देशद्रोह कानून पर पुनर्विचार बहुत जरूरी: जस्टिस दीपक गुप्ता

देशद्रोह कानून पर पुनर्विचार बहुत जरूरी: जस्टिस दीपक गुप्ता

विजय शंकर सिंह : सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने एक इंटरव्यू में कहा है कि, क्रिकेट में पाकिस्तान की जीत पर जश्न मनाना, निश्चित रूप से देशद्रोह नहीं है। यह इंटरव्यू, वे, ‘द वायर’ के लिए करण थापर को दे रहे थे। इंटरव्यू में जस्टिस गुप्ता ने कहा, “यह निश्चित रूप से देशद्रोह नहीं है, लेकिन यह सोचना निश्चित रूप से हास्यास्पद है कि यह देशद्रोह के बराबर है … इन लोगों पर सेडिशन के आरोप कभी भी अदालत में नहीं टिकेंगे। यह सार्वजनिक धन और समय की बर्बादी है। जश्न मनाने की कार्रवाई कुछ लोगों के लिए अपमानजनक लग सकती है, लेकिन यह कोई ऐसा अपराध नहीं है, कि इस पर देशद्रोह की धारा लगाई जाय।”

वे आगे कहते हैं, “एक चीज है कानूनन अपराध, और दूसरी चीज है अपमानजनक और अनैतिक। सभी कानूनी कार्य जरूरी नहीं कि, वे समाज के मानदंडों के अनुरूप, अच्छे भी हों, और सभी अनैतिक या बुरे समझे जाने वाले कार्य, कानूनन दंडनीय अपराध भी हों। शुक्र है, हम कानून के शासन द्वारा शासित हैं और न कि, नैतिकता के नियमों से। अलग-अलग समाज, अलग-अलग धर्म और अलग-अलग समय में नैतिकता के अलग-अलग अर्थ और मापदंड होते हैं…”

● आईपीसी की धारा 124ए के तहत देशद्रोह दंडनीय है।

जस्टिस गुप्ता ने बलवंत सिंह और एनआरवी के मामले का हवाला दिया। यह केस, पंजाब राज्य, से सम्बंधित है। इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि

“खालिस्तान जिंदाबाद” का नारा देशद्रोह नहीं है क्योंकि हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था का कोई आह्वान इस नारे के अतिरिक्त नहीं है।”

इस पृष्ठभूमि में, उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा पोस्ट किया गया ट्वीट कि “आगरा में कश्मीरी छात्र, जिसने भारत पर पाकिस्तान की जीत का जश्न मनाया, पर देशद्रोह का आरोप लगाया जाएगा- “निश्चित रूप से देश के कानून के खिलाफ है” और “एक जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति को ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए।”

वे आगे कहते हैं, “अगर वे (मुख्यमंत्री कार्यालय) देशद्रोह पर अदालतों द्वारा, समय-समय पर दिए गए विभिन्न फैसलों का अध्ययन करते, तो मुख्यमंत्री को इस तरह का बयान जारी न करने की सलाह दी जाती। मुझे नहीं पता कि क्या वे उस प्रसिद्ध मामले (बलवंत सिंह का मामला ) से अवगत हैं।”

पाकिस्तान की जीत पर मनाए जा रहे जश्न पर पूर्व न्यायाधीश ने कहा, “मैं इस कार्रवाई का समर्थन नहीं कर सकता। लेकिन, खेल में आप दूसरे पक्ष का समर्थन क्यों नहीं कर सकते … बहुत सारे ब्रिटेन के नागरिक या भारतीय मूल के ऑस्ट्रेलियाई नागरिक, जब एक मैच लॉर्ड्स (क्रिकेट के मैदान) में खेला जाता है, तो भारत की तरफ से खिलाड़ियों का हौसला बढ़ाते हैं और भारत की जीत पर जश्न मनाते हैं। पर क्या वहां की सरकारें, इस पर आपत्ति करती हैं ? क्या उन पर अपने-अपने देशों में राजद्रोह का आरोप लगाया जाता है?”

देशद्रोह के अपराध की आवश्यकता पर फिर से विचार करने की आवश्यकता यह बताए जाने पर कि राजनेताओं और पुलिस द्वारा देशद्रोह के आरोप का दुरुपयोग जारी है, न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा, “अब समय आ गया है, जब देशद्रोह की इस धारा की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी जा रही है, तो, सर्वोच्च न्यायालय को इस पर विचार कर कदम उठाना चाहिए और बिना किसी अनिश्चित शर्तों के यह तय करना चाहिए कि यह कानून संवैधानिकता रूप वैध है या नहीं।”

इससे पहले भी कई मौकों पर जस्टिस गुप्ता ने सभ्य लोकतंत्र में इस प्रावधान के अस्तित्व पर अपनी आपत्ति व्यक्त की है। उनका दृढ़ मत है कि इस प्रावधान को समाप्त किया जाना चाहिए। “प्रश्न का अधिकार, संवैधानिक लोकतंत्र का सार है, राजद्रोह कानून के बढ़ते दुरुपयोग पर विचार आवश्यक है।”

इस साल जुलाई में, भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने भी प्रावधान के उपयोग को जारी रखने पर आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा था कि स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए औपनिवेशिक युग के दौरान पेश किया गया कानून वर्तमान संदर्भ में आवश्यक नहीं हो सकता है।

बाद में, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश, जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने यूएपीए के अन्य हिस्सों के अलावा, देशद्रोह के दंडात्मक प्रावधान को खत्म करने के लिए शीर्ष अदालत में सुनवाई की। इस कानून को चुनौती देने वाली कई याचिकायें सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित हैं। जस्टिस गुप्ता ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट उनकी “जितनी जल्दी हो सकेगा, इस पर सुनवाई करेगा।”

आगरा में पाकिस्तान की जीत का जश्न मना रहे कश्मीरी छात्रों के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया टिकाऊ नहीं हैं। पूर्व न्यायाधीश ने यह भी कहा कि प्रथम दृष्टया, यूपी में कश्मीरी छात्रों के खिलाफ लगाए गए अन्य आरोप अस्थिर प्रतीत होते हैं।

न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि वह पाकिस्तान की जीत के किसी भी उत्सव के बारे में बात नहीं कर रहे थे जो जम्मू-कश्मीर में हुआ हो। वे उत्तर प्रदेश में, दर्ज मामलों पर अपनी बात कह रहे थे। उन्होंने कहा, ” उन पर आईपीसी की धारा 153 ए (धर्म के आधार पर दुश्मनी को बढ़ावा देना) और 505 (1) (बी) (ऐसे बयान देना जो दूसरों को राज्य या सार्वजनिक शांति के खिलाफ अपराध करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं) और धारा 66 एफ (साइबर-आतंकवाद) के तहत मामला दर्ज किया गया है। आईटी अधिनियम के दर्ज हैं।”

“यह एक हास्यास्पद आरोप है … क्या उन्होंने हिंदू धर्म के खिलाफ कुछ कहा है?” धारा 153ए के आरोप पर जस्टिस गुप्ता ने कहा। उन्होंने कहा कि, “इन छात्रों के खिलाफ आईपीसी की धारा 505 (1) (बी) लागू करना भी अनुचित है क्योंकि वे केवल जश्न मना रहे थे, किसी को उकसा नहीं रहे थे।”

साइबर-आतंकवाद के आरोप पर, न्यायाधीश ने कहा कि पाकिस्तान की जीत के जश्न में कोई ट्वीट या किसी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम का उपयोग नहीं किया गया था। न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा, “मैं इस तरह की जीत का जश्न मनाने में उनके साथ सहमत नहीं हो सकता। भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को देखते हुए, यह कोई बुद्धिमानी नहीं है। लेकिन यह कोई दंडनीय अपराध नहीं है।”

राजद्रोह पर औपनिवेशिक काल के विवादित दंडात्मक कानून के तहत 2014 से 2019 के बीच 326 मामले दर्ज किए गए। अब कुछ राज्यों के आंकड़े देखते हैं।

● असम में दर्ज किए गए 56 मामलों में से 26 में आरोपपत्र दाखिल किए गए और 25 मामलों में मुकदमे की सुनवाई पूरी हुई। हालांकि, राज्य में 2014 और 2019 के बीच एक भी मामले में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया।

● झारखंड में छह वर्षों के दौरान आईपीसी की धारा 124 (ए) के तहत 40 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से 29 मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए और 16 मामलों में सुनवाई पूरी हुई, जिनमें से एक व्यक्ति को ही दोषी ठहराया गया।

● हरियाणा में राजद्रोह कानून के तहत 31 मामले दर्ज किए गए जिनमें से 19 मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए और छह मामलों में सुनवाई पूरी हुई जिनमें महज एक व्यक्ति की दोषसिद्धि हुई।

● बिहार, जम्मू-कश्मीर और केरल में 25-25 मामले दर्ज किए गए। बिहार और केरल में किसी भी मामले में आरोप पत्र दाखिल नहीं किए जा सके जबकि जम्मू-कश्मीर में तीन मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए। हालांकि, तीनों राज्यों में 2014 से 2019 के बीच किसी भी मामले में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया।

● कर्नाटक में राजद्रोह के 22 मामले दर्ज किए गए जिनमें 17 मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए लेकिन सिर्फ एक मामले में सुनवाई पूरी की जा सकी। हालांकि, इस अवधि में किसी भी मामले में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया।

● उत्तर प्रदेश में 2014 और 2019 के बीच राजद्रोह के 17 मामले दर्ज किए गए और 8 मामलो में आरोपपत्र दिया गया। सज़ा किसी को नहीं मिली।

● पश्चिम बंगाल में आठ मामले दर्ज किए गए, पांच मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए लेकिन किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया।

● दिल्ली में 2014 और 2019 के बीच राजद्रोह के चार मामले दर्ज किए गए लेकिन किसी भी मामले में आरोपपत्र दाखिल नहीं किया गया।

● मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, सिक्किम, अंडमान और निकोबार, लक्षद्वीप, पुडुचेरी, चंडीगढ़, दमन और दीव, दादरा और नागर हवेली में छह वर्षों में राजद्रोह का कोई मामला दर्ज नहीं किया गया।

● तीन राज्यों महाराष्ट्र, पंजाब और उत्तराखंड में राजद्रोह का एक-एक मामला दर्ज किया गया।

गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, देश में 2019 में सबसे अधिक राजद्रोह के 93 मामले दर्ज किए गए। इसके बाद 2018 में 70, 2017 में 51, 2014 में 47, 2016 में 35 और 2015 में 30 मामले दर्ज किए गए। देश में 2019 में राजद्रोह कानून के तहत 40 आरोपपत्र दाखिल किए गए जबकि 2018 में 38, 2017 में 27, 2016 में 16, 2014 में 14 और 2015 में छह मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए। जिन छह लोगों को दोषी ठहराया गया, उनमें से दो को 2018 में तथा एक-एक व्यक्ति को 2019, 2017, 2016 और 2014 में सजा सुनाई गई। साल 2015 में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया।

दरअसल, इस प्रावधान का उद्देश्य ही है सत्ता को बरकरार रखने के लिये प्रतिरोध को कुंद करना। इसीलिए आईपीसी, भारतीय दंड संहिता में यह धारा मुख्य और वास्तविक अपराधों के पहले आती है। यह धारा तब बनाई गयी थी, जब देश गुलाम था और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बोलना भी, एक जुर्म था। पर जब देश आजाद हुआ, एक नए लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष संविधान को स्वीकार किया गया तो, संविधान की प्राथमिकता में मौलिक अधिकार सबसे पहले आये। इन्ही मौलिक अधिकारों में अभिव्यक्ति के अधिकार को प्राथमिकता दी गयीं और इसी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के एक महत्वपूर्ण मामले में यह व्यवस्था दी कि केवल बोलने या अपनी अभिव्यक्ति को मुखर करने से ही कोई व्यक्ति, धारा 124A सेडिशन या राजद्रोह का दोषी नहीं हो जाता है, जब तक कि वह ऐसी किसी कार्यवाही में लिप्त न हो जो, देश के खिलाफ युद्ध जैसी हो। सुप्रीम कोर्ट के इसी मूल व्यवस्था पर देशद्रोह यानी सेडिशन की धारा 124A की व्याख्या की जाती है।

इधर, 2014 के बाद, इस धारा का इस्तेमाल सरकार बिना सुप्रीम कोर्ट की उक्त रूलिंग की मंशा को समझे लगी है। भीमा कोरेगांव का मामला हो, या नागरिकता संशोधन के विरोध में हुए आंदोलन या पाकिस्तान की जश्न पर दर्ज यह मुक़दमे, कभी भी अदालतों में टिक नहीं पाएंगे पर, यूएपीए के जटिल और सख्त प्रावधानों के कारण, इनमें जमानत का मिलना कठिन अवश्य हो जाता है। सरकार का इरादा भी यही है कि प्रतिरोध के स्वर को उठने नहीं दिया और उन्हें जितने दिन जेल में बंद रखा जा सकता है, बंद रखा जाय। आपराधिक कानून के प्रावधानों को यदि राजनीतिक दृष्टिकोण से लागू किया जाएगा, तो न केवल वह प्रावधान विवादित हो जाएगा, बल्कि जनता में कानून के प्रति सम्मान भी कम हो जाएगा।

उच्चतम न्यायालय ने इस प्रवृत्ति पर यह टिप्पणी भी की है कि आईपीसी की धारा 124 (ए) (राजद्रोह के अपराध) का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया। उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार से यह भी पूछा है कि, वह अंग्रेजों द्वारा आजादी आंदोलन को दबाने और महात्मा गांधी जैसे लोगों को ‘‘चुप’’ कराने के लिए इस्तेमाल किए गए प्रावधानों को खत्म क्यों नहीं कर रही है।

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