अखबारों के पन्नों से लुप्त होते कार्टून

अखबारों के पन्नों से लुप्त होते कार्टून

पत्रकारिता में कार्टून कला एक संपादकीय टिप्पणी के रूप में स्थापित विधा है। वैसे ही जैसे फ़ोटो पत्रकारिता, जिसमें किसी रिपोर्ट के साथ-साथ अनेक बार कोई चित्र संपादकीय टिप्पणी भी होता है। जिस प्रकार पत्रकारिता में किसी न्यूज़ फ़ोटो के लिए कहा जाता है कि वह एक हजार शब्दों के बराबर होती है, उसी प्रकार कार्टून के लिए भी यही बात कही कहा जा सकती है। किन्हीं विषयों पर एक लंबा चौड़ा संपादकीय जितनी गहराई से अपनी बात नहीं कह पाता वह एक छोटा सा कार्टून कह देता है। समाचार पत्र में कार्टून एक प्रकार से व्यवस्था का प्रतिरोध भी करते हैं। कार्टूनिस्ट अर्थात कार्टून बनाने वाला एक परिस्थिति को दर्शाता है जो ह्यूमर के साथ वार करता है। जैसे हास्य कवि चुटकलों में गहरी टिप्पणी कर जाते हैं या चुटकी ले लेते हैं वैसे ही समाचार माध्यमों के कार्टून भी राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं, व्यवस्थाओं तथा फैसलों पर चुटकी लेते हैं, व्यंग्य करते हैं। मगर उनमें एक मिठास भी होती है। वे भयाक्रांत नहीं करते। एक समय अखबारों के कार्टूनों की अपनी अलग पहचान होती थी। लेकिन अब वैसा नहीं रहा। जब से समाचार माध्यम बाज़ार के लिए उत्पादों का प्रचार करने वाले उत्पाद खुद बनने लगे हैं तब से अखबारों में जिन बहुत सी चीजों का स्पेस सिमटता जा रहा है उनमें एक कार्टून भी है। यह दर्द उन प्रमुख कार्टूनिस्टों का भी है जिन्होंने वर्षों की मेहनत के बाद इस विधा में अपना स्थान ही नहीं बनाया है बल्कि नाम भी कमाया है।

अखबारों के पन्नों से लुप्त होते कार्टून

पिछले दिनों ‘ग्रासरूट फाउंडेशन’ की तरफ से आयोजित “हिंदी में कार्टून जगत की चुनौतियां” विषय पर एक संवाद में राजस्थान के चार दिग्गज कार्टूनिस्टों ने यह पीड़ा व्यक्त की कि उन्हें अपने बाद इस विधा में नई पीढ़ी का कोई सदस्य आता हुआ नहीं दिखता। उनका यह निष्कर्ष बिल्कुल गलत भी नहीं था कि हिन्दी जगत में कार्टून विधा को कोई अपना कॅरियर विकल्प नहीं बनाता। कोई युवा इस विधा में जाने का सोचे तो उसे अपने ही परिवार और नजदीकी लोगों से यह सुनने को मिलता है कि इसमें क्या धरा है। सभी ऐसा चाहते हैं कि उनके बच्चे डॉक्टर-इंजीनियर जैसे विषय चुनें जिनमें अच्छे वेतन वाली नौकरियां मिल सके। मगर ऐसा सोच व्यक्त करते हुए हमारी दृष्टि सिर्फ प्रिन्ट माध्यम यानी अखबार पर ही जाती है जो नये डिजिटल युग में अपनी खिसकती जा रही जमीन को बचाने की जद्दो-जहद में लगा है। इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि डिजिटल माध्यम के सर्वव्यापी हो जाने के बाद अब यदि प्रिन्ट माध्यम का स्पेस सिकुड़ रहा है तो कार्टून विधा के पेशेवरों के सामने अनेकों नये अवसरों के दरवाजे भी खुल रहे हैं। भारत के मध्यम वर्ग के लोगों ने कॅरियर का अर्थ सिर्फ नौकरी मान रखा है जबकि नए दौर में संचार माध्यम के अवसर नियमित वेतन वाली बंधी बंधाई नौकरी से आगे निकल चुके हैं। जो अपनी प्रतिभा, मेहनत और क्षमता से किसी उत्पाद के उपयोगकर्ता को आकर्षित कर सके और जिससे पैसा कमाया जा सके, आज के उपभोक्ता बाज़ार को उसकी जरूरत है। इसमें कुछ करने और पाने की अपार संभावनाएं हैं। वह वक़्त गया कि कार्टूनिस्ट बनने का ख्वाब देखने वाला कोई नौसिखिया नौजवान अखबार में नौकरी पा ले और वहां घिसते-घिसते निखार पा जाए। अब प्रतिस्पर्धी बाज़ार पूछता है आपके पास बेचने को क्या हुनर है? अधिकांश स्थापित कार्टूनिस्टों का मानना है कि कोई भी संस्थान आपको कार्टून बनाना नहीं सिखा सकता। आप कला सीख सकते हैं, आप संस्थानों में स्केच और ड्रॉ करना सीख सकते हैं, लेकिन कोई किसी को अच्छा कार्टून बनाना नहीं सिखा सकता। यह खुद की प्रतिभा और मेहनत से ही पाया जा सकता है। स्थापित कार्टूनिस्ट यह सलाह भी देते हैं कि आप यदि स्केच बना सकते हैं तो यह मत मान लीजिए कि आप कार्टूनिस्ट बन जाएंगे।

कार्टून की मौजूदा विधा भले ही छापेखाने के आविष्कार और अखबारों के आविर्भाव के साथ पश्चिम से आई लेकिन पुरातत्ववेत्ताओं ने भारत में हास्य चित्रों के प्रमाण पुरातन काल में भी पाये हैं। प्राचीन अजन्ता की गुफाओं में व्यंग्य चित्रों के उदाहरण मिले हैं। यही नहीं हास-परिहास विनोदशीलता से युक्त तीक्ष्ण कटाक्षपूर्ण भीत्ति चित्र भी भारत में मिले हैं। कई मध्य युगीन ग्रन्थों में भी विनोदपूर्ण चित्र मिलते हैं। किन्तु कार्टूनों का आधुनिक काल में प्रचलन फ्रांस और इंग्लैण्ड में प्रारम्भ हुआ। वहां से यह विधा भारत में आई। इंग्लैण्ड के विलियम होगार्थ (1697-1764) को कार्टून दुनिया का पितामह माना जाता है। कालान्तर में जान लीच ने व्यंग्य चित्र बनाना शुरू किया। विश्व के अन्य प्रमुख कार्टूनकारों में फुगास, शैफार्ड, लेंगडन डेविडलों, रेनोल्ड्स, रौलिन्सन आदि हैं। भारत में सर्वप्रथम 19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में कार्टून विधा प्रारम्भ हुई। एक पारसी ने इसका सूत्रपात किया बताते हैं। भारत के प्रमुख कार्टूनिस्टों में शंकर, आर. के. लक्ष्मण, सामू, आबिद सुरती, काजिलाल, रंगा, सुधीर दर, मारियो मिरांडा, अबू अब्राहम, राजिंदर पुरी, उन्नी, सुधीर तेलंग, प्राण, नेगी, मनोरंजन, शिक्षार्थी, अहमद, सुनील चटोपाध्याय, संदीप जोशी पंकज गोस्वामी आदि के नाम सहज ही याद आ जाते हैं। ‘शिव सेना’ को महाराष्ट्र में एक प्रमुख राजनैतिक दल के रूप में खड़ा करने वाले बाल ठाकरे भी पहले अखबार में कार्टूनिस्ट थे। भारतीय अखबारों में कार्टून छपने का इतिहास समाचार पत्रों जितना ही पुराना माना जाता है। कोई समय अखबारों के पाठकों के लिए रोज सुबह उनमें कार्टून एक जरूरी हिस्सा होता था और प्रथम पृष्ट का जेबी कार्टून समाचार पत्र पाठक को मुस्कराने का एक सबब देता था। अखबारों में छपने वाले कार्टून दो प्रकार के रहे हैं। वह परिपाटी आज भी जारी है। एक कार्टून वह होता है जिसमें व्यंग्य चित्र के जरिए ही सब कुछ कह दिया जाता है। उसके साथ कैप्शन में कोई टिप्पणी नहीं होती। ऐसे कार्टून अखबार के पाठक के थोड़े अधिक जुड़ाव, थोड़े अधिक ज्ञान और थोड़ी अधिक समझ की अपेक्षा करते हैं। दूसरे तरह के वे कार्टून होते हैं जिनके साथ कार्टूनिस्ट की टिप्पणी भी होती है। इसलिए कहा जाता ही कि कार्टूनिस्ट के पास रेखाओं की पकड़ के साथ साथ वाक्-पटुता भी होनी जरूरी है। कार्टून बनाना एक ऐसी कला मानी जाती है जिसमें किसी भी गंभीर विषय या मुद्दे को रोचक तरीके से प्रदर्शित किया जाता है।

आम तौर पर कार्टून बनाना एक शौक के तौर पर शुरू होता है। मगर क्या कोई अपने शौक को कॅरियर बना सकता है, यह बड़ा सवाल है। आज के अखबारों को देखें तो, जैसा वरिष्ठ कार्टूनिस्टों ने अपने संवाद में माना, वहां इसकी कोई संभावना नज़र नहीं आती। केवल कार्टूनों को समर्पित पत्रिका की भी हमारे देश में ‘शंकर्स वीकली’ के अलावा कभी कोई जगह नहीं रही। आज के समय में जहां एक तरफ प्रिन्ट न्यूज़ मीडिया में कार्टून विधा के लिए संभावनाएं नजर नहीं आती वहीं दूसरी तरफ डिजिटल जगत में उसके लिए अपार संभावनाएं हैं जिनमें कलाकार की आत्म संतुष्टि के साथ खूब पैसा भी है। कार्टूनिस्टों के लिए प्रिन्ट व ऑनलाइन पत्रिकाओं तथा किताबों में इलस्ट्रेशन और एनीमेशन-चलचित्रों के लिए भी काम की कमी नहीं है। कोई कार्टूनिस्ट यदि एक प्रोफेशनल कलाकार की तरह काम करे, तो उसके लिए कॉमिक स्ट्रिप्स, समाचार पत्र-पत्रिकाओं, मनोरंजन पत्रिकाओं, टेलीविजन, फिल्मों, वीडियो गेम आदि में काम मिलने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। मगर इसे वही साध सकता है जो कल्पनाशील हो, और ड्राइंग का शौक रखता हो। वह अपने स्केच और कॉमिक स्ट्रिप्स के माध्यम से अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से भी व्यक्त कर सकता हैं। आज कल एनिमेटेड मूवीज का बड़ा चलन है जिसमें कार्टूनिस्टों के लिए खूब काम भी है और पैसा भी है। डिजिटल दुनिया का सबसे लोकप्रिय प्रोग्राम वीडियो गेम, जो डिजिटल दुनिया में सबसे कमाऊ धंधा है, में भी कार्टूनिस्टों के लिए कॅरियर के बड़े अवसर उपलब्ध है। क्योंकि कला की अपनी देशगत विशेषता होती है इस लिए भारतीय बाज़ार के लिए इसी माटी के कार्टूनिस्टों को काम मिलेगा और वे सफल भी होंगे। हालांकि कैरीकेचर और कार्टून में अन्तर होता है। कैरीकेचर किसी व्यक्ति के व्यंग्यात्मक भाव-भंगिमाओं का प्रस्तुतीकरण का तरीका है जबकि कार्टून में राजनीतिक, सामाजिक संदर्भों को बड़े कलात्मक और सूक्ष्म तरीके से प्रस्तुत करते हुए टिप्पणी होती है। लेकिन नए अवसरों के लिए संपादकीय टिप्पणी वाले कार्टून ही सब कुछ होते हैं इस जंजाल से बाहर निकलना होगा। इसके लिए विख्यात कार्टूनिस्ट सुधीर दर का उदाहरण दिया जा सकता है जिनका हास्यबोध चुभने वाला नहीं, बल्कि कुछ शरारती क़िस्म की चुटकी ले कर मजा देने वाला था हुआ करता था। उनके कार्टून तीखे राजनैतिक आशयों वाले न होकर मज़े लेने वाले कार्टून होते थे।

सच तो यह है कि भारत ही नहीं पश्चिम में भी राजनैतिक या एडिटोरियल-कार्टून की जगह सिमटती जा रही है। एडिटोरियल कार्टूनिस्टों के अमरीकी संगठन के मुताबिक़ पिछली शताब्दी में अमरीकी अख़बारों में दो हज़ार से ज्यादा कार्टूनिस्ट नौकरी पर थे, अब यह संख्या पचास से भी कम है। कमोबेश यह स्थिति सारी दुनिया में है। प्रिन्ट मीडिया ज़बर्दस्त आर्थिक संकट के दौर में है और ज्यादातर मीडिया संगठन कार्टून छापने को बेवजह के विवाद की जड़ मानते हैं, सो कटौती की पहली तलवार जिनके सिर पर पड़ती है उनमें कार्टूनिस्ट अगली क़तार में होते हैं। डिजिटल मीडिया ने नए रास्ते जरूर खोले हैं लेकिन वहां विचारधारा वाली संपादकीय टिप्पणी की जगह मजा देने वाले कार्टूनों की मांग अधिक होती है जिसके लिए इस पेशे को अपनाने वालों को तैयार रहना पड़ेगा।

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