राजस्थान की धरती अब तपने लगी है। इस मरुप्रदेश को ‘धरती धोरा री’ भी कहा जाता है यानी रेतीले टीलों की धरती। रेगिस्तान मे दूर-दूर तक फैली रेत को जब मुट्ठियां भींच कर थामने की कोशिश की जाती है तो वह और भी तेज़ी से फिसलने लगती है। सचिन पायलट के हाथ से भी यह रेत यूं ही फिसल रही है। एक नौजवान और सक्रिय नेता के हाथ से रेत का फिसलना कोई नई बात नहीं होती है लेकिन हालिया फिसलन से उनकी छवि ऐसी बनी है जैसे उनका पंजा किसी और के हाथों में खेल रहा हो। पायलट ने जो तीर अभी चलाया है वह अशोक गहलोत सरकार की दिशा में तो तना हुआ है ही, पूर्व मुखमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को भी निशाने पर लेता हुआ दिखाई दे रहा है। पायलट कह रहे हैं कि हमें चुनाव में जाने से पहले वह वादा पूरा करना चाहिए जिसमें हमने वसुंधरा सरकार पर भ्रष्टाचार के इल्ज़ाम लगाए थे और जांच की बात की थी। ध्यान देने वाली बात यह है कि पायलट वसुंधरा का नाम ले रहे हैं, भाजपा सरकार का नहीं। इस बढ़िया चाल के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वंदे भारत ट्रेन के साथ-साथ मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भी हरी झंडी दिखा देते हैं जिसकी बराबरी फिर गहलोत ने एक ट्वीट से की। दरअसल जयपुर से दिल्ली की ओर चलने वाली वंदे भारत ट्रेन को प्रधानमंत्री वर्चुअली हरी झंडी दिखा रहे थे जिसमें गहलोत ने भी शिरकत की थी ।
वसुंधरा राजे सिंधिया के भ्रष्टाचार की जांच की मांग करते हुए पायलट मंगलवार को अनशन पर बैठ जाते हैं, वहीं बुधवार को पीएम गहलोत की तारीफ़ के पुल बांध देते हैं और देश की पुरानी सरकारों पर तंज़ भी कसते हैं । यहां तक कि वे उन्हें ‘अच्छा दोस्त’ कहने से भी नहीं चूकते। यह भी कह जाते हैं कि राजनीतिक संकट के बीच भी वे कार्यक्रम में शामिल हुए। प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम लेकर कहा कि “जो काम आज़ादी के तुरंत बाद होने चाहिए थे, वे भी आपने मुझे कहे, यही हमारी मित्रता की ताक़त है।” संभव है कि इन तीनों की पिच अलग-अलग हो लेकिन पीएम इस पिच पर भी जब सरलता से चौके-छक्के जड़ जाएं तो पटकथा लेखक कौन हैं, यह जानने की चेष्टा स्वाभाविक है।अगर इस पटकथा के लेखक स्वयं राजस्थान के पूर्व उप मुख्यमंत्री और पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट ही हैं तो वे कोई अच्छे लेखक नहीं मालूम हो रहे। उनकी कोशिश आलाकमान को फिर से झिंझोड़ने की है कि “मैं अब भी इंतजार में हूं।” ये अंतिम मौका है कि उन्हें पूरा राजपाट न सही, कुछ गांव तो दिए ही जाएं। वे नहीं चाहते कि कोई उन्हें नजरंदाज करने की भूल करे। महात्मा गांधी और ज्योतिबा फुले की तस्वीरों के साथ हुए इस अनशन में कोई विधायक या मंत्री नहीं बुलाए गए थे। कोई पार्टी चिन्ह भी नहीं था।
गहलोत ने मोदी की बात का क्या जवाब दिया, यह बतलाने के पहले यह बताना भी ज़रूरी है कि पायलट के अनशन के तमाम सवालों को वे टाल गए और कहा कि “मेरा लेफ़्ट-राइट कहीं ध्यान नहीं है, सिर्फ महंगाई दूर करने के लक्ष्य पर है। इसलिए राहत कैंप लगा रहे हैं।” पिछली बार की गलती को उन्होंने नहीं दोहराया जब उन्होंने एक पत्रकार के उकसाने पर पायलट को ‘गद्दार’ कह दिया था। अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच अनबन उस समय बेपर्दा हुई थी जब साढ़े चार साल पहले आए चुनावी नतीजों के बाद अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया गया था। पायलट और उनके समर्थकों को उम्मीद थी कि यह पद उन्हें मिलेगा। यह पहली टीस थी। सचिन पायलट ही प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी थे लेकिन उन्हें उप मुख्यमंत्री पद से संतोष करना पड़ा जो वे शायद कभी बर्दाश्त कर ही नहीं पाए। पायलट की यह शिकायत लगातार बनी रही कि उन्हें सरकार के फ़ैसलों में शामिल नहीं किया जाता। बीच-बीच में दिल्ली से आलाकमान आते और कभी दोनों नेताओं को मोटर बाइक पर साथ बैठाते तो कभी मुस्कुराते हुए एक फ्रेम में लाते लेकिन चिंगारी सुलगती रही। पायलट रूठ कर मानेसर चले गए। उनके साथ इकाई और दहाई के बीच में गिने जा सकने वाले विधायक भी। वे क्या गए कि गहलोत सरकार ही हिल गई। एक महीने से भी ज़्यादा समय तक बाड़े में बंद होकर उन्होंने अपनी सरकार बचाई। फिर रूठे पायलट को आलाकमान ने मना लिया लेकिन उनका पद और रुतबा जाता रहा। उनसे उनके दोनों पद- उप मुख्यमंत्री और पीसीसी अध्यक्ष के छिन गए। फिर भी वे पार्टी में बने रहे। उनसे कहा गया कि सही मौके का इंतज़ार करें। यह सही मौका आ ही रहा था कि सीएम गहलोत कई विधायक विद्रोही हो गए। उन्हें लग रहा था कि अबकी बार पार्टी आलाकमान उन्हीं बागी को मुख्यमंत्री बनाने जा रहा है। सीएम, विधायक, सरकार सब संदेह में घिर जाते हैं। रहा सवाल जनता का तो उसे सचिन पायलट से भी अपेक्षा है कि वह खुलकर मानेसर जाने की बात साफ़ करेंगे।
राजस्थान के साथ आलाकमान से जुड़ा अजीब संकट यह भी है कि कभी वह गहलोत को बड़ी राष्ट्रीय ज़िम्मेदारी सौंपना चाहता है तो कभी पायलट को, लेकिन ऐसा कभी हो नहीं पाता और दोनों प्रदेश की राजनीति में ही रोजड़े (नील गाय) की तरह सींग लड़ाए रहते हैं। आज भले ही मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए हों लेकिन पहली पसंद अशोक गहलोत थे। उन्हें शायद यह पद कांटों का ताज लग रहा था जो एक राज्य की सत्ता के एवज में उन्हें दिया जा रहा था। गहलोत को शायद यह आशा थी कि जीतने के बाद राजस्थान की सत्ता उनके ही किसी विश्वासपात्र को सौंप दी जाएगी लेकिन समर्थक विधायकों ने बग़ावत कर दी क्योंकि उन्हें ऐसे संकेत मिले कि दिल्ली से अजय माकन और मल्लिकार्जुन खड़गे की जो टीम आई है वह उनका मत जानने नहीं बल्कि सचिन पायलट का नाम लेकर आई है। गहलोत समर्थक इन नेताओं की बैठक में शामिल न होकर संसदीय मामलों के मंत्री शांति धारीवाल के घर जुट गए। इसे कांग्रेस आलाकमान के नेतृत्व को चुनौती माना गया। कुछ का यह भी मानना था कि गहलोत भले ही आलाकमान के नुमाइंदों के साथ विधायकों का इंतज़ार कर रहे थे लेकिन उनकी विधायकों को शह थी। फिर पर्यवेक्षक अजय माकन ने भी बग़ावत को अनुशासनहीनता मानते हुए राजस्थान प्रदेश कांग्रेस प्रभारी के पद से इस्तीफा दे दिया था। राजस्थान सरकार को देख यही लगता है कि उसे विपक्ष से कम पक्ष से ज़्यादा खतरा है।
अब नए प्रभारी सुखजिंदर सिंह रंधावा हैं। वे सफ़ाई दे रहे हैं कि राजस्थान को पंजाब नहीं बनने देंगे। भ्रष्टाचार पर पायलट का मुद्दा भले ही सही हो लेकिन मुद्दा उठाने का तरीका गलत है। पायलट को लेकर पहले ही अनुशासनहीनता की कार्रवाई होनी चाहिए थी, जो उस वक्त नहीं हुई। अब होगी। विश्लेषक राजस्थान के हालात की व्याख्या कर रहे हैं कि सचिन पायलट किसी बड़े फ़ैसले पर जाने से पहले अंतिम कोशिश कर रहे हैं। यह चुनावी साल है और कहा जा रहा है कि पायलट जहाज से उतर गए तो अच्छे संदेश नहीं जाएंगे। पायलट के अनशन स्थल पर भी “संदेशे आते हैं, हमें तड़पाते हैं..” यही गीत बज रहा था। क्या वाक़ई यदि पायलट को पांच गांव भी नहीं दिए गए तो राजस्थान की राजनीति में कुरुक्षेत्र का संग्राम होगा? कौरवों से पांडवों ने पांच गांव ही तो मांगे थे । दरअसल इस कहानी में पायलट के प्रति हमदर्दी हो सकती थी जो प्रारंभ में देखी भी गई, लेकिन अन्याय के अध्याय इतने दर्द भरे नहीं हैं कि बहुत ज़्यादा विधायक या मंत्री उनके साथ खड़े हों। अंततः लोकतंत्र जनशक्ति से जुड़ा है। अशोक गहलोत इस व्यवस्था के माहिर खिलाड़ी हैं। इस बार वे सचिन पायलट के मामले में भी चुप हैं लेकिन प्रधानमंत्री को प्रत्युत्तर दिया है कि मुझे दुःख है कि आपका मेरी मौजूदगी में तमाम रेल मंत्रियों के कार्यकाल के फैसलों को भ्रष्टाचार और राजनीति से प्रेरित बोलना दुर्भाग्यपूर्ण है। रेलवे का महत्व तो आपने अपने कार्यकाल में रेलवे बजट को समाप्त कर घटाया है। आज अधुनिक ट्रेन चल पा रही है क्योंकि डॉ मनमोहन सिंह जी ने 1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीति को लागू किया था।
चुनावी साल में अशोक गहलोत ने मोदी की ही तरह राजस्थान के निवासियों को मिशन 2030 का लक्ष्य दे दिया है। चिरंजीवी बीमा योजना, पुरानी पेंशन योजना को लागू करने जैसे फैसलों ने उन्हें चर्चित सीएम तो बना दिया है और तमाम अड़चनों के बाद बेहद ज़रूरी विधेयक कि हर राजस्थानी को स्वास्थ्य का अधिकार मिले, राष्ट्रपति के पास मंज़ूरी के लिए जा चुका है। यह उन राज्यों के लिए भी सबक है जो चुनाव से चंद महीने पहले बहनों को लाड़ली बता कर उनके खातों में एक-एक हज़ार रूपए डाल रहे हैं। चुनाव जीतते ही ऐसा करने की बजाय नए चुनाव जीतने के ठीक पहले ऐसी रेवड़ीनुमा नीतियों और असल लोकतान्त्रिक नीतियों में यही फर्क होता है। लोकतंत्र आख़िरी व्यक्ति तक सरकार के पहुँचने की प्रक्रिया है न कि तत्काल लाभ देकर चुनाव जीत लेने का नुस्खा। देश चुनावी प्रजातंत्र की बजाय उदार और जन कल्याणकारी लोकतंत्र से किनारा न कर ले, यह देखना भी संवैधानिक संस्थाओं का काम है- यही पहला कर्तत्व भी। नेता तो लड़ते आए हैं, लड़ते रहेंगे।