निराश छात्र आज ज़िन्दगी के बजाय मौत को चुनने के लिये मजबूर क्यों ?

डॉ बी एन सिंह : पूरे देश में छात्रों-युवाओं में बढ़ती आत्महत्याएँ विकराल रूप लेती जा रही है। छात्रों का हब कहे जाने वाले शहर अब आत्महत्याओं के हब बन गये है। भविष्य की अनिश्चितता से हताश, निराश छात्र आज ज़िन्दगी के बजाय मौत को चुनने के लिये मजबूर हैं। ये वे हत्याएँ हैं जिनका न कोई सुराग़ है, न ही सुनवाई। बीते जुलाई के महीने में केवल 28 दिनों में अकेले इलाहाबाद में 25 से ज़्यादा छात्रों-युवाओं की आत्महत्या की ख़बर सामने आयी। ये वे घटनाएँ है जो मीडिया के लिए ख़बर बनी और पुलिस स्टेशन तक पँहुची। इससे कई गुना ज़्यादा घटनाएँ ऐसी हैं जो मीडिया तक पहुँच ही नहीं पाती हैं। 

वर्ष 2018 में औसतन 35 बेरोज़गारों और 36 स्वरोज़गार करने वाले लोगों ने हर रोज़ आत्महत्या की है। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक़ साल 2017 में 1,29,887 लोगों ने, वर्ष 2018 में कुल 1,34,516 लोंगो ने और साल 2019 में 1,39,123 लोगों ने ख़ुदकुशी की। सरकारी आँकड़ों से स्पष्ट है कि देश में आत्महत्या की दर लगातार बढ़ती जा रही है।

सबसे परेशान करने वाली बात यह है कि छात्रों-युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। 2018 (जिसमें 89,407 युवाओं ने आत्महत्या की) की तुलना में 2019 (जिसमें 93,061 ने आत्महत्या की) में जहाँ कुल आत्महत्या की दर में बढ़ोत्तरी 3.4 प्रतिशत है, वहीं नौजवानों में यह दर 4 प्रतिशत से ज़्यादा है। पूरी दुनिया की लगभग 18 प्रतिशत आबादी भारत में रहती है लेकिन विश्व में होने वाली कुल आत्महत्याओं में से एक तिहाई से ज़्यादा केवल भारत में ही होती है। इतने बड़े पैमाने पर आत्महत्याएँ! ये महज़ संख्याएँ नहीं हैं बल्कि उस देश की एक जीती-जागती तस्वीर है जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र होने का तमगा मिला है। जहाँ की 65 प्रतिशत आबादी युवा है। वहाँ पर इतने बड़े पैमाने पर सम्भावनाओं का विनाश हो रहा है, और जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं! क्यों? क्योंकि इस लुटेरी मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था को मुनाफ़े से सरोकार है सम्भावनाओं से नहीं!

भारत में निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद एक नवधनाढ्य वर्ग पैदा हुआ है। जिसे लगता है कि वह हर सुविधा को पैसे के दम पर ख़रीद सकता हैं और इसलिए यह वर्ग बाज़ार व्यवस्था का खुले रूप में पैरोकारी करता है। यह वर्ग अपने वर्गीय स्थिति की वजह से ही घोर मानवद्रोही, जनविरोधी बन चुका है। जिसमें जनवादी चेतना और तर्कणा का नितान्त अभाव है। इस वर्ग के लिए इस व्यवस्था में ख़रीदने की क्षमता से रिक्त जो बड़ी आबादी है, वह नालायक और कामचोर है। इन नवधनाढ्यों के लिए मेहनतकश वर्ग केवल उत्पादन के अंग-उपांग हैं। आम आबादी से ऐतिहासिक विश्वासघात कर चुकी भारतीय मध्यवर्ग की तर्क पद्धति इतनी जन विरोधी और व्यवस्था पूजक बन चुकी है कि वो हर घटना पर व्यवस्था और सत्ता के बचाव में नयी-नयी दलीलें पेश करते हुए जनता को ही दोषी ठहरा देता है। खाये-पिये मध्यवर्ग के इस हिस्से को लगता है कि छात्र-नौजवान ही कायर हैं, इसलिए आत्महत्या कर लेते हैं।

क्या वाकई ऐसा है? नहीं! इतने बड़े पैमाने पर आत्महत्याएँ महज़ कायर होने की वजह से नहीं हो सकतीं। ऐसा सोचने वाले लोगों के समक्ष सच्चाई पर वर्गीय स्थिति का पर्दा होता है इसलिए वो उस पूरी प्रकिया से आँख मूँद लेते है जिससे गुजर कर एक नौजवान ऐसा क़दम उठाने को मज़बूर होता है। आमतौर पर 12वीं पास करते ही एक छात्र पर घर-परिवार और समाज का दबाव काम करने लगता है कि उसे एक नौकरी पा ही जाना है वह कोशिश करता है, जी-तोड़ मेहनत करता है। लेकिन सालों साल लगा देने के बाद भी उसके हिस्से में केवल हताशा और निराशा आती है। सरकारी विभागों में नौकरियाँ ऊँट के मुँह में जीरे के बराबर हैं, स्थिति इतनी विकट है कि 1 सीट के लिए औसतन 5000 फार्म पड़ते हैं। आप कितनी भी मेहनत कर लें एक सीट पर तो केवल एक व्यक्ति को ही नौकरी मिलेगी। अभी कुछ दिन पहले उत्तर-प्रदेश के मुख्यमन्त्री का हास्यास्पद बयान आया था कि उत्तर प्रदेश में नौकरी की कोई कमी नहीं है बल्कि योग्य लोग ही नहीं है। जबकि यहीं उत्तर-प्रदेश में वर्ष 2018 में पुलिस विभाग के चपरासियों व सन्देशवाहकों के 62 पदों के लिए 93000 अभ्यर्थियों ने आवेदन किया जिनमें से 3700 पीएचडी थे 28000 स्नातकोत्तर और 50,000 स्नातक थे जबकि योग्यता पाँचवीं कक्षा पास होना रखी गयी थी। 

शिक्षण संस्थानों द्वारा एक तरफ़़ तो छात्रों को बीए, एमए, बीटेक, एमटेक आदि की डिग्री मिलती है वहीं दूसरी तरफ़ अगर आप किसी तरह एक नौकरी नहीं हासिल कर पाये तो आपको अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। इस पूरी स्थिति से परेशान देश की एक बड़ी युवा आबादी अवसाद में जीने को मजबूर है। परिवार का भी माहौल हमारे समाज में इतना जनवादी नहीं होता एक छात्र अपनी मन:स्थिति डिस्कस कर सके और यहाँ से लेकर शिक्षण सस्थानों तक ऐसा कोई मंच नहीं होता जहाँ वह अपना दिल खोलकर रख सके। नतीजतन इस पूरे मकड़जाल से निकलने का कोई और रास्ता न पाकर बहुत से छात्र ख़ुद को ख़त्म कर लेते है। क्या इसे आप कायर होने की वजह से आत्महत्या करना कह सकते है? इस तरह के तर्क समाज में जानबूझकर इस लुटेरी मानवद्रोही व्यवस्था के ख़ूनी चेहरे को छिपाने के लिए गढ़े जाते हैं। लोग समस्याओं का कारण व्यक्तियों में खोजें इस पूँजीवादी व्यवस्था में नहीं। यह कोई एक या दो जगह की बात नहीं है आज शिक्षण संस्थानों में यह बीमारी दीमक की तरह फ़ैल रही है।

छात्रों की कब़्रगाह बनते शिक्षण संस्थान

राजस्थान का कोटा शहर कोचिंग का सुपर मार्केट कहा जाने लगा है। यहाँ तैयारी करने के नाम पर छात्रों से ज़बरदस्त लूट जारी है। एक अध्ययन के अनुसार कोटा में कोचिंग का सालाना टर्न ओवर 4000 करोड़ से ज़्यादा का है। कोचिंग सेण्टरों से सरकार अनुमानत: सालाना 100 करोड़ रुपये से अधिक टैक्स वसूलती है। विज्ञापनों, मीडिया और सामाजिक स्टेटस के दबाव के ज़रिये जो सपने छात्रों-नौजवानों के ऊपर ज़बरदस्ती थोप दिये जाते हैं उसे पूरा करने का खयाल पाले छात्र इस शहर की तरफ़़ कूच करते हैं। सपने बेचे जातें है करोड़ों छात्रों को लेकिन सपने पूरे होते है कुछ चन्द हज़ार छात्रों के। इसलिए यह शहर आत्महत्याओं का गढ़ बनता जा रहा है। यहाँ 2019 के दिसम्बर महीने में चार छात्रों ने आत्महत्या की। कोटा पुलिस के अनुसार साल 2018 में 19, 2017 में 7, 2016 में 18, 2015 में 31, 2014 में 45, छात्रों ने आत्महत्या की। इसी तरह इलाहाबाद, पटना, जयपुर, मुम्बई, मद्रास आदि शहरों की भी स्थिति बेहद गम्भीर है, इन सभी छात्र बहुल शहरों में हर साल हजारों छात्र आत्महत्या कर लेते है। चार साल पहले आत्महत्या करने वाली छात्रा कीर्ति ने अपने सुसाइड नोट में मानव संसाधन विकास मन्त्रालय से इन संस्थानों को जल्द से जल्द बन्द करने की गुहार लगायी थी। उसने लिखा कि ये कोचिंग संस्थान छात्रों को तनाव दे रहे है। यही नहीं अब अवसाद से वो छात्र भी पीछा नहीं छुड़ा पा रहे है जो इस व्यवस्था के मान्य धारणाओं के हिसाब से सफल हो गये हैं। आईआईटी मुम्बई की छात्रा पायल से लेकर पांच सालों में देश के 23 आईआईटी में 50 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की।

देश का भविष्य कहे जाने वाले युवा आज इतने बड़े पैमाने पर आत्महत्या कर रहे हैं और भाड़े का मीडिया पाकिस्तान को ख़त्म करने और चीन को सबक सिखाने, ‘लव जिहाद’ ‘चूड़ी ज़िहाद’ ‘धर्मान्तरण’ आदि फ़ासीवादी मुद्दे को उठाकर इतना शोर मचा रहा है कि इस शोर में आम जनता के बेटे-बेटियों की मौत की खबर भी आम लोगों के पास नहीं पहुँच रही है। मीडिया आज छात्रों-युवाओं के मुद्दे पर ऐसे ख़ामोश है जैसे देश में सबकुछ अच्छा चल रहा हो। हकीक़त यह है कि यह मीडिया धनपशुओं का है इसलिए यह हमारा आपका साथ नहीं देगा इसका चरित्र भी हमें आम जनता के सामने बेनक़ाब करना होगा और साथ ही हमें वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करने के बारे भी सोचना होगा।

गहरा होता भविष्य का अँधेरा

इन आत्महत्याओं की पड़ताल की जाये तो एक बुनियादी कारण भविष्य की अनिश्चितता है। जब से उदारीकरण निजीकरण की नीतियाँ देश में लागू की गयी है तब से रोज़गार में कटौती जारी है। पिछले कुछ सालों से स्किल इण्डिया, मेक इन इण्डिया, प्रधानमन्त्री रोज़गार सृजन कार्यक्रम, रोज़गार प्रोत्साहन योजना, प्रधानमन्त्री कौशल विकास योजना जैसी तरह-तरह की योजनायें बनायी गयी है और इन योजनाओं के प्रचार में अरबों रूपये खर्च किये गये है लेकिन इन योजनाओं के दफ्तर और प्रचार सम्भालने वाले लोगों को रोज़गार देने के अलावा देश में बेरोज़गारी कम करने की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है। सीएमआईई की रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले साल मार्च से जुलाई के बीच 1.9 करोड़ वेतनभोगियों की नौकरी चली गयी रेलवे जो देश का सबसे ज़्यादा रोज़गार देने वाला क्षेत्र है उसकी हालत भी बद से बदतर होती जा रही है। भारतीय रेल के कर्मचारियों की संख्या 20 सालों में 18 लाख से घटकर क़रीब 9 लाख रह गयी है। रेलवे में क़रीब सवा 2 लाख पद खाली होने के बाद भी भरे नहीं जा रहें। इतना ही नहीं अभी अप्रैल 2019 में ही 10, 840 पद ख़त्म करने का नोटिफिकेशन जारी किया गया था। इसी तरह से SSC CGL की पिछली 9 भर्तियों में पदों की संख्या घटकर आधे से भी कम रह गयी है। जबकि इस दौरान आवेदकों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई है।

ऐसा नहीं है कि रोज़गार नहीं है या दिया नहीं जा सकता। सवाल सरकारों की मंशा का है, जो कि साफ़ है। लगातार सरकारी विभागों के पदों की संख्या घटायी जा रही है। ज़्यादा से ज़्यादा काम संविदा और ठेके पर कराया जा रहा है और हर विभाग को बेचने की तैयारी हो रही है। प्राइवेट सेक्टर का कोई भरोसा नहीं कब रखा और कब लात मारकर बाहर कर दिया। यह पूरी स्थिति आने वाले समय में इस संकट को और भी गहरा करने वाली है। ऐसे में हम छात्रों-युवाओं का आह्वान करते है कि ख़ुद को ख़त्म करना हल नहीं है आज ज़रूरत है कि इस पूरी लूट और अन्याय पर टिकी इस व्यवस्था के खात्मे के बारे में सोचा जाये।

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