कर्नाटक के शिक्षण संस्थानों में हिजाब को प्रतिबंधित किए जाने के बाद दो जजों की पीठ के दो अलग-अलग फैसले आए हैं ठीक वैसे ही जैसे पिछले साल इसी वक्त पूरा देश बहस करते हुए दो धड़ों में बंट गया था ,अपनी राय दे रहा था और तर्क रख रहा था। अभी एक पखवाड़े पहले ही सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने महिला को गर्भपात का अधिकार दिया है। महिला का वैवाहिक स्टेटस जो भी हो वह 24 सप्ताह के गर्भ को समाप्त कर सकती है। यह उसके शरीर पर उसके कानूनी हक के उद्घोष की तरह है। क्या हिजाब के मामले को भी इस नजरिए से देखा जा सकता है कि यह उसकी देह है, वह चाहे तो हिजाब पहने, चाहे तो नहीं। कोई मजहब, कोई कानून उस पर थोपा नहीं जाए कि उसे इसे पहनना ही है। ईरान की स्त्रियां यही तो कह रही हैं। जान कुर्बान कर रही हैं कि आप इसे हम पर थोप नहीं सकते। हमारे देश में जो यह सवाल चला वह एक शैक्षणिक संस्था से चला था। संस्थान में एक ड्रेसकोड है जिसका पालन होना ही चाहिए लेकिन हमने जानते हैं कि भारत विविधता और विविध विचारधाराओं का देश है।
हम जिस स्कूल में पढ़ा करते थे वहां की स्कूल यूनिफॉर्म घुटनों तक की ट्यूनिक थी लेकिन लड़कियां शलवार कुर्ती या चूड़ीदार पायजामा पहनकर भी आती थीं। सिख लड़के-लड़कियां सिर पर जूड़ा या दस्तार बांधकर आते थे। हां लड़कियां भी दस्तार बांधती हैं। इसे सहज ही स्कूल प्रशासन ने स्वीकार किया था। थोड़ा अलग सोचें कि अगर स्कूल को एतराज़ होता तब क्या परिस्थितियां बनती? शायद माता – पिता स्कूल से निवेदन करते या किसी और स्कूल के बारे में सोचते या फिर शायद लड़कियों की पढ़ाई भी बंद करा देते क्योंकि अक्सर लड़किया वहां सातवीं-आठवीं तक पढ़ती और फिर पंजाब लौट जाती। पढ़ाई उनकी छूट ही जाती,वे घर-बार के काम और खेती में लग जातीं । यह भी हो सकता था कि मामला कुछ और बढ़ता तब सरकारें दखल देतीं,कोर्ट कचहरी होती। प्रतिबन्ध लगता, जब तक फैसला नहीं होता लगा रहता। छात्र असमंजस में होते। इन हालात में कैसे कोई संस्थान सामान्य तरीके से अपना शैक्षणिक सत्र पूरा कर सकता है। सियासत पूरी ताकत से कर्नाटक के हिजाब मामले में कूद चुकी थी।कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हिजाब पर बेन लगा रखा है। इस बेन के ख़िलाफ़ याचिकाएं सर्वोच्च न्यायलय में आईं। वहां दो जजों के बीच सहमति नहीं बनी और अब मामला तीन जजों की पीठ को भेजा जाएगा। ठीक है फैसले से पहले और बहस होगी, यही स्वस्थ लोकतंत्र का आधार भी है। इन मामलों में सरकारों का रवैया प्रभावी नहीं रहा है यह हम शाहबानो के मामले में देख चुके हैं। इंदौर की शाहबानो को गुज़ारा भत्ता ना देना पड़े इसके लिए संविधान में ही संशोधन कर दिया गया।इस मामले में भी दुर्भवनापूर्ण इरादों से इंकार नहीं किया जा सकता अन्यथा शिक्षा के मंदिर में ऐसा दृश्य कि एक तरफ कैसरिया पगड़ी और शॉल दी जा रही हो और दूसरी तरफ लड़कियां बुर्का और हिजाब पहने आमने-सामने हो ,शर्मनाक है। क्या सरकारों को मज़ा आता है इन दृश्यों में? उन्हें क्या यहां भी वोटों की लहलहाती हुई फसल दिखती है। अफ़सोस कि जिस देश में लड़कियों के पैदा होने , स्वस्थ रहने और फिर शिक्षित होने की राह में ही इतने संकट हैं वहां किसी भी सरकार के लिए अभी कितना काम बाकी है समझने के लिए क्या किसी रॉकेट विज्ञान की जरूरत है? अभी तो ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का लक्ष्य ही पूरा नहीं हुआ है।
साहित्यकार नासिरा शर्मा एक लेख में लिखती हैं स्वतंत्र भारत में मुस्लिम स्त्री की दशा और दिशा का विश्लेषण इतना आसान नहीं है। भारतीय परिवेश में रहने वाली औरतें अपनी सोच, संवेदना और व्यवहार में लगभग एक जैसी हैं, चाहे परिवेश और भौगोलिक स्थिति में जितना भी अंतर हो। धर्म की विभिन्नता के कारण उनके कर्मकांड और रीति-रिवाज़ भले अलग हों ,मगर जब हम उन सारे रिवाज़ों का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं,तो पता चलता है कि त्योहारों और मनौतियों में गजब की समानता है । उनका सर्वव्यापी वात्सल्य, परिवार से जुड़ाव ,असीम धैर्य ,दुःख को सहना, दूसरों के लिए कुर्बान हो जाना। लगभग सभी में यह गुण कूट-कूटकर भरा होता है इसलिए जब हम मुसलमान औरत की बात करते हैं, तो उसकी आत्मा की नहीं बल्कि उसके ऊपरी आवरण की बात करते हैं जिससे वह ढकी -छुपी रहती है और हम उसी सजावट को उसकी पहचान मान उसे देश की अन्य औरतों से अलग खड़ा कर देते हैं और उसके दुःख -सुख का बयान इस तरह करते हैं जैसे वह कोई अजूबा हो
तब क्या हिजाब ,बुर्का या कोई अन्य आवरण हर औरत को अजूबे की श्रेणी में ले आते हैं ? वह अलग-थलग नज़र आती है। उसे अपने बालों को खोलने की कोई इजाज़त नहीं है। उस पर बंदिश है कि वह अपने बालों को सार्वजनिक जगहों पर यूं लहरा नहीं सकती। क्यों होनी चाहिए यह बंदिश? समाज मज़हब खुद ही उसे इससे मुक्त क्यों नहीं कर देता ? इन सवालों के जवाब में इतना ही कहा जा सकता है कि जिन घरों में इल्म की रौशनी पहुंची है वहां बदलाव हुआ है। बदलाव की आहट वहां बहुत धीमी होती है जहां असुरक्षा हो,कदम कदम पर डर हो । बंटवारे के बाद हुए फ़सादों के लिए बहुसंख्यक समाज इसी समुदाय को ज़िम्मेदार मानता है। आज़ादी के बाद भी फ़साद हमारे देश का सच है। ऐसे माहौल की गाज लड़कियों पर ही गिरती है ,उसी का बाहर निकलना दाव पर लगता है ,उसी की पढ़ाई छूटती है और जो फिर हिजाब जैसा मसला बीच में आ जाए तो दकियानूसी समाज सबसे पहली रोक लड़की पर ही लगाता है। फ़र्ज़ कीजिये कि समाज इन रूढ़ियों को छोड़ आगे बढ़ना भी चाहे तो क्या सरकार के पास कोई ठोस योजनाएं हैं जो इन्हें संभाले और सम्बल दें। लड़कियां तो सड़क पर ही सुरक्षित नहीं। ऐसे में ये उसी घेरे में रहने के लिए मजबूर हैं जो उन्हें मिला हुआ है। आखिर किस उम्मीद में वे अपने दायरे तोड़ आगे आएं। संविधान में वर्णित अधिकार अभी सबको नसीब नहीं हुए हैं। आज की परिस्थितियों में तो यह और भी मुश्किल है जब उन पर नागरिकता साबित करने की तलवार लटकी हो , शक हो कि ये आतंकी और जेहादी होते हैं ,ये अवैध गतिविधियों में लिप्त होते हैं। ऐसे में एक लड़की के लिए अपने घर के भीतर और बाहर खुद की राह बनाने का संघर्ष कहीं ज़्यादा बढ़ जाता है। बाहरी दुनिया में जब संघर्ष बढ़ेगा तो वह फिर अपने खांचों में लौट जाएगी । ऐसे में हम उनको हिजाब ना पहनने का बेहतरीन कानून ही क्यों ना दे दें , वास्तविक धरातल पर उसकी अहमियत कुछ नहीं होगी। जो इसे हिजाब पहनने और ना पहनने जैसी सतही समझ से देख रहे हैं, वे भूल कर रहे हैं।
हिजाब की अनिवार्यता न हो ,किसी घूंघट, परदे की भी नहीं लेकिन यह सुनिश्चित हो कि लड़की अकेली नहीं है ,देश को उसकी परवाह है ,सर से यह आवरण खुद ब खुद उड़ जाएगा। बेहद प्रतिकूल हालात में इल्म का हाथ थामने वाली और दमन का मुकाबला करने वाली ईरानी पत्रकार मसीही अलनेजाद अपनी किताब में लिखती हैं सर ढंकना सिर्फ सर ढंकना नहीं है औरत की पूरी सोच को नियंत्रित करने की साजिश है।