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समान नागरिक संहिता भेद करके नहीं लागू हो सकती

समान नागरिक संहिता भेद करके नहीं लागू हो सकती

समान नागरिक संहिता का मुद्दा एक बार फिर उछल कर सामने आया है और इस बार लग रहा है कि इसे लागू करने की भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में से एक की प्रत्याशा शायद पूरी हो जाय। प्रधानमंत्री ने जिस प्रकार इसका समर्थन किया है उससे यह और भी स्पष्ट हो गया है कि मौजूदा केंद्र सरकार समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए तत्पर है और उस तरफ आगे बढ़ रही है। भारत के विधि आयोग द्वारा इस विषय पर सार्वजनिक नोटिस जारी कर सभी से राय और टिप्पणियां मांगने को नया कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू करना ही माना जा सकता है। बहुत से राजनीतिक प्रेक्षक यह भी मानते हैं कि समान नागरिक संहिता पर बहस की शुरुआत करके सत्तारूढ़ दल एक तरह से अगले चुनावों के लिए एजेंडा तय कर रहा है। विधि आयोग ने पांच साल के अंतराल के बाद अपनी फ़ाइलों में दबा यह मुद्दा फिर उठाया है। बहुत से लोग तो यह भूल भी चुके थे कि 21वें विधि आयोग ने अगस्त 2018 में इसी मुद्दे पर एक परामर्श पत्र जारी किया था। विधि आयोग की नई अधिसूचना में कहा गया है कि “विषय की प्रासंगिकता और महत्व के साथ-साथ इससे संबंधित अदालती आदेशों को देखते हुए, भारत के 22वें विधि आयोग ने इस विषय पर फिर से विचार करना आवश्यक समझा है।” आयोग ने अपने नोटिस के जरिए जनता के विचारों को आमंत्रित किया है और इस संबंध में धार्मिक संगठनों से भी पक्ष रखने का कहा है। हमेशा यही कहा जाता रहा है कि इस मुद्दे पर आम सहमति के साथ आगे बढ़ना चाहिए तथा इसे सभी दलों, सभी पक्षों, राजनीतिज्ञों, ग़ैर राजनीतिज्ञों और जनता के साथ इस पर व्यापक स्तर पर चर्चा के बाद ही कोई कदम उठाया जाना चाहिये। इसके लिए सरकार ने चर्चा छेड़ दी है। उधर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि विशेषज्ञों की एक समिति ने राज्य में इसे लागू करने के वास्ते मसौदा तैयार कर लिया है।

भले ही भारत में सभी नागरिकों के लिए एक आपराधिक संहिता लागू है, मगर समान नागरिक संहिता हमेशा ही भारतीय राजनीति में एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। संविधान सभा में भी इस पर गंभीर चर्चा हुई थी जब इसे भारतीय संविधान में निदेशक सिद्धांत के रूप में शामिल किया गया था। भारतीय संविधान के अध्याय चार के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि, “राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।” समान नागरिक संहिता का मतलब है प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिए एक समान कानून, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो। अगर ये लागू होता है तो शादी, तलाक़, बच्चा गोद लेना और उत्तराधिकार से जुड़े मामलों में सभी भारतीयों के लिए एक जैसे नियम होंगे। समान नागरिक संहिता को लागू करना 1998 और 2019 के चुनावों के लिए भाजपा के चुनाव घोषणापत्र का हिस्सा रहा है। नवंबर 2019 में, संसद नारायण लाल पंचारिया ने गैर सरकारी बिल के रूप में इसे संसद में पेश किया था, लेकिन विपक्ष के विरोध के कारण इसे वापस ले लिया। मार्च 2020 में सांसद किरोड़ीलाल मीणा फिर से ऐसा निजी बिल लेकर आए, लेकिन इसे संसद में पेश नहीं किया गया। विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार से संबंधित कानूनों में समानता की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भी अनेक याचिकाएं दायर हो चुकी हैं। विधि आयोग के 2018 के परामर्श पत्र में भी कहा गया था कि भारत में विभिन्न पारिवारिक कानून व्यवस्थाओं के भीतर कुछ प्रथाएं महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करती हैं और इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। तलाक के बाद गुजारे भत्ते को लेकर 1985 में शाह बानो मामले में एक मुस्लिम महिला के अधिकारों के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “संसद को एक सामान्य नागरिक संहिता की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा साधन है जो राष्ट्रीय सद्भाव और कानून के समक्ष नागरिकों को समानता सुनिश्चित करता है।” एक अन्य मामले में 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ईसाई कानून के तहत ईसाई महिलाओं को अपने बच्चों के “प्राकृतिक अभिभावक के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है”,  भले ही हिंदू अविवाहित महिलाएं अपने बच्चे की “प्राकृतिक अभिभावक” हैं। सुप्रीम कोर्ट ने तब भी कहा था कि समान नागरिक संहिता “एक संवैधानिक अपेक्षा” बनी हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की व्याख्या भी की, और उन महिलाओं को संपत्ति में विरासत का अधिकार और पैतृक संपत्ति में समान सहदायिक अधिकार को मान्यता दी थी जो 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन के समय और उसके बाद जीवित थी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2021 में संसद से समान पारिवारिक कानून बनाने पर विचार करने के लिए कहा, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि देश के नागरिक विभिन्न विवाह कानूनों के कारण आ रही बाधाओं के बिना “स्वतंत्र रूप से मिल-जुल सकें”। उच्च न्यायालय ने धर्मांतरण और अंतरधार्मिक विवाह से संबंधित एक मामले में कहा था कि “समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता को मजबूत करेगी।” उत्तराधिकार के मुद्दे को 1985 में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम पर 110वीं रिपोर्ट में भी विधि आयोग ने पारसी सहित विभिन्न धर्मों के बीच उत्तराधिकारियों की परिभाषा में बदलाव और विरासत कानूनों को सुव्यवस्थित करने की सिफारिश की थी। लेकिन कई प्रस्तावित परिवर्तनों को धार्मिक समुदायों के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा, और अधिनियम में संशोधन पारित नहीं हो सका। इन कठिनाइयों को समझते हुए 2018 में विधि आयोग ने बीच का रास्ता सुझाया कि समान नागरिक संहिता को देखने के बजाय विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों में “जहां भी आवश्यक हो, टुकड़ों टुकड़ों में बदलाव करके अधिकारों को समेटा जा सकता है”। परंतु वह भी संभव नहीं हुआ। अब, न्यायमूर्ति ऋतुराज अवस्थी की अध्यक्षता वाले 22वें विधि आयोग ने परामर्श के लिए जारी नए सिरे से नोटिस के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि इस मुद्दे पर बहस और चर्चा कैसे आगे बढ़ती है?

ब्रिटेन और अधिकांश यूरोप में, जो अब बहु-धार्मिक समाज हैं, ईसाई, मुस्लिम, यहूदी, हिंदू आदि सभी को समान आपराधिक, नागरिक और व्यक्तिगत कानूनों का पालन करना पड़ता है। ऐसे में स्वाभाविक ही यह सवाल पूछा जा सकता है कि भारतीय संविधान के बनने के इतने लंबे समय बाद भी यहां के नागरिक समान नागरिक संहिता अपनाने के प्रति इतने अनिच्छुक क्यों हैं और क्यों नहीं एक धर्मनिरपेक्ष संविधान के साथ एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा साकार हो पा रही है? सबसे प्रबल विरोध इस तर्क के साथ होता है कि समान नागरिक संहिता लोगों के धर्म में हस्तक्षेप करेगी। यह धार्मिक स्वतंत्रता तथा रस्म-रिवाज़ में दखलअंदाज़ी होगी। मगर दूसरी तरफ यह सवाल भी उठाया जाता है कि क्या रस्म-रिवाज़ नागरिकों को वे अधिकार पाने से महरूम रख सकते हैं जिन्हें संविधान सभी नागरिकों के लिए सुरक्षित करता है? राज्य तथा सभी नागरिकों का रिश्ता एक ही स्तर पर क्यों नहीं होना चाहिये। जब संविधान सबकी समानता की बात करता है तब स्त्री और पुरुष के बीच रस्म रिवाजों जनित असमानता क्योंकर स्वीकार की जानी चाहिये और सबको एक जैसे अधिकार क्यों न मिलने चाहिये, तथा सबके लिए एक जैसे दायित्व क्यों न हों। सभी मानते हैं कि समान नागरिक संहिता आगे बढ़ने वाला प्रगतिशील कदम होगा। व्यक्तिगत कानून काफी हद तक पितृसत्तात्मक और महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण होते हैं। समान नागरिक संहिता से महिलाओं को स्वतंत्रता और समानता सुनिश्चित होगी। पढे लिखे और समझदार मुसलमानों का भी कहना है कि इससे उनके ईमान पर कोई खतरा नहीं है। हिंदुस्तान के मुसलमानों को आगे बढ़ कर यह अधिकार लेना चाहिए और पुरानी मनोदशा से बाहर निकल कर पढ़-लिख कर देश की आर्थिक मुख्य धारा में आना चाहिये।

सभी नागरिकों के बीच एक समान कानून लागू होने से राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा मिलेगा और उससे एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना सुनिश्चित होगी जिसमें प्रत्येक नागरिक को अपनी निजी आस्था के साथ अन्यों के साथ बराबरी का हक मिलेगा। इसी बीच एक संसदीय स्थायी समिति ने भी समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर सोमवार को विधि आयोग और विधि मंत्रालय के प्रतिनिधियों के साथ विमर्श किया है। मगर उसमें दिया गया संसदीय समिति के अध्यक्ष का बयान इस मुद्दे पर नया विवाद खड़ा कर सकता है। संसदीय समिति के अध्यक्ष का पूर्वोत्तर सहित आदिवासियों को किसी भी संभावित समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के दायरे से बाहर रखने की वकालत करना सरकार के कदम को धक्का पहुंचाने वाला ही माना जाएगा। उनकी यह टिप्पणी कि आदिवासियों को किसी भी प्रस्तावित समान नागरिक संहिता के दायरे से बाहर रखा जा सकता है क्योंकि सभी कानूनों में अपवाद होते हैं। यह कहना कि केंद्रीय कानून कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में उनकी सहमति के बिना लागू नहीं होते हैं केंद्र की बीजेपी सरकार पर लगने वाले इस आरोप को आधार देता है कि समान नागरिक संहिता सिर्फ मुस्लिम समुदाय पर केंद्रित कर रही है। इसलिए यह पूछा जाना समीचीन है कि क्या यही स्टैन्ड केंद्र सरकार लेने वाली है? यदि ऐसा होता है तो समान नागरिक संहिता की अवधारणा ही समाप्त हो जाती है। संहिता यदि सब पर एक समान लागू नहीं की जाती है तो वह सत्तारूढ़ दल की नीयत में खोट का ही प्रदर्शन होगा और सभी विवेकशील लोगों को आशा है कि ऐसा नहीं होगा।                                               

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