सुसंस्कृति परिहार : साथियों आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मुबारक। देश आज उस मुकाम पर है जहां बदलाव की आंधी बेतहाशा चल रही है इसे दुनिया भर में बदलते भारत के रुप में एक नई पहचान भी हासिल हुई है। दुनियां का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश आज जिस जगह पहुंचने की कोशिश में है उससे गांधी के इस देश के स्वतंत्रता इतिहास को गहरा आघात पहुंच रहा है साथ ही साथ भारतीय संविधान भी सकते में है। कभी कभी लगता है यदि यही हाल रहा तो 2024 में शायद ही चुनाव हों। बदलाव देश के विकास और प्रगति के लिए होने चाहिए लेकिन आज जो बदलाव नज़र के सामने हैं उनसे तो यही लगता है कि ये तमाम बदलाव अपने ग़लत तौर तरीकों को छुपाने और अपनी सत्ता कायम रखने के लिए ही हो रहे हैं।
समझ नहीं आता कि बदलावों का ज़िक्र कहां से प्रारंभ किया जाए चलिए, आज़ाद भारत की ताज़ा तस्वीर से ही शुरूआत करते हैं वह है पेगासस जासूसी। जिसकी बदौलत आज हर उस गतिविधि पर नज़र रखी जा रही है जहां सरकार को ज़रा भी संशय है कि वह उनके हित में नहीं है। मीडिया, विपक्षी नेता, मानवाधिकार कार्यकर्ता, जज, सेना, उद्यमी यहां तक कि उनकी अपनी सरकार के मंत्री भी इस ज़द में है जिनसे ख़तरा संभावित है, यानि ये सब यदि सरकार के खिलाफ बोल रहे हैं, कोई अभियान चलाने की योजना बना रहे हैं तो यह राजद्रोही होंगे।
जासूसी के ज़रिए उन पर लगाम लगी रहेगी और सरकार ज़िंदाबाद रहेगी। सीधा मतलब ये अब लोकतंत्र के पहरुओं की कोई ज़रूरत नहीं। जबकि लोकतंत्रात्मक गणराज्य ने हमें अभिव्यक्ति की आजादी और निजता का अधिकार दिया हुआ है। यह बदलाव इतना जबरदस्त है कि जैसे हम सब अपनी आज़ादी सरकार के पास रहन रखें हुए हों। जो आज बोलते, लिखते और अधिकारों की बात करते हैं उन्हें सी बी आई, आईटी, ई डी दबोचने तत्पर बैठी है। देश में आठ माह से चल रहे किसान आंदोलन से सरकार बेपरवाह है उसने जो कानून बना दिए उस पर अब कोई गौर नहीं किया जाएगा जबकि ये कानून बिना किसान मोर्चा के प्रतिनिधियों से बात करे कोरोना काल में अडानी को लाभ पहुंचाने पास कराये गये हैं जिन पर सदन में कोई बहस भी नहीं हुई जबकि हमारे संविधान को लचीला इसीलिए बनाया गया है ताकि ज़रुरत होने पर इसमें संशोधन किया जा सके या वापस लिया जा सके पर सरकार यानि हम दो की इच्छा ही महत्वपूर्ण है। ये बदलाव पूरी तरह अलोकतांत्रिक और तानाशाही मनोवृत्ति का परिचायक है।
इधर देखें, आज़ादी के बाद इतना जोशो-खरोश भारत पाक युद्ध में भी कभी नहीं देखा गया जितना आज भारत के दो राज्यों असम और मिजोरम के बार्डर पर देखने मिल रहा है। इतना घमासान मचा हुआ है कि गोलियां चलीं, पांच पुलिस वाले मर गए, बंकर बनाकर लड़ाई लड़ी जा रही हो। मुख्यमंत्री दूसरे मुख्यमंत्री को रास्ता बंद कर राशन रोकने की धमकी दें जहां गृहमंत्री की बैठक के बाद दो राज्य हमलावर हो लड़ जाएं और गृहमंत्री दिल्ली में आराम फरमाएं। अरे भाई गृह नहीं संभलता तो मंत्रालय बदल लें। त्यागपत्र का रिवाज तो चलन से बाहर हो गया है। ये सब बदलाव नहीं तो और क्या हैं? दोनों राज्य आज़ाद हैं जो चाहे कर डालें इतनी आज़ादी पहले थी क्या? पहले विवाद अगर हुए भी तो केंद्र सरकार की मध्यस्थता से निपट जाते रहे।
सबको मालूम है, जब देश को आजादी मिली तो देश में कई नये औद्योगिक संस्थान खुले ताकि देश आत्मनिर्भर हो सके साथ ही साथ बेरोजगारों को काम मिल सके। इसके अलावा बड़े पैमाने पर स्कूल कालेज, विश्वविद्यालय, मेडीकल, इंजीनियरिंग कालेज, कृषि विज्ञान केंद्र भी खुले ताकि आडम्बर और अंधविश्वासों से दूर युवा पीढ़ी देश को समृद्ध करे। यातायात के क्षेत्र में चौतरफा विकास हुआ। आज इन तमाम संस्थाओं का निजीकरण हो रहा है। ये इतना बड़ा बदलाव है कि अब बेरोजगार की बोलती बंद है चूंकि प्राईवेट संस्थान अपनी मन मर्जी के मालिक होते हैं उन पर किसी का दबाव नहीं चलता। वे रोजगार उन्हें देते हैं जो सक्षम और समर्थ होते हैं। सरकारी संस्थानों में तो सभी तरह के लोग आ जाते थे। कहने का आशय यह कि अब इस महत्वपूर्ण बदलाव की बदौलत सरकार की जिम्मेदारी खत्म। हम भी आज़ाद और तुम भी यानि संस्थान भी आज़ाद। ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी। शांति पूर्वक समस्या हल ऐसी अनूठी मिसाल कहीं नहीं मिलेगी।
वैसे बदलाव का आगाज़ तो 2014 में सरकार बनाने से पहले हो चुका था जब नमो नमो और अच्छे दिन का शोर था। 15 लाख खातों में जमा होने और काला धन लाने तथा एक करोड़ लोगों को रोजगार देने का वादा था। सात साल बाद भी ऐसा कुछ नहीं हुआ मतलब ये सब चुनाव जीतने की लफ्फाजियां थीं। बाद में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने इसे चुनावी जुमला कह भी दिया। चुनाव में इतना लज़ीज़ झूठ भी पहली बार बोला गया जनता ने उसे सिर माथे धरा और और 2019भी जिता दिया,है ना कमाल। झूठ से इतनी आस्था और भक्ति सत्यमेव जयते वाले देश में पैदा करना देश की विचारधारा को इस कदर बदलना भी कम मेहनत का काम नहीं।
सामंतों की तरह चुनाव जीतने के लिए साम दाम दंड भेद का प्रयोग करने में भी सरकार के तमाम रिकार्ड कायम किए। तब भी यदि कामयाब नहीं रहे तो ख़रीद फरोख्त में पीछे नहीं रहे। येन केन प्रकारेण सरकार बनाना है। मध्यप्रदेश में तो ऐसा खेला हुआ कि 22 विधायकों को भाजपा में शामिल कर सरकार बनाई गई। जनता वोट किसी पार्टी को दे विधायक किसी पार्टी में चल दें। लोकतंत्र का ये एक नया अध्याय आज़ाद भारत की पहचान बन गया और इन बदलावों से चुनावों की महत्ता को धक्का लगा लेकिन सरकार बनाकर सीना तान गया ये क्या कम है? चुनाव आयोग सरकार की भाषा बोलता रहता है ये सरकार की उपलब्धि में ही आयेगा। सरकार एक काम बड़ी मुस्तैदी से करती है वह भी नाममात्र के विपक्ष को कोसने का जिसमें उनके पुरखों को शामिल किया जाता है, दूसरे कोई भी चुनाव हो हल्के में नहीं लेती। आज़ाद भारत का महत्वपूर्ण बदलाव है यह कि केंद्रीय सरकार का दखल नगरीय निकायों तक बढ़ गया है।
न्यायालय भी चुनाव आयोग की तरह स्वतंत्र भूमिका निर्वहन करते रहे हैं लेकिन उन्हें भी रिटायरमेंट के बाद पद देने के प्रलोभन की शानदार शुरुआत भी इस बदलाव में शामिल है। सरकार ने इस बदलाव से कितने अपने दाग साफ़ किए हैं सच सब जानते हैं। जब ऐसी चाल में कोई नहीं फंसा, ज़िद की गई तो उसको रास्ते से हटा दिया गया। इसी सीख और बदलाव का सुफल धनबाद में भी सामने आया जब एक गैंगस्टर ने जज साहिब को आटो टक्कर में समाप्त कर दिया। उत्तर प्रदेश में में एक जज को मारने की कोशिश हुई है। आज़ाद भारत के इन बदलावों के शानदार किस्से दुनिया के अख़बारों में भी दर्ज़ हुए हैं।
यही हाल कार्यपालिका का है अधिकारियों ने यदिआकाओं की हुक्म उदूली की तो बस चढ़ा दिया सूली पर। बिस्तर बोरिया बंध गया, कैरियर चौपट। जहां मंत्रियों की कद्र ना हो, बात ना सुनी जाए, सिर्फ़ दो लोग ही देश चला रहे हों वहां आई ए एस और आई पी एस की क्या वकत कि उसके सुझावों पर अमल हो। इसलिए कई परेशान अधिकारी नौकरी छोड़ सामाजिक कार्यकर्ता बन गए हैं। लोकतन्त्र की छाया में तानाशाही का ऐसा मंज़र कभी नहीं देखा गया। बेशक सन 2014 के बाद बलबदलाव की फेहरिस्त बहुत लंबी है।
अब लोकतंत्र के चौथे खंभे की हालत भी देखिए कई पेज के विज्ञापनों से भला आज कौन मुख मोड़ेगा विज्ञापन की एवज में प्रशंसा ही तो करनी है। फिर मीडिया का 90% हम दो हमारे दो के हाथ है। तब सरकार से दो दो हाथ करने वाले बच्चे कितने हैं। लेखक भी सरकारी होने पर मुग्ध हो जाते हैं फूले नहीं समाते। तब चंद ईमानदार पत्रकार और लेखक ही बच रहते हैं जो अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाते हैं। ये नई गोदी मीडिया और लेखकों की फ़ौज इस बदलाव की पैदावार है और देश के चौथे खंभे को जर्जर किए जा रहे हैं।
आज तो लोगों की मन:स्थिति पर इन बदलावों ने असर डालना शुरू किया है वे बातरह निराश हैं इसलिए नेताओं की तरह रंग बदलने में संकोच नहीं करते। जैसे भी घर की बुनियादी जरूरतें पूरी होंध्येय बन चुका है। झूठ तो आज बड़ा सहारा हो गया है। झूठे का मुंह काला का स्थान सच्चे ने ले लिया है। सच परेशान है झूठ का बढ़ता रुतबा देखकर। तो साहबान घबराएं नहीं झूठ लंबे समय नहीं टिकता। बदलाव की ये आंधी कब तक चलेगी? इसे समाप्त होना ही है।
आज़ाद भारत की अहमियत बचाने, संविधान की मज़बूती के लिए अब सी जे आई भी चौकन्ने हो गए हैं धड़ाधड़ सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। ममता के सच्चा दिन वापसी के प्रयास भी जोशो-खरोश से जारी हैं। बंगाल परिवर्तन का सिरमौर बन चुका है उसने ना केवल बंगाल को भाजपा से बचाया है बल्कि बड़ी संख्या में लोग भाजपा छोड़ भागे भी हैं। बंगाल भाजपा से मुक्त हो रहा है। बाबुल सुप्रियो का राजनीति से संन्यास भी इस परिवर्तन का परिचायक है। सरकार अपने मुख्यमंत्रियों को बदलने का जो उपक्रम चला रही है वह भी उसकी कमज़ोरी का प्रतीक है।
बकौल शैलेन्द्र तू ज़िंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर। आज़ादी की 75वीं जयंती सही मायनों में देश में अब एक नई रोशनी लेकर आने वाली है। निराश ना हों यह रोशनाई नागरिकों को एक नई ताकत और हौसला देगी तथा देश की एक मुकम्मल मज़बूत छवि को धूमिल होने से बचाएगी। अल्लामा इक़बाल का यह प्यारा तराना सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा दुनियां में गूंजता रहेगा। तमस के ये बादल छंट जाएंगे। नई सुहानी भोर आयेगी।