जनता के ‘बजट’ से जनता की ही जासूसी ? प्रजातंत्र अमर रहे!

श्रवण गर्ग : प्रसिद्ध अमेरिकी अख़बार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के इस सनसनीख़ेज़ खुलासे पर प्रधानमंत्री, उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और सत्तारूढ़ दल के राष्ट्रीय प्रवक्ताओं ने चुप्पी साध रखी है कि अपने ही देश के नागरिकों की जासूसी के उद्देश्य से सैंकड़ों करोड़ की लागत  वाले उच्च-तकनीक के पेगासस सोफ्टवेयर सरकार ने इज़राइल की एक कम्पनी से ख़रीदे थे।अख़बार की खबर के मुताबिक़, दो अरब डॉलर मूल्य के आधुनिक हथियारों की ख़रीद के साथ ही नागरिकों के निजी मोबाइल फ़ोन में उच्च तकनीकी के ज़रिए प्रवेश करके उनके क्रिया-कलापों की जासूसी करने  में सक्षम सॉफ़्टवेयर को भी हासिल करने का सौदा प्रधानमंत्री की जुलाई 2017 में हुई इज़राइल यात्रा के दौरान किया गया था। किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री की वह पहली इज़राइल यात्रा थी।

उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में होने जा रहे महत्वपूर्ण चुनावों के ऐन पहले अमेरिकी अख़बार द्वारा किए गए उक्त खुलासे के पहले तक देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था संसद, न्यायपालिका, विपक्षी पार्टियां और नागरिक पूरी तरह से आश्वस्त थे कि न तो सरकार ने पेगासस सॉफ़्टवेयर की ख़रीदी की है और न ही उनके ज़रिए किसी तरह की जासूसी को अंजाम दिया गया। वह यक़ीन अब पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है। ताज़ा खुलासे ने देश में लोकतंत्र को बनाए रखने और नागरिकों की निजी ज़िंदगी में उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान करने को लेकर सरकार की मंशाओं को कठघरे में खड़ा कर दिया है। यह एक अलग मुद्दा है कि प्रधानमंत्री, सरकार और  अंतर्राष्ट्रीय जगत में देश की प्रतिष्ठा को लेकर अब किस तरह के सवाल पूछे जाएँगे और यह भी कि करोड़ों की संख्या में विदेशों में बसने वाले भारतीय मूल के नागरिकों के पास देने के लिए क्या जवाब होंगे!

वर्तमान सूचना-प्रौद्योगिकी (आई टी ) मंत्री अश्विनी वैष्णव ने जब पिछले साल संसद में भारत द्वारा पेगासस के इस्तेमाल किए जाने की खबरों को आधारहीन और सनसनीख़ेज़ बताते हुए ख़ारिज कर दिया था तब उनके कहे पर शक की गुंजाइश के साथ यक़ीन कर लिया गया था।पूछा जा रहा है कि अब सरकार उसी संसद और उन्हीं विपक्षी सवालों का किस तरह से सामना करने वाली है ? क्या उसके इतना भर जवाब दे देने से ही विपक्ष और देश की जनता विश्वास कर लेगी कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरे मामले की जाँच करने के लिए गठित की गई समिति की रिपोर्ट मिलने तक किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले प्रतीक्षा की जानी चाहिए। तो क्या आज़ादी प्राप्ति के बाद के इस सबसे बड़े जासूसी कांड को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच भी टकराव की आशंकाओं के लिए देश को तैयारी रखना चाहिए?

ताज़ा घटनाक्रम के परिप्रेक्ष्य में क्या सरकार से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि विदेशी ताक़तों के लिए जासूसी करने को देशद्रोह का अपराध करार देने वाली व्यवस्था में अपने ही  नागरिकों की जासूसी करने को अपराध की किस श्रेणी में रखा जा सकता है? ऐसे मामलों में नैतिकता का क्या  तकाजा हो सकता है जिनमें विदेशी संसाधनों की मदद लेकर स्थापित लोकतंत्र की बुनियादों को कमजोर करने की नियोजित कोशिशें की जातीं हों?

जनता के ‘बजट’ से जनता की ही जासूसी ? प्रजातंत्र अमर रहे!

पेगासस का मामला जब पहली मर्तबा उठा था रविशंकर प्रसाद केंद्र में सूचना-प्रौद्योगिकी मंत्री थे। उन्होंने जासूसी के आरोपों का खंडन करने के बजाय यह कहते हुए सरकार का बचाव किया था कि जब दुनिया के पैंतालीस देश पेगासस का इस्तेमाल कर रहे हैं तो उसे लेकर हमारे यहाँ इतना बवाल क्यों मचा हुआ है ! उनके इस तरह के जवाब के बाद टिप्पणी की गई थी कि किसी दिन कोई और मंत्री खड़े होकर यह नहीं पूछ ले कि अगर दुनिया के 167 देशों के बीच ‘पूर्ण प्रजातंत्र’ सिर्फ़ तेईस मुल्कों में ही जीवित है और सत्तावन में अधिनायकवादी व्यवस्थाएँ हैं तो भारत को ही लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है ?ब्रिटेन के अग्रणी अख़बार ‘द गार्डीयन’ ने तब लिखा था कि जो दस देश कथित तौर पर पेगासस के ज़रिए जासूसी के कृत्य में शामिल हैं वहाँ अधिनायकवादी हुकूमतें क़ाबिज़ हैं।

‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अपनी साल भर की खोजबीन के बाद मैक्सिको,सऊदी अरब सहित जिन तमाम देशों में हुकूमतों द्वारा पेगासस सॉफ़्टवेयर के ज़रिए सत्ता-विरोधियों की जासूसी करने का खुलासा किया है उसके प्रकाश में कल्पना की जा सकती है कि भारतीय लोकतंत्र को लेकर किस तरह की मान्यताएँ दुनिया में स्थापित हो सकतीं हैं। पेगासस जासूसी सॉफ़्टवेयर के ज़रिए न सिर्फ़ पत्रकारों, विपक्षी नेताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, न्यायपालिका और चुनाव आयोग से सम्बद्ध हस्तियों को ही निशाने पर लिए जाने के आरोप हैं, सरकार के ही कुछ मंत्री, उनके परिवारजन ,घरेलू कर्मचारी और अफ़सरों का भी पीड़ितों की सूची में उल्लेख किया गया है।

अत्याधुनिक सॉफ़्टवेयर की मदद से उस सरकार द्वारा अपने ही उन नागरिकों की जासूसी करना जिसे कि उन्होंने पूरे विश्वास के साथ अपनी रक्षा की ज़िम्मेदारी सौंप रखी है एक ख़तरनाक क़िस्म का ख़ौफ़ उत्पन्न करता है। ख़ौफ़ यह कि जो नागरिक अभी सत्ता के शिखरों पर बैठे अपने नायकों की क्षण-क्षण बदलती मुद्राओं से सिर्फ़ सार्वजनिक क्षेत्र में ही भयभीत होते रहते हैं उन्हें अब सरकारों द्वारा गुप्त तकनीकी सॉफ़्टवेयर की मदद से अपने निजी जीवन की जासूसी का शिकार बनने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। सवाल यह उठता है कि क्या जनता के दिए जाने धन से किसी भी सरकार द्वारा उसके ही ख़िलाफ़ जासूसी करने के हथियार ख़रीदे जा सकते  हैं? ऐसी स्थितियाँ तभी बनती है जब या तो जनता अपने शासकों का विश्वास खो देती है या फिर शासकों का शक इस बात को लेकर बढ़ने लगता है कि एक बड़ी संख्या में लोग व्यवस्था के ख़िलाफ़ ‘षड्यंत्र’ कर रहे हैं और उसमें पार्टी-संगठन के असंतुष्ट भी चोरी-छुपे साथ दे रहे हैं।’न्यूयॉर्क टाइम्स’ इस रहस्य का कभी खुलासा नहीं कर पाएगा कि संसद में पेश किए जाकर मंज़ूर होने वाले जनता के बजटों में जनता की ही जासूसी के लिए सॉफ़्टवेयर की ख़रीद के प्रावधान किन मदों से किए जाते होंगे !

नमस्कार, लेखक वरिष्ठ पत्रकार है, दैनिक भास्कर के पूर्व समूह संपादक हैं। पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें।

Log In

Forgot password?

Don't have an account? Register

Forgot password?

Enter your account data and we will send you a link to reset your password.

Your password reset link appears to be invalid or expired.

Log in

Privacy Policy

Add to Collection

No Collections

Here you'll find all collections you've created before.

Exit mobile version