सुसंस्कृति परिहार : आज जब भारत देश गांधी के रास्ते से पूरी तरह भटकता नज़र आ रहा है ऐसे कठिन दौर में एक महान गांधीवादी चिंतक और राष्ट्र निर्माण हेतु युवाओं के बीच सार्थक हस्तक्षेप करने वाले एस एन (सलेम नंजुन्दैया) सुब्बाराव जी जिन्हें हम सब भाईजी जैसे स्नेहिल संबोधन से पुकारते थे ,चले जाना एक बड़ी क्षति का अहसास करा रहा है। जिन्होंने गांधी , विनोबा जैसे महान राष्ट्र सेवकों को नहीं देखा था वे भाई जी में उन्हें संपूर्णता के साथ अब तक देख कर गांधी- विनोबा को अनुभूत करते रहे हैं। उनके जाने के बाद एक अंधेरा जैसे उभर आया है।उनकी यादें और उनके विचार ही अब हमारा संबल रहेंगे। हालांकि उनके अनुयायियों की संख्या हज़ारों में मौजूद है लेकिन उनके जाने के बाद क्या स्थितियां बनती है ये वक्त बताएगा।जबकि भारत को आज के दौर में गांधी जी के अनुयायियों की अत्यंत आवश्यकता है जो बिखरते समाज को सुदृढ़ करने आगे आएं और अशांत और हिंसक होते समाज को शांति ,अहिंसा और सद्भाव का मंत्र दे सकें एवं सबसे निचले पायदान के आदमी की फ़िक्र कर सकें।हमेशा एक जैसी नीली पेंट और सफेद शर्ट वाली पोशाक में, एक गांधियन थैला टांगें जनहित में होने वाले आंदोलनों और पदयात्राओं में बहुतेरे लोगों ने उन्हें देखा होगा।
भाई जी का निर्माण13वर्ष की वय थी तभी शाला में पढ़ते समय ही इस खबर से हुआ कि देश के तमाम बड़े नेता जेल में डाल दिए गए हैं वे विलम्ब ना करते हुए अपने साथियों सहित आजादी के संग्राम में कूद पड़े। उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और गांधी जी के दर्शन में पूरी तरह डूब गए।गांधी जी की मृत्यु के बाद उन्होंने अनाथ राष्ट्र को संवारने के लिए युवाओं और बच्चों का सहारा लिया।वे भारत राष्ट्र की बहुरंगी विविधता को जहां भी जाते थे उन रंगों में बच्चों को प्रशिक्षित कर भारत की कला संस्कृति, भाषा, रहन-सहन, खान-पान, पोशाक के साथ भूगोल इतिहास से इस तरह जोड़कर सम्पूर्ण भारत का दिग्दर्शन कराते हुए एकता का जो मूलमंत्र बांटते रहे वह अनूठा और आकर्षक था।वे बहुभाषी होने के साथ ही सम्पूर्ण देश को अपने में आत्मसात किए हुए थे। उनका गायन और प्रेरक गीत सबको खींचने और जोड़ने बाध्य करता था।वे सहज ,सरल, अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे ।किसी कार्यक्रम में जब चीफ गेस्ट विलंब करते तो सामने उपस्थित युवाओं को अपना चीफ गेस्ट मानकर कार्य शुरू कर देते थे।
पद्मश्री से सम्मानित और राष्ट्रीय सेवा योजना के संस्थापक सदस्य एसएन सुब्बाराव जी का एक कथन याद आता है वे कहते थे- “अनुशासन व्यक्ति को आदर्श नहीं बनाता, व्यक्ति की वास्तविक खुशी दूसरों को खुश देखने में होनी चाहिए।” नियमों के तोड़ने वालों को सावधान करते हुए वे कहते हैं-
” वाहन चलाने का लाइसेंस मिलने का अर्थ यह नहीं होता कि हम सड़क पर चलने के नियमों को तोड़े, बल्कि इसका अर्थ होता है कि हम नियमों का पालन करें। भारत में इसका उल्टा ही हो रहा है, हम नियम और कानूनों को तोडॉकर आनन्द की अनुभूति करते हैं। ये नियम और कानून तो मनुष्य की भलाई के लिए होते हैं। उन्होंने कहा कि हम स्वयं के अन्दर निष्ठा की भावना को विकसित कर देश और समाज की सेवा करें।”
एन. एस. एस. के माध्यम से हमें मानवता का संदेश देना चाहिए और मानवीय समाज बनाने में अपना योगदान देना चाहिए। उन्होंनें कहा कि अच्छे से अच्छा व्यक्ति भी बुरा हो सकता है और बुरे से बुरा व्यक्ति भी अच्छा बन सकता है। हम सबका उद्देश्य होना चाहिए कि बुरे व्यक्ति को भी अच्छा बनायें और समाज के लिए उसका सदुपयोग करें।सुब्बाराव भी युवाओं के माध्यम से देश की सामाजिक और राष्ट्रीय समस्याओं के निदान एवं राष्ट्रीय एकता बनाए रखने के कार्य में लगे रहे ।आदिवासियों को विकास का मुख्य धारा में लाने के लिए वह अपनी टीम के साथ लगातार काम करते रहे। पद्मश्री से सम्मानित डॉ. सुब्बाराव को 1995 में राष्ट्रीय युवा परियोजना को राष्ट्रीय युवा पुरस्कार, 2003 में राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, 2006 में 03 जमनालाल बजाज पुरस्कार, 2014 में कर्नाटक सरकार की ओर से महात्मा गांधी प्रेरणा सेवा पुरस्कार और नागपुर में 2014 में ही राष्ट्रीय सद्भावना एकता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था ।
चंबल के बीहड़ों को डकैतों से मुक्त कराने वाले भाई जी के नाम से जाने वाले सुब्बाराव ने स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण की मौजूदगी मे 1972 में ,जौरा के गांधी सेवा आश्रम में 300 से ज्यादा डकैतों का आत्म समर्पण कराया था इन्हीं की प्रेरणा से 100 डकैतों ने राजस्थान के धौलपुर में गांधीजी की तस्वीर के सामने भी हथियार डाले थे। उनकी सर्वाधिक लोकप्रियता डाकुओं के समर्पण के साथ फैली। उन्होंने जिस तरह डाकुओं से नज़दीकी कायम की और फिर दिल जीतकर समर्पण कराया इसका इतिहास यह बताता है कि यदि आपके आचरण में ईमानदारी और शुचिता है तो कठोर दिलों में स्नेह सलिला बहाई जा सकती है। समर्पण के बाद वे श्रेय लेकर पीछे नहीं हटे बल्कि डकैतों के पुनर्वास की व्यवस्था कर ही जौरा आश्रम से अन्य कामों में लगे रहे।ये बात जाहिर करती है कि वे काम के प्रति जिस तरह की लगन रखते थे उनका कोई सानी नहीं। उन्होंने राष्ट्र की एक बड़ी और जटिल समस्या का जिस प्रेम और सद्भावना से समाधान किया वह यादगार है तथा गांधीवादी विचारों की जीत का एक प्रमाण । राष्ट्रीय सेवा योजना उनकी देन थी। वे युवाओं को कर्मठ और राष्ट्र निर्माण हेतु तैयार करने जीवन पर्यंत लगे रहे।
उनका जनगीत गाते रहना उनकी ज़िंदादिली का सबूत था। ज़िंदगी के आखिरी लम्हे से पूर्व इसलिए अपने स्वास्थ्य का हाल पूछने वाले एक सज्जन से प्रतिप्रश्न करते हुए कहते हैं यदि ठीक हो रहा होता तो गाता ज़रुर। वे गा नहीं पाए और चले गए यह सोचकर कि आगे कोई गायेगा ज़रूर और वतन को जगाएगा।