राजनीति में रंग बदलती गिरगिटियाॅ प्रवृत्ति स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए घातक!

जनमत का भरम : सूचना देने लेने की मशीनरी पर जिसका कब्ज़ा होगा, वो जनमत को निर्मित करेगा…

यह सर्वविदित है कि-विभिषण ने उच्चतम मानवीय मूल्यों का पालन करते हुए तथा उच्चकोटि की नैतिकता और सचरित्रता का परिचय देते हुए युगों-युगों के महानायक मर्यादा पुरुषोत्तम राम का साथ दिया था और अपने सहोदर अग्रज परन्तु अधर्मी रावण और उसकी लंका के विनाश के सारे उपाय बताऐ । परन्तु आज भी विभिषण को भारतीय जनमानस में कुलद्रोही और  कुलनाशक माना जाता है। यही नहीं बल्कि विभिषण को संदर्भित एक मुहावरा “घर का भेदी लंका ढाए “जनमानस के बोल-चाल में व्यापक रूप से प्रचलित हैं।भारतीय वांगमय  में विभिषण,जयचन्द और मीर जाफर को भितरघातियों के रूप में वर्णित और ऐतिहासिक दृष्टि से नकारात्मक चरित्र के रूप में चित्रित किया जाता हैं। इसके विपरीत अधर्म,असत्य , अन्याय और अत्याचार के पक्ष में खड़े अपने मित्र दुर्योधन के हर दुष्कर्म और दुष्कृत्य में संलिप्त होने के बाबजूद अंगराज कर्ण को भारतीय जनमानस में आदर और श्रद्धा के साथ याद किया जाता हैं। सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में वही विभूतियाँ सर्वदा सम्मान से स्मरण की जाती हैं जो अपने सिद्धांतों और उसूलों के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती हैं। जन आकांक्षाओं के अनुरूप एक स्वस्थ्य लोकतंत्र वही पल्लवित और पुष्पित होता हैं जहाँ सिद्धांतों और विचारों की बुनियाद पर राजनीति अवलंबित होती हैं और संचालित होती हैं और सिद्धांतों और विचारों की तपिश से तपे तपाऐ राजनेता नेतृत्व करते हैं।

विगत कुछ वर्षों से भारतीय राजनीति में दल बदल की प्रवृत्ति तेजी से बढ रही हैं जो सिद्धांतहीन और विचारहीन राजनीति का द्योतक हैं। वस्तुतः आजादी के उपरांत आरम्भिक दशकों में स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों, मर्यादाओं और मान्यताओं से अनुप्राणित राजनेता ही प्रायः राजनीति में सक्रिय रहे जो जनसेवा के संकल्प के साथ राजनीति में आए। परन्तु नब्बे के तक आते -आते राजनीति में एक सुविधाभोगी वर्ग उभर आया जिसकी प्राथमिकतायें अपनी सुख सुविधाओं और दौलत के साम्राज्य की रक्षा था। इसके साथ नब्बे के दशक तक भारत में कुछ हद तक आर्थिक सम्पन्नता भी आ चुकी थी और आर्थिक रूप से एक सम्पन्न वर्ग भी स्पष्ट रूप से उभर कर आ चुका था । यह आर्थिक रूप से सम्पन्न वर्ग भारतीय राजनीति में सीधा और सक्रिय हस्तक्षेप करने लगा। इसके कारण भी भारत में दलबदल की प्रवृत्ति को बढावा मिला।

लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव जैसे-जैसे करीब आते हैं वैसे-वैसे राजनीतिक दलों में भगदड बढ जाती हैं। लगभग हर चुनावी मौसम में दलबदलू नेताओं की बाॅढ सी आ जाती हैं। राजनीतिक दलों द्वारा भी जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए राजनेताओं का आयात-निर्यात किया जाता हैं। सत्ता का स्वाद और सत्ता की मलाई काटने के आदती राजनेता येन-केन- प्रकारेण विधानसभा और लोकसभा में पहुंचने के लिए बेताब और बेचैन रहते हैं। सत्ता की मलाई चाभते रहने के आदी राजनेता सत्ता से एक क्षण भी दूर नहीं  रहना चाहते हैं।अगर इन सुविधा भोगी  नेताओं को सत्ता से दूर कर दिया जाए तो इनकी हालत उस मछली की तरह हो जाती जिसको पानी से अलग कर दिया गया हो। इसलिए सत्ता से चिपके रहने के लिए सिद्धांतों और विचारों की तिलांजलि देकर दलबदल कर लेते हैं।   चुनावी बयार का उचित अनुमान लगाकर नेताओं द्वारा दूसरे दल से टिकट मिलने के आश्वासन पर रातों-रात आस्था निष्ठा बदल दी जाती हैं।

न्यूनतम लोकतांत्रिक मूल्यों, मर्यादाओ और मान्यताओं को ताक पर रख कर चुनावी मौसम में दलबदलू नेताओं द्वारा सत्ता से फेविकोल की तरह चिपके रहने की हवश में जिस तरह आस्था निष्ठा बदली जाती है, उससे रंग बदलने के लिए बदनाम और बहुचर्चित गिरगिट भी बहुत पीछे छूट जाते है। चुनावी मौसम में आस्था निष्ठा बदलने जैसे घृणित कार्य को संत सरीखे अंदाज में बडी साफगोई से और सफेदपोश तरीके से दलबदलू नेताओं द्वारा “हृदय परिवर्तन “का नाम दिया जाता हैं। गिरगिटों से भी तेज और अधिक रंग बदलने वाले  नेताओं द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा परिकल्पित “हृदय परिवर्तन “जैसी पवित्र धारणा को बार-बार दागदार किया जाता है। दल-बदल की कुप्रवृति , कुसंस्कृति और कुसंस्कार से स्वस्थ्य लोकतंत्र की आत्मा और  चेतना तो घायल होती हैं साथ ही साथ जनता के विश्वास के साथ निर्लज्जतापूर्वक विश्वासघात होता हैं ।क्योंकि भोली भाली जनता अपनी सैद्धांतिक और वैचारिक प्रतिबद्धता आस्था निष्ठा और विश्वास के तहत अपना बेशकीमती वोट देकर नेताओं को संसद और विधानसभा की डेहरी तक पहुँचाती रहती हैं । जिस देश में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम,योगीराज भगवान श्रीकृष्ण,राजा हरिश्चंद्र, चाणक्य, महात्मा गाँधी और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जैसे अनगिनत महापुरुषों ने राजनीति में मूल्यों मर्यादाओं और सिद्धांतों के लिए  अनगिनत यातनाएं सही और अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया ,उस देश की वर्तमान राजनीति पूरी तरह वैचारिक और नैतिक पतन की तरफ तीव्र गति से अग्रसर हैं और सिद्धांतहीनता की पराकाष्ठा पर पहुंच चुकी है। न्यूनतम जनतांत्रिक मूल्यों मर्यादाओं और परम्पराओं को पोटरी में बांध कर किसी काली कोठरी की धूल फांकती अलमारी में बन्द कर  रख दिया गया है। यह गिरावट नेताओं और आम जनता दोनों  के स्तर पर  देखा जा सकता है । हमारा महान स्वाधीनता संग्राम उच्च नैतिक मूल्यों आदर्शों और मान्यताओं को स्थापित करने और कुछ निश्चित सिद्धांतों और विचारों की बुनियाद पर लड़ा गया । सिद्धांतों विचारों के प्रति प्रतिबद्ध स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने आजाद भारत की कल्पना करते हुए यह कल्पना किया था कि- यह देश उच्च नैतिक मूल्यों आदर्शों से परिपूर्ण राजनीति द्वारा संचालित होगा । परंतु जैसे जैसे हम शिक्षित आधुनिक और विकसित होते गए वैसे वैसे मूल्यों मर्यादाओं सिद्धांतों विचारों की राजनीति से दूर होते चले गए। जब हम पिछडे थे ,भूखे -नंगे थे , अशिक्षित थे और गवाँर कहलाते थे,तो हमने बाल गंगाधर तिलक,गोपाल कृष्ण गोखले डॉ राजेंद्र प्रसाद डॉ बी आर अम्बेडकर और लाल बहादुर शास्त्री को अपना नेता माना, आज हम जब शिक्षित और समझदार कहलाते हैं तो हमारे समाज के सबसे बडे अपराधी सबसे बडे भ्रष्टाचारी सबसे बडे जातिवादी बड़बोले हमारे नेता हो गए। इन्ही अपराधियों बाहुबलियो भ्रस्टाचारियों और धन्नासेठों ने भारतीय राजनीति में सत्ता का संरक्षण पाने की मंशा से दलबदल को प्रश्रय दिया। सरकारों के बहुमत परिक्षण (Flor teast) और राज्य सभा और विधान परिषद का चुनाव  दल-बदल के माहिर खिलाडियों के लिए रातों रात करोड़पति बनने का सुनहरा अवसर होता हैं इस अवसर को दलबदलू नेता किसी कीमत पर गँवाना नहीं चाहते हैं। सांसदो विधायकों और अन्य निर्वाचित जनप्रतिनिधियों में बढती दल-बदल की प्रवृत्ति उनकी अकर्मण्यता,  निकम्मेपन और निठल्लेपन का परिचायक होती है। अगर जनप्रतिनिधि जनता की आशाओं और उम्मीदों पर खरे उतरते तो दल बदल करने की आवश्यकता ही नहीं पडती। विगत कुछ वर्षों से भारतीय में कुछ नेताओं को राजनीतिक लहरों के उतार-चढ़ाव में मर्मज्ञता और दल-बदल में उनकी निपुणता के कारण उन्हें राजनीतिक मौसम का मौसम वैज्ञानिक कहा जाने लगा है। ये मौसम वैज्ञानिक हवा का रुख देखकर हर चुनाव में करवट बदल लेते हैं।

पूरी दुनिया को आदर्शों,मूल्यों, मर्यादाओं ,सिद्धांतों और नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले देश में दल-बदल की संस्कृति भारतीय राजनीति में महामारी का रुप धारण करती जा रही हैं।। स्वच्छ और और स्वस्थ्य संसदीय लोकतंत्र के लिए दल-बदल की इस महामारी को जड-मूल से समाप्त करना आवश्यक है । क्योंकि सिद्धांत विहिन, विचार विहिन,नैतिकता विहिन और मूल्य विहिन राजनीति समाज में दिशाहीनता और अराजकता पैदा करती हैं। सिद्धांतों, विचारों ,मूल्यों , मान्यताओं और आदर्शो के अभाव में  राजनीति आवारा बदचलन और धंधा बन जाती हैं। सिद्धान्तहीनता और विचारहीनता के कारण ही इस दौर की राजनीति को लोग दबी जुबान से धंधा मानने लगें हैं। इसलिए राजनीति को जनसेवा और जनकल्याणकारी बनाना है तो गिरगिटियाॅ प्रवृत्ति को मिटाना होगा  ।

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मनोज कुमार सिंह
स्वतंत्र लेखक, साहित्यकार एवं विश्लेषक है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।