दाॅव पर लगा दिया था। दुपहरीया और  तिजहरिया के सन्नाटे में ताश जुऑ और चौसर खेलकर लोगों को अद्वितीय आनंद और आत्म संतुष्टि की अनुभूति होती है। ताश और जुऑ खेलते समय लोग-बाग गैरहाजिर लोगों की घर गृहस्थी की गोपनीय और गूढ जानकारियां एक दूसरे से साक्षा करते हुए खूब हँसी ठहाके लगाते हैं। आम तौर पर इसको ही चुगलखोरी कहा जाता हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किक चेतना के अभाव में आज भी हमारे गाँवो में मिथकों मुहावरों पूर्वाग्रहों और अंधविश्वासो का बोलबाला है। इसलिए आज भी गाँवो में जादू-टोना भूत-प्रेत का विचार और विश्वास  चलन कलन में जिन्दा हैं।

आज दुनिया तेजी से बदल रही हैं अमेरिका सहित पश्चिमी दुनिया के देश  मंगल ग्रह पर एक नई दुनिया बसाने और जीवन की सम्भावना तलाश रहे हैं। इसलिए बदलती दुनिया और बदलते दौर के लिहाज से भारतीय गाँवों को भी बदलना होगा। गाँवो में योग व्यायाम खेल-कूद के लिए तथा  बेहतरीन सुबहों के लिए मिनी स्टेडियम होना आवश्यक है। मिनी स्टेडियम होने से गाँव के लोगों को न केवल स्वस्थ्य और मस्त जीवन मिलेगा अपितु गाँवो में खेल-कूद के क्षेत्र में उभरती प्रतिभाओं को अपनी प्रतिभा निखारने का उचित मंच (प्लेटफॉर्म) मिलेगा। ताश और जुऑ जैसी अन्य कुप्रवृत्तियो से ग्रामीण जन जीवन को निजात दिलाने के लिए भारतीय गाँवों में सूचना संचार के अत्याधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण एक पुस्तकालय और वाचनालय होना चाहिए। जिससे ग्रामींण जन जीवन में सृजनात्मक रचनात्मक सकारात्मक और समस्याओं के लिए समाधानात्मक बौद्धिक तार्किक  क्षमता का विकास हो सके। इसके बिना न्यू इण्डिया और वैश्वीकरण का नारा खोखला होगा। इसके साथ ही साथ गाँवों की भौगोलिक स्थितिओ परिस्थितियों का आकलन कर गाँवों में कृषि उत्पादों पर आधारित लघु कुटीर उद्योगो के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए व्यवस्था होनी चाहिए ताकि लोगों को घर परिवार के साथ साथ रहते हुए रोजी रोजगार मिल सकें। गाँवों के युवाओं और युवतियों को आर्थिक क्रियाओं के लिए सुदक्ष बनाने के लिये विविध प्रकार के शिक्षण-प्रशिक्षण केन्द्र और समय-समय पर कौशल विकास कार्यक्रमो का आयोजन आवश्यक है। इससे गाँवो से शहरों की तरफ तेजी से बढ रहे पलायन को रोका जा सकता है और गाँवों के युवाओं और युवतियों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाया जा सकता है। पंचायतीराज दिवस के अवसर पर मेरा विनम्र सुझाव हैं कि पढे लिखे ईमानदार और सचरित्र नेताओं को पंचायतीराज संस्थाओं के विविध पदों पर चुनाव लडना चाहिए। विधानसभा और संसद से इसका सीधा श्रेणीबद्ध तारतम्य स्थापित करते हुए विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लडने वाले अभ्यर्थियों को चुनाव लडने के लिए पंचायतीराज संस्थाओं में निर्वाचित होने की अनिवार्य शर्त लगाई जानी चाहिए । इससे पंचायतीराज संस्थाओं में नेतृत्व की दृष्टि गुणवत्ता आयेगी और जमीनी स्तर पर लोकतंत्र मजबूत होगा। वस्तुतः पंचायतीराज संस्थाए संसदीय जनतंत्र की प्राथमिक पाठशाला होती हैं। केंद्रीय विधायिका (संसद) और राज्य स्तरीय विधायिका (विधानसभा) को आपस में संगुम्फित और श्रेणीबद्ध कर संसदीय जनतंत्र को सक्षम सक्रिय और जमीनी स्वरूप प्रदान कर सकते हैं। पंचायतीराज संस्थाओं से निर्वाचित प्रतिनिधि अगर  विधानसभा और लोकसभा पहुँचेगा तो अपने क्षेत्र की बुनियादी समस्याओं को मजबूती से रखने में सफल होगा।

स्वतंत्र लेखक, साहित्यकार एवं विश्लेषक है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।

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