अमृतवर्ष : व्हाट्सऐप्प यूनिवर्सिटी के जमाने में, हिन्दुस्तान में हिन्दी का भौकाल!

अमृतवर्ष : व्हाट्सऐप्प यूनिवर्सिटी के जमाने में, हिन्दुस्तान में हिन्दी का भौकाल!

संजय कुमार सिंह : लगता है कि हम जो हैं, जैसे हैं वैसी ही सरकार चुनी है और चुनी हुई सरकार एकदम वैसे ही चल रही है जैसा हम चाहते हैं। इसीलिए 2019 में भाजपा की सरकार बनी और लग रहा है कि 2024 में भी बन जाएगी। वैसे तो यह अलग मुद्दा है पर आजादी का अमृत महोत्सव हमने तिरंगा फहरा कर मनाया इसके लिए फ्लैग कोड ऑफ इंडिया में ढील दी गई और पहले अगर सूर्यास्त के बाद झंडा उतारना होता था तो अब उपयुक्त प्रकाश में रात में भी झंडा फहराया जा सकता है और नियमों में ढील आलाम यह है कि हर खंभे, गेट और बालकनी में कई दिनों से झंडा दिन रात लहरा रहा है। हम उसपर बहस कर रहे हैं या उसी में उफलझे हुए हैं या उससे बेपरवाह हैं लेकिन देशभक्ति का प्रदर्शन कर चुके हैं।

आजादी के अमृत महोत्सव में करने के लिए क्या यह सर्वश्रेष्ठ काम था? या कुछ और है, हो सकता है, होने वाला है? यह तो नहीं पता। यह जरूर पता है कि नामीबिया से चीते लाये गए हैं, किसी जंगल में छोड़ दिये गए हैं और ये दहाड़ने की जगह म्याऊं कर रहे हैं। नर कितने हैं, मादा कितनी हैं, बराबर क्यों नहीं हैं, होना चाहिए था आदि आदि। इस तरह हमने झंडा फहरा कर देश भक्ति दिखा ली (और जांचने वालों ने जांच ली) और अब एक राष्ट्रीय मुद्दे पर चर्चा में व्यस्त हैं। सब ठीक चल रहा है। पीछे हिन्दी दिवस था और हिन्दी बड़ी उपेक्षित है। लोग अंग्रेजी के पीछे पगला गए हैं इसका नुकसान हिन्दी को हो रहा है और जरूरत इस बात की है कि मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी हिन्दी में यानी राष्ट्रभाषा में हो।

बुद्धिजीवियों का मानना है कि हिन्दी पढ़ने और हिन्दी जानने में नुकसान नहीं है लेकिन हिन्दी में आप वही पढ़ेंगे जो उपलब्ध है। मेडिकल और इंजीनियरिंग की अनूदित किताबें पढ़कर डॉक्टर इंजीनियर बनना भले आसान हो जाए पर क्या आप समय के साथ चल पाएंगे। आपको अंग्रेजी नहीं आएगी तो कोई नया इलाज या नया तरीका आप तभी जानेंगे जब उसका अनुवाद हो जाएगा। और इस लिहाज से अनुवाद का काम कितना महत्वपूर्ण है वह आप समझ सकते हैं पर क्या अच्छे और द्रुत अनुवाद के लिए कुछ हो रहा है। शायद नहीं। फिर भी हर साल हिन्दी दिवस पर हिन्दी का प्रचार होता है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें अंग्रेजी का विरोध ज्यादा होता है हिन्दी का प्रचार कम। क्योंकि हिन्दी का प्रचार करने के लिए कुछ है ही नहीं। नहीं भी किया जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

हम यह बात ऐसे ही नहीं कह रहे है। अगर आप हिन्दी जानते हैं तो हिन्दी में उपलब्ध सामग्री को पढ़ समझ सकते हैं। पर आप अंग्रेजी नहीं जानते हैं तो अंग्रेजी में जो उपलब्ध है उसका फायदा नहीं उठा सकेंगे। उसके अनुवाद का इंतजार करना पड़ेगा और वह अच्छा हो, समय पर मिल जाए इसके लिए आप कुछ नहीं कर सकते हैं। जबकि अंग्रेजी सीखकर आप इस समस्या से मुक्त हो सकते हैं। यही नहीं अगर आप अंग्रेजी नहीं जानते हैं या केवल हिन्दी जानते हैं तो आपका कार्यक्षेत्र केवल हिन्दी और हिन्दी भाषी क्षेत्र हो सकता है जिसे अब गोबर पट्टी भी कहा जाता है। पहले नाम के आधार पर इन्हें बीमारू राज्य कहा जाता था लेकिन बाद में उसे बीमार शब्द से जोड़ दिया गया और इसे अपमानित करने वाला नाम कहा जाता है। दूसरी ओर, यहां की गोभक्ति, गोबर और गो मूत्र की पवित्रता का प्रचार इसे गोबर पट्टी जैसा हिन्दी वाला नाम देते हैं। दूसरी ओर, अंग्रेजी सीखते ही आप दुनिया भर में कहीं भी रहने लायक हो जाते हैं।

आपको अंग्रेजी का विरोधी या गोबरपट्टी में जन्म लेने वाला, उसे मातृभूमि कहने वाला बनाने के लिए आपको धरती माता की बजाय भारत माता का लाल बनाया जाता है और फिर कहा जाता है कि केरल के लोग गो मांस खाते हैं या अंग्रेजी बोलते हैं। इसलिए आपसे अलग है। वहां के लोग विदेशों में कमाते हैं इसलिए उनके पास ज्यादा पैसे हैं। आप यहीं रहो, मंदिर बनवाओ और देश भक्ति करो। भले नौकरी न मिले। आप देश छोड़ देंगे तो धर्म विशेष की आबादी यहां बढ़ जाएगी आदि आदि। वे आग लगाने वाले लोग हैं और कपड़ों से ही पहचान लिए जाते हैं। लेकिन खुले आम गोमांस खाना स्वीकार कर चुके  किरण रिज्जू केंद्र सरकार में मंत्री हैं। उनके संस्कार उन्हें मंत्री बनने से नहीं रोकते आप अंग्रेजी पढ़ लेंगे तो देश भक्त नहीं रहेंगे या हिन्दी का नुकसान हो जाएगा या हिन्दी पिछड़ जाएगी।

आज अंग्रेजी पढ़ने-बोलने और गाय को मां नहीं मानने वालों के खिलाफ भड़काया जाता है जबकि इस राजनीति की बदौलत शुरू से आगे रहा केरल आज भी आगे हैं और पीछे रहने वाला बिहार आज भी पीछे है। साफ है कि यह राजनीति आपका भला नहीं कर रही है पर आपको उसकी अच्छा बताई जाती है। जो इस राजनीति का सच बता रहा है उसे पप्पू प्रचारित कर दिया गया है। अभी राजनीति भले-ही चिन्ता का मुख्य विषय नहीं है पर हिन्दी पर आपके पास पढ़ने के लिए व्हाट्सऐप्प विश्वविद्यालय से बाहर क्या है। अंग्रेजी का उदाहरण दे तो राम चंद्र गुहा ने हाल में प्रकाशित अपने एक आलेख में स्वतंत्रता के बाद के विषयों पर और इसलिए महात्मा गांधी को छोड़कर 50 किताबों का जिक्र किया है।

अमृत वर्ष में पढ़ने के लिए वे 75 किताबों का जिक्र करना चाहते थे पर लिखा है कि कॉलम के लिए उपलब्ध शब्द सीमा में इतनी किताबों का जिक्र संभव नहीं होगा। दूसरी ओर, हिन्दी के पाठकों को यह समझा दिया गया है कि व्हाट्सऐप्प और सोशल मीडिया से (अंग्रेजी में भी) पर्याप्त जानकारी मिल जाती है और ज्यादा कुछ पढ़ने या परेशान होने की जरूरत नहीं है। वैसे भी हमारे प्रधानमंत्री जी हावर्ड के मुकाबले हार्डवर्क को बेहतर कह चुके हैं। ऐसे में हिन्दी का पाठक पढ़ना भी चाहे तो इस स्तर या कहिये इन विषयों पर ऐसी किताबें हैं ही नहीं। अनुवाद भी नहीं। हमे नहीं पता है कि इनमें किसी किताब का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध है जबकि 50 किताबों की इस सूची में मूल हिन्दी और मराठी में लिखी गई किताबों के अंग्रेजी अनुवाद का जिक्र है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सूची ना तो पर्याप्त है और ना सर्वश्रेष्ठ है।

मुद्दा यह है कि अमृत वर्ष में आजादी के बाद के भारत को जानने के लिए अंग्रेजी की 50 किताबों की सिफारिश की जा सकती हैं तो हिन्दी में ऐसी कितनी किताबें हैं? किताबों के बिना या व्हाट्सऐप्प फॉर्वार्ड से मिले ज्ञान के आधार पर क्या हम अपने लिए सही फैसला कर सकते हैं। या अपना सही गलत भी समझते हैं? हिन्दी में इसकी कोशिश भी हो रही है? हिन्दी में जो लिखा जा रहा है, छप रहा है और बिक रहा है या अनुवाद कराया जा रहा है उससे यह बात साफ हो जाएगी। हम नहीं समझते कि हिन्दी वालों की दुनिया को हम पूरी तरह जानते है पर लगता है कि हिन्दी का समाज देश, राजनीति या भूत-भविष्य को ऐसे देखता ही नहीं है। वहां सब कुछ चलता है के अंदाज में है और इसीलिए ऐसी किताबें (कम से कम इस तादाद में) तो नहीं ही हैं। भले ही इसका कारण पाठकों की कमी हो। पर किताबें हैं नहीं, हम पढ़ने के लिए कहते नहीं हैं तो प्रगति कैसे हो?

दूसरी ओर, राम चंद्र गुहा की इस सूची से प्रभावित होने का एक कारण यह भी है कि इसमें एमएस गोलवलकर की पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स (1966) और देश राज गोयल की पुस्तक,  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस – 1979) का भी जिक्र है। उन्होंने लिखा है, हाल के समय में आरएसएस के विचारक एमएस गोलवलकर ने शायद आंबेडकर और नेहरू के प्रभाव की बराबरी की है, या उससे भी आगे निकल गए हैं, इसलिए उनके लेखन, अ बंच ऑफ थॉट्स (1966) को इस संकलन में शामिल किया है। पढ़ने वाले विषयों में आंबेडकर तो हैं ही, भारत माता कौन हैं पर भी एक किताब है – हू ईज भारत माता? हिस्ट्री, कल्चर एंड द आइडिया ऑफ इंडिया: राइटिंग्स बाय एंड ऑन जवाहरलाल नेहरू (2019), पुरुषोत्तम अग्रवाल द्वारा संपादित।

हिन्दी वालों को क्या इन किताबों और इनके ज्ञान की जरूरत नहीं है?

स्वतंत्रता के अमृतवर्ष में पढ़ने और भारत को जानने के लिए रामचंद्र गुहा की 50 पुस्तकों की सूची निम्नलिखित है। हिन्दी पढ़ने और हिन्दी के कमजोर न होने जैसी बातें करने वाले लोग हिन्दी में ऐसी पठनीय सामग्री का कोई स्रोत बता सकते हैं। अगर नहीं है तो क्या यह नहीं मान लेना चाहिए कि हिन्दी जानना एक चीज है और अंग्रेजी नहीं जानना उससे बिल्कुल अलग दूसरी चीज है। कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दी में ऐसी पाठ सामग्री उपलब्ध नहीं है इसका मतलब यह नहीं है कि इसकी जरूरत ही नहीं है। दरअसल राजनीति ने हिन्दी वालों का एक ऐसा वर्ग बनाया है जिसे व्हाट्सऐप्प और सोशल मीडिया के जरिए डिब्बांबद जानकारी दी जा रही है और ऐसे जानकारों तथा  विद्वानों का उपयोग देश को बर्बाद करने वाली राजनीति के लिए किया जा रहा है। जैसा पहले कहा है, अंग्रेजी नहीं जानने वालों की दुनिया बहुत छोटी है, कुंए के मेढ़क की तरह। अगर हिन्दी का भला करना है तो प्रचारकों को चाहिए कि हिन्दी में वह सब उपलब्ध कराएं जो अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं में है। इसके बिना हिन्दी वाले इसी चिन्ता में मरते रहेंगे कि मंदिर क्यों नहीं बन रहा है और मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़ रही है तो क्या-क्या हो जाएगा। उसे अपनी नौकरी और धंधे कारोबार की चिन्ता नहीं है। उसकी प्राथमिकता ही अलग है।

  1. Granville Austin’s The Indian Constitution: Cornerstone of a Republic (1966)
  2. Niraja Gopal Jayal’s Citizenship and Its Discontents: An Indian History (2013)
  3. V.P. Menon’s TheStory of the Integration of the IndianStates (1956)
  4. Robert D. King, Nehru and the Language Politics of India (1997)
  5. Walter Crocker, Nehru: A Contemporary’sEstimate (1966)
  6. Rajmohan Gandhi, Patel: A Life (1990),
  7. Katherine Frank, Indira: The Life of Indira Nehru Gandhi (2001),
  8. C.P. Srivastava, Lal Bahadur Shastri (1995),
  9. Dhananjay Keer, Ambedkar (1954; revised edition,1990),
  10. Allan and Wendy Scarfe, JP: His Biography (1975; revised edition,1998),
  11. Ellen Carol Dubos and Vinay Lal, editors, A Passionate Life: Writings by and on Kamaladevi Chattopadhyay (2017).
  12. Rajni Bakshi, Bapu Kuti: Journeys in Rediscovery of Gandhi (1998).
  13. The Essential Writings of B.R. Ambedkar(2002), edited by Valerian Rodrigues,
  14. Who is Bharat Mata? History, Culture and the Idea of India: Writings by and on Jawaharlal Nehru (2019), edited by Purushottam Agrawal
  15. A Bunch of Thoughts (1966) – M.S. Golwalkar.
  16. The Oxford Companion to Indian politics, edited by Niraja Gopal Jayal and Pratap Bhanu Mehta (2010).
  17. How India became Democratic – Ornit Shani, (2017).
  18. When Crime Pays: Money and Muscle in Indian Politics – Milan Vaishnav (2017)
  19. Rashtriya Swayamsewak Sangh – Des Raj Goyal (1979).
  20. India’s Political Economy, 1947-2004 – Francine Frankel (2005)
  21. The Struggle and the Promise: Restoring India’s Potential – Naushad Forbes(2022).
  22. Srinath Raghavan, War and Peace in Modern India (2009)
  23. Shiv Shankar Menon, Choices: Inside the Making of India’s Foreign Policy(2016).
  24. India Versus China: Why They are Not Friends Kanti Bajpai (2021).
  25. Rethinking Public Institutions in India – Devesh Kapur, Pratap Bhanu Mehta, and Milan Vaishnav, editors, (2019)
  26. Steven Wilkinson’s Army and Nation: The Military and Indian Democracy (2015).
  27. Robin Jeffrey, India’s Newspaper Revolution: Capitalism,Politics and the Indian Language (2000).
  28. M.N. Srinivas’s The Remembered Village (1977),
  29. Patronage and Exploitation (1974), by Jan Breman.
  30. Mushirul Hasan, Legacy of a Divided Nation: India’s Muslims Since Independence(1997);
  31. Nandini Sundar, editor, The Scheduled Tribes and their India (2016).
  32. Robin Jeffrey’s Politics, Women and Well-Being: How Kerala became ‘A Model’ (1992)
  33. Narendra Subramanian’s Ethnicity and Populist Mobilization (1999),
  34. D.R. Nagaraj,The Flaming Feet and Other Essays:The Dalit Movement in India (2010)
  35. Radha Kumar, A History of Doing: An Illustrated Account of Movements for Women’s Rights and Feminism (1993)
  36. Christophe Jaffrelot, India’s Silent Revolution (2003);
  37. Shekhar Pathak, The Chipko Movement: A People’s History (2020).
  38. Sisir Gupta’s Kashmir: A Study in India-Pakistan Relations (1965),
  39. Northeast, Sanjib Baruah, In the Name of the Nation: India and its North East (2020)
  40. Nandini Sundar, The Burning Forest (2016).
  41. Jean Drèze, Sense and Solidarity: Jholawala Economics for Everyone (2017)
  42. André Béteille,Chronicles of Our Time (2000)
  43. Katherine Boo, Behind the Beautiful Forevers (2012),
  44. P. Sainath, Everybody Loves a Good Drought,
  45. Rajdeep Sardesai, 2019: How Modi Won India (2020),
  46. Mark Tully, No Full Stops in India (1991),
  47. Sujatha Gidla, Ants among Elephants (2017)
  48. Om Prakash Valmiki’s Joothan, translated from Hindi into English by Arun Mukherjee (2004)
  49. Padma Desai, Breaking Out (2012)
  50. Malika Amar Shaikh, I Want to Destroy Myself, translated by Jerry Pinto from Marathi (2019).

इस सूची की खासियत यह है कि शुरुआत भारतीय संविधान बनाने के समय हुई चर्चा से संबंधित एक महत्वपूर्ण कृति से हुई है। इसके साथ पढ़ने के लिए नागरिकता और उसके असंतोष पर 2013 में प्रकाशित पुस्तक का उल्लेख किया गया है। एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में शुरू के दशक में जो सबसे महत्वपूर्ण काम हुआ है वह था रियासतों और रजवाड़ों का भारत में विलय और राज्यों का गठन। इसपर 1956 की किताब, द स्टोरी ऑफ दि इंटीग्रेशन ऑफ इंडियन स्टेट्स का नाम है। इसे वीपी मेनन ने लिखा है जिन्होंने सरदार पटेल के साथ मिल कर काम किया था। भाषा के सवाल पर 1997 की किताब, रॉबर्ट डी. किंग की, नेहरू एंड द लैंग्वेज पॉलिटिक्स ऑफ इंडिया (1997)।

ऐतिहासिक हस्तियों की आत्मकथाओं में नेहरू: अ कंटेम्पररीज़ एस्टीमेट – वाल्टर क्रोकर (1966), पटेल: अ लाइफ – राजमोहन गांधी (1990), इंदिरा: द लाइफ ऑफ इंदिरा नेहरू गांधी – कैथरीन फ्रैंक (2001), लाल बहादुर शास्त्री – सी.पी. श्रीवास्तव (1995), आम्बेडकर – धनंजय कीर (1954; संशोधित संस्करण, 1990), जेपी: हिज बायोग्राफी – एलन और वेंडी स्कार्फ, (1975; संशोधित संस्करण, 1998) और कमलादेवी चट्टोपाध्याय पर तथा उका लेखन (2017) शामिल है। गुहा ने लिखा है, चूंकि महात्मा गांधी की मृत्यु स्वतंत्रता के तुरंत बाद हो गई थी, इसलिए मैं उनकी जीवनी की सिफारिश नहीं कर रहा हूं। हालांकि, उनके स्थायी प्रभाव में रुचि रखने वालों को रजनी बख्शी, बापू कुटी: जर्नी इन रिडिस्कवरी ऑफ गांधी (1998) पढ़ना चाहिए।

स्वतंत्र भारत में राजनीतिक प्रक्रिया का एक उत्कृष्ट अवलोकन से लेकर भारत ने वयस्क मताधिकार को कैसे और क्यों अपनाया और चुनावी राजनीति पर व्हेन क्राइम पेज़: मनी एंड मसल इन इंडियन पॉलिटिक्स – मिलन वैष्णव (2017) का जिक्र है। स्वतंत्रता के बाद से देश की आर्थिक नीति का इतिहास जानने के लिए फ्रांसिन फ्रेंकल की किताब, इंडियाज पॉलिटिकल इकनोमी (भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था) 1947-2004 की सिफारिश की गई है। वर्तमान में भारत की आर्थिक चुनौतियों पर, नौशाद फोर्ब्स की किताब, द स्ट्रगल एंड द प्रॉमिस: रेस्टोरिंग इंडियाज पोटेंशियल (2022)  निश्चित रूप से पढ़ने लायक होगी। भारतीय रक्षा नीति और विदेश नीति के उत्कृष्ट अवलोकन के लिए क्रम से श्रीनाथ राघवन की वॉर एंड पीस इन मॉडर्न इंडिया (2009) और शिव शंकर मेनन की चॉइस: इनसाइड द मेकिंग ऑफ इंडियाज फॉरेन पॉलिसी (2016) की सिफारिश की गई है।

हमारे महान एशियाई पड़ोसी के साथ हमारे जटिल संबंधों पर, कांति बाजपेयी की किताब भारत बनाम चीन: व्हाई दे आर नॉट फ्रेंड्स (2021) को पढ़कर शायद, “न कोई हमारी सीमा में घुसा, न ही पोस्ट किसी के कब्जे में है” का सच पता चले। वरना गोदी मीडिया ने तो चीन को कई बार वापस भेजा जबकि वह घुसा ही नहीं था।किसी भी देश के लिए संसद, सर्वोच्च न्यायालय और सिविल सेवा जैसी संस्थाओं का अलग महत्व है। इस विषय पर एक उपयोगी किताब देवेश कपूर, प्रताप भानु मेहता और मिलन वैष्णव द्वारा संपादित, रीथिंकिंग पब्लिक इंस्टीट्यूशंस इन इंडिया (2019) हैं। एक किताब आर्मी एंड नेशन : द मिलीट्री एंड इंडियन डेमोक्रेसी (2015) है। राम चंद्र गुहा ने लिखा है कि भारत में मीडिया एक और महत्वपूर्ण संस्था है, जिसका मोदी-पूर्व (या पूर्व-गोदी) युग में विकास का विश्लेषण रॉबिन जेफरी ने इंडियाज न्यूजपेपर रेवोल्यूशन: कैपिटलिज्म, पॉलिटिक्स एंड द इंडियन लैंग्वेज (2000) में किया गया है।

आधुनिक भारत में सामाजिक संरचना और सामाजिक परिवर्तन पर किये गये कुछ कार्यों पर भी विचार किया गया है। इनमें एक पुस्तक. संरक्षण और शोषण (1974), एक डच विद्वान, जान ब्रेमन की है। स्वतंत्र भारत में मुसलमानों की स्थिति और दुर्दशा पर, मुशीरुल हसन की किताब, के नाम का हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होगा, एक विभाजित राष्ट्र की विरासत: स्वतंत्रता के बाद से भारत के मुसलमान (1997); आदिवासियों की स्थिति और दुर्दशा पर, नंदिनी सुंदर, संपादक, अनुसूचित जनजाति और उनका भारत (2016) भी है। भारत के बारे में जानने के लिए टकराव वाले क्षेत्रों के बारे में भी जानना जरूरी है। और इससे संबंधित कुछ किताबें भी सूची में हैं। उदाहरण के लिए, शिशिर गुप्ता की किताब,  कश्मीर: ए स्टडी इन इंडिया-पाकिस्तान रिलेशंस (1965) है। अशांत और उथल-पुथल वाले क्षेत्र पर, संजीब बरुआ की किताब, इन द नेम ऑफ द नेशन : इंडिया एंड इट्स नॉर्थ ईस्ट (2020) का नाम है। मध्य भारत में माओवादी विद्रोह और इसके व्यापक प्रभावों पर, नंदिनी सुंदर की किताब, द बर्निंग फ़ॉरेस्ट (2016) सूची में है।

अभी तक जिन किताबों की चर्चा हुई ये सब गहने शोध वाले कार्य हैं और फुटनोट व  संदर्भों के साथ हैं। आइए अब कुछ ऐसी किताबों की चर्चा करूं जो लोकप्रिय हैं और जाने-पहचाने पत्रकारों या हस्तियों की लिखी हैं। एक किताब ज्यां द्रेज़ की है, सेंस एंड सॉलिडेरिटी: झोलावाला इकोनॉमिक्स फॉर एवरीवन (2017) और आंद्रे बेतेले की किताब, क्रॉनिकल्स ऑफ अवर टाइम (2000)। दोनों ही पुस्तकें आम पाठकों के लिए जीवन भर के शोध और छात्रवृत्ति के लिए प्राप्त सूचनाएं प्रस्तुत करती है। अब अंत में पत्रकारों की चार अच्छी किताबें। ये हैं – कैथरीन बू की बिहाइंड द ब्यूटीफुल फॉरएवर (2012), मुंबई की एक झुग्गी बस्ती में जीवन का शानदार चित्रण; पी. साईनाथ की किताब, एवरीबॉडी लव्ज अ गुड ड्रॉट; राजदीप सरदेसाई की 2019: हाउ मोदी वन इंडिया (2020), हमारे सबसे हालिया आम चुनाव की एक रिपोर्टर की कहानी; और मार्क टली, नो फुल स्टॉप्स इन इंडिया (1991), किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा परस्पर जुड़े निबंधों की एक श्रृंखला है जो शायद सबसे अधिक प्रशंसित विदेशी पत्रकार हैं जिन्होंने ने हमारे देश में लंबे समय तक काम किया है।

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