अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह सिनेमा देखने की नई दृष्टि देते हैं

अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह सिनेमा देखने की नई दृष्टि देते हैं

हम एक बहुआयामी दुनिया में रह रहे हैं। एक ऐसी दुनिया जिसके अलग-अलग भूभागों में भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमि, इतिहास, रीति-रिवाज और संस्कृति वाले लोग रहते हैं। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में आज की दुनिया में लोगों का कारोबार आपस में ऐसा जुड़ गया है जिसकी कल्पना पिछली सदी में किसी ने नहीं की थी। जब भिन्नताएं नज़दीक आती हैं तब एक दूसरे जो जानना बहुत जरूरी हो जाता है। एक दूसरे को जानना और समझना मानवीय भाईचारे को बढ़ाता है। कोई संस्कृति एकाकी टापू नहीं हो सकती।

हमारी सनातन संस्कृति अन्यों से इसी आपसी जान पहचान और लेन-देन से उन्नति के नये-नये शिखर पाती रही है। संस्कृतियों को जानने के अनेक तरीके हो सकते हैं। उन्हें पढ़ कर और सुन कर भी जाना जा सकता है। सिनेमा भी एक ऐसा माध्यम है जो हमें अलग-अलग देशों की संस्कृतियों से परिचय कराता है। सिनेमा इसके साथ अपने आप को प्रतिबिंबित करने और गंभीरता से सोचने और विचारने की वजह भी देता है। इससे जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों से हमारा सामना भी होता है। कैमरे के लेंस के माध्यम से सिनेकार कहानी कहता है।

वहां केवल संवाद नहीं होते बल्कि सत्य और उनके अर्थ की खोज भी होती है। इसलिए सिनेमा को सिर्फ गीत-संगीत, एक्शन से सरोबार मनोरंजन मान लिये जाने की भूल हम कर बैठते हैं। फ़िल्मों और सिनेमा में फ़र्क होता है। फिल्में जब कलात्मक ऊंचाइयां छूती है तब सिनेमा बनता है। वह आत्मा को झकझोर देने वाला जरिया भी होता है। सिनेमा केवल धूमिल हुई आशाओं और क्रूर अन्याय के बारे में ही नहीं होता है बल्कि आशा की नई उत्तेजना और निराशा के अवसाद के बीच संघर्ष और उसके बाद के जीवन के बारे में भी होता है। सिनेमा के ये सारे रंग दुनिया के कोने-कोने में होने वाले फ़िल्म समारोहों में मिलते हैं। अपनी और अपनी कला की अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनाने वाले भारतीय सिनेकार सत्यजित रे जैसों ने अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में प्रदर्शित फ़िल्मों को देख कर, समझ कर और उनसे से प्रेरणा पाकर ही कर फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में कूदे थे।

सिनेमा बहुत बड़ा और व्यापक माध्यम है जो भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक माहौल में अपनी पहचान बनाता है। जिस संस्कृति में वह बनता है उसे देख पाने का दूसरों को अवसर देने के लिये वह एक खिड़की भी खोलता है। अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह ऐसा अवसर देते हैं कि हम ऐसी दर्जनों खिड़कियों में झांक सकें। यह गर्व की बात है कि राजस्थान की राजधानी जो अपने गुलाबी रंग, हवामहल, ज्योतिष गणना के लिये पत्थरों से बने जंतर-मंतर और आराध्य गोविंद देव के लिये प्रसिद्ध रही है वह अब जयपुर इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल से भी दुनिया में अपनी नई पहचान बना रही है। इस समारोह ने हफ्ते जयपुर में लगातार चार दिन तक आठ सिने स्क्रीन पर 282 फिल्में प्रदर्शित करते हुए 63 देशों की खिड़कियां खोली। दर्शकों को वे फिल्में भी देखने को मिली जिन्हें वे सिनेमाघरों या डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर नहीं देख पाते।

फिल्म समारोह केवल फ़िल्मों की स्क्रीनिंग भर के माध्यम नहीं होते हैं। वे एक जीवंत वातावरण बनाते हैं जहां फिल्म देखने का अनुभव मायने रखता है। जहां सिनेकारों से दर्शकों का मिलना संभव होता है। वहां फ़िल्म विधा के रचनाकारों और विषय विशेषज्ञों के बीच गंभीर चर्चाएं होती हैं जिसमें आम दर्शक भी भागीदार बनता है। इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह फिल्म निर्माताओं, फिल्म विधा के छात्रों, और फिल्म के रसिकों और उनके साथ कभी-कभार फिल्म देखने वालों की बुनियादी समझ को भी बढ़ाने में योगदान करते हैं। अब तो सिनेमाघरों में जाकर फ़िल्म देखने का अनुभव कम होता जा रहा है क्योंकि ज्यादातर लोग सिनेमाघरों में जाने की बजाय अपने घरों पर फ्लैट-स्क्रीन टीवी पर या कंप्यूटर, टैबलेट अथवा स्मार्टफोन पर फिल्में देखना पसंद करने लगे हैं।

सिने व्यवसाय के नये आंकड़े बताते हैं कि कोविड महामारी के पहले 2018 में हमारे देश में 30 करोड़ दर्शक सिनेमाघरों में फिल्में देखने के लिये आये थे। महामारी के दो वर्षों में यह गणना नहीं की गई क्योंकि अधिकतर समय लॉकडाउन के प्रतिबंधों के चलते सिनेमाघर बंद रहे। हाल ही में खत्म हुए साल 2022 के सिनेमाघरों में आने वाले दर्शकों के आंकड़े सामने आये हैं। वे विषादकारक हैं। यह जान कर आश्चर्य होगा कि इस साल केवल 60 लाख दर्शक फिल्में देखने के लिये सिनेमाघरों में पहुंचे। दूसरे देशों की संस्कृतियों को देखने समझने की खिड़की खोलने के अलावा फ़िल्म फेस्टिवल दर्शकों को सिनेमाघरों तक वापस लाने के भी उपक्रम बनते हैं।

सिनेमाई कला के प्रदर्शन के लिए फिल्म समारोह आयोजित करने की परंपरा 1930 के दशक में शुरू हुई थी। इटली के फासीवादी तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी ने 1932 में वेनिस में पहली बार फिल्म समारोह का आयोजन करवाया था। मुसोलिनी हॉलीवुड की सांस्कृतिक ताकत के साथ प्रतिस्पर्धा करना चाहता था और एक फिल्म पावरहाउस के रूप में इटली की प्रोफाइल को ऊपर उठाना चाहता था। फ्रेंच रिवेरा शहर कान में फिल्म समारोह, जो मूल रूप से 1939 में होने वाला था, वेनिस समारोह के मुकाबले में था। कान फिल्म समारोह को स्वतंत्र अभिव्यक्ति और गैर-फासीवादी देशों की फिल्मों का जश्न मनाने के लिए डिज़ाइन किया गया था।

हालांकि, इसे द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक इंतजार करना पड़ा। दुनिया में फिल्म समारोह वास्तव में युद्ध के बाद की अवधि में तब स्थापित हुए जब वेनिस समारोह फिर से शुरू हुआ और उसके साथ लोकार्नो समारोह की भी शुरुआत हुई और पहला आधिकारिक कान फिल्म समारोह हुआ। कान फिल्म समारोह में भाग लेने वाले प्रसिद्ध लोगों के मीडिया कवरेज ने इस फिल्म समारोह को 1950 के दशक में एक सांस्कृतिक पहचान दी। भारत में अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह पहली बार 1952 में आयोजित किया गया था। केंद्र सरकार द्वारा प्रति वर्ष प्रायोजित यह समारोह की स्थान बदलने के बाद अब नियमित रूप से गोवा में होता है। उसके साथ देश में अनेक दूसरे फ़िल्म समारोह भी होने लगे हैं जिनमें जयपुर इंटरनेशनल फ़िल्म समारोह ने अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह जगत में अपना विशिष्ठ स्थान बनाया है जो इससे साबित होता है कि इस बार फेस्टिवल के 15वें अंक में 70 से अधिक देशों से ढाई हजार से अधिक फ़िल्मों की प्रविष्टियां आई थीं। इस समारोह के साथ-साथ सिनेकारों से मुलाकातें, सिने विषयों की चर्चाएं और फ़िल्म बाज़ार का आयोजन भी होता है।

फ़िल्म फेस्टिवल में सिने निर्माण की तकनीकों में आ रहे बदलाव को भी जानने-समझने का मौका मिलता है। इन दिनों व्यावसायिक सिनेमा में भव्यता का भयंकर इस्तेमाल होता हुआ हम पाते हैं। कुछ गंभीर समीक्षक मानते हैं कि सिनेमा के भव्य रूप पर इतना आश्रित होने का मतलब सिनेमा को एक ऐसा तमाशा बना देना है जिसका दर्शक सांस रोक कर मजा ले सके। वे मानते हैं कि भव्यता और तमाशे की शैली दर्शक को सिर्फ लूट सकती है, उसे सचमुच कुछ दे नहीं सकती। दर्शक सिनेमा के परदे के सामने छोटा हो जाता है। एक कटु टिप्पणी यह भी आई है कि – स्टीरियोफोनिक साउंड के रहते दर्शक चीख भी नहीं सकता। फ़िल्म समारोहों में घोर व्यावसायिक सिनेमा से इतर भी दर्शकों को देखने बहुत कुछ आनंददायी देखने को मिलता है। फेस्टिवल में भीड़ के बीच बैठ कर फ़िल्म देखने का अलग ही अनुभव होता है। लोग साथ हों तभी लगता है कि हम सिनेमा देख रहे हैं। टीवी स्क्रीन पर फिल्म देखना सिनेमा की अवधारणा के ही खिलाफ है। हालांकि फिल्म और टेलीविज़न मिलता जुलता माध्यम है। मगर सिनेमाघर में मजे में टांगें फैलाये अकेले में फिल्म नहीं देखी जा सकती। दर्शक अपनी मर्जी से बीच में फिल्म बंद नहीं कर सकता और न ही फास्ट-फॉरवर्ड कर सकता है। सिनेमा के पर्दे से उसका एक खास संबंध बन जाता है।

सिनेमा मनोरंजन को हमारे देश में हमेशा से ही खराब माना जाता रहा है। उसकी निंदा की जाती रही है उसे गैर-जिम्मेदार और सामाजिक गिरावट का कारण माना जाता रहा है। असंस्कारित या कुसंस्कारित लोगों का शगल बताया जाता रहा। हिन्दी का बुद्धिजीवी या साहित्यिक वर्ग सिने कला में दिलचस्पी लेता है तो वह कहानी तथा संवाद लिखने तक ही सीमित रहता है। समय-समय पर अनेक लेखक बंबई गये और लौट गये। वे फिल्म माध्यम से कभी ठीक से तारतम्य नहीं बना पाये। भारत के लोग जो सामाजिक मनोरंजन के बहुत अधिक शौकीन नहीं रहे हैं। वे पारिवारिक समारोहों को तरजीह देते रहे हैं। ऐसी परंपरा में उन्होंने सिनेमा को एकमात्र आसानी से उपलब्ध और तुलनात्मक रूप से सस्ते मनोरंजन के रूप के रूप में लिया।

परंतु उच्च कुल के लोगों ने अपने ऐश्वर्य के लिए उसे छोटा शायद इसलिए माना कि उन्हें या तो छोटे लोगों के साथ बैठना गंवारा नहीं था या छोटे लोगों की पसंद को उन्होंने घटिया मनोरंजन माना। बीसवीं सदी के शुरू – मध्य विक्टोरियन काल – में जो शुद्धतावादी या सुधारवादी आंदोलन चला और जिसका असर ब्रिटेन के उपनिवेश हिंदुस्तान में भी हुआ उससे सभी प्रदर्शन कलाओं का सामाजिक विरोध शुरू हुआ। इसमें हिंदुस्तानी सिनेमा अपने शुरुआती काल से ही पीड़ित रहा। मगर आम जन ने उसको लोकप्रियता दी और संरक्षण दिया जिससे सिनेमा देश के कोने-कोने में फैल गया। मगर मध्यमवर्ग के नये उभार और उसकी संपन्नता में बढ़ोतरी के साथ चलचित्रों के निर्माण और वितरण की नई डिजिटल तकनीकी व्यवस्था ने सब कुछ उलट पुलट कर दिया। ऐसे में फ़िल्म समारोह समाज और सिनेमा के बीच बन रहे नये संबंधों को देखने की भी खिड़की खोलते हैं।

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राजेन्द्र बोड़ा
वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।