आज के अखबारों में राजद्रोह कानून पर सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई की खबर लीड है। इसके साथ केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू की एक टिप्पणी भी अलग-अलग शीर्षक से छपी है। इसमें वे कहते हैं कि किसी को भी लक्ष्मण रेखा पार नहीं करनी चाहिए। द हिन्दू की खबर के अनुसार, … अदालतों को सरकार और विधायिका का सम्मान करना चाहिए वैसे ही जैसे सरकार कोर्ट का करती है।
रिज्जू के इस दावे के साथ दि हिन्दू ने बताया है कि नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय दंड संहिता की इस धारा 124ए के तहत 2015 से 2020 के पांच वर्षों में 356 मामले दर्ज हुए और 548 लोगों को गिरफ्तार किया गया। पर सिर्फ छह जनों को सजा हुए।
अखबार ने इसके कुछ उदाहरण दिए हैं
- जनवरी 2020 में बच्चों के एक नाटक को लेकर स्कूल पर राजद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया गया था।
- बैंगलोर में रहने वाली, पर्यावरण कार्यकर्ता 21 साल की दिशा रवि को दिल्ली पुलिस ने 14 फरवरी 2021 को गिरफ्तार कर लिया। उसपर किसानों के लिए कथित रूप से एक टूलकिट बनाने और बांटने का आरोप था।
- आगरा में पढ़ने वाले तीन कश्मीरी छात्रों को 28 अक्तूबर 2021 को गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उन्होंने कथित रूप से व्हाट्सऐप्प स्टेट पोस्ट किया था जिसमें टी20 क्रिकेट मैच में भारत से जीतने वाले पाकिस्तानी खिलाड़ियों की प्रशंसा की गई थी।
30 मार्च को इलाहाबाद हाईकोर्ट से जमानत मिलने के बाद भी ये 26 अप्रैल तक जेल में रहे क्योंकि स्थानीय गारंटर उपलब्ध नहीं थे, सुरक्षा राशि ज्यादा थी और पुलिस जांच नहीं हो पाई। दो और उदाहरण कन्हैया कुमार और शर्जिल इमाम के हैं। राजस्थान पत्रिका में उमर खालिद का भी नाम है।
यह दिलचस्प है कि दूसरे अखबारों ने राजद्रोह के मामलों का उल्लेख नहीं किया है और सरकार या किरण रिजिजू को अपनी बात रखने या प्रचारित करने का भरपूर मौका दिया है। दूसरी ओर हिन्दुस्तान टाइम्स ने छापा है कि सुप्रीम कोर्ट की इस कार्रवाई से सबसे पहले टीवी एंकर को राहत मिली है। एंकर अमन चोपड़ा के मामले में हाईकोर्ट ने राज्य पुलिस को निर्देश दिया है कि इस कानून के तहत मामले की जांच न की जाए।
द टेलीग्राफ ने इस खबर का शीर्षक लगाया है, राजद्रोह की पर-पीड़ा से खुश होने वालों (के गले) में पट्टा। ऊपर फ्लैग शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट ने अगर-मगर के बिना स्टे लगाया, केंद्र ने विरोध किया लेकिन कानून पर पुनर्विचार के अपने ही वादे में फंस गई।
इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक इसके मुकाबले सिर्फ सूचना देता है, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र के पुनर्विचार तक राजद्रोह के मामलों पर कार्रवाई टाली, कहा पीड़ित राहत मांग सकते हैं। फ्लैग शीर्षक इनवर्टेड कॉमा में है, उम्मीद और अपेक्षा कीजिए कि राज्य और केंद्र कोई एफआईआर दर्ज करने से बचेंगे।
दैनिक जागरण का शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून पर लगाई अंतरिम रोक। इसके बाद आप किरण रिजिजू को पढ़ेंगे तो लगेगा कि सुप्रीम कोर्ट वाकई लक्ष्मण रेखा पर कर गई हो। यह है अखबारों और उसकी सुर्खियों की ताकत।
इस लिहाज से अमर उजाला का शीर्षक अच्छा है, देशद्रोह कानून पर लगी सुप्रीम रोक तो सरकार ने याद दिलाई लक्ष्मण रेखा। मुझे लगता है कि रिजिजू जिस लक्ष्मण रेखा की बात कर रहे हैं उसका भी स्पष्टीकरण होना चाहिए।
आखिर ये लक्ष्मण रेखा किस लक्ष्मण ने किस सीता को बचाने के लिए कब खीची थीं। कहीं वो लक्ष्मण रिजिजू ही तो नहीं हैं? उमर उजाला ने रिजिजू के बयान को, अदालत का सम्मान लेकिन … शीर्षक से छापा है।
कपिल सिबल के अनुसार, राजद्रोह के मामले में 13,000 लोग जेल में हैं। मुझे लगता है कि यह कानून ही गलत है तो राजद्रोह कौन कर रहा है – नागरिक जो जेल में हैं या सरकार जो अपने इतने सारे नागरिकों को अंग्रेजों के कानून के तहत जेल में रखे हुए है और लक्ष्मण रेखा की बात कर रही है?
लक्ष्मण रेखा कोई मानक रेखा तो है नहीं। एक काल्पनिक या पुरानी कहानी का हिस्सा है और लक्ष्मण रेखा पार करने का नुकसान सीता को तुरंत हुआ था। पार उन्होंने इ्च्छा से नहीं किया था उन्हें मजबूर किया गया था। ऐसे मामले से तुलना करके सरकार क्या कहना चाहती है। यह सब अखबारों में आना चाहिए था। बहुत सारे लोग जानना समझना चाहेंगे।
मुझे लगता है कि अगर यह कानून गलत है, इसका दुरुपयोग हो रहा है तो अखबारों को बताना चाहिए ताकि आम लोगों को लगे कि सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई सही या जरूरी है। पर आम अखबारों की खबरों से ऐसा लग नहीं रहा है। जनता कोई राय कैसे बनाएगी – व्हाट्सऐप्प यूनिवर्सिटी के ज्ञान से?
राजद्रोह कानून पर 2010 से 2021 तक का डेटा रखने वाली वेबसाइट आर्टिकल 14 के मुताबिक, इस पूरे दौर में देश में राजद्रोह के 867 केस दर्ज हुए। वेबसाइट ने जिला कोर्ट, हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, पुलिस स्टेशन, एनसीआरबी रिपोर्ट और अन्य माध्यमों के जरिए बताया है कि इन केसों में 13 हजार 306 लोगों को आरोपी बनाया गया। हालांकि, जितने भी लोगों पर केस दर्ज हुआ था, डेटाबेस में उनमें सिर्फ तीन हजार लोगों की ही पहचान हो पाई।
पहली बार नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने राजद्रोह से जुड़े केसों का डेटा 2014 से ही जुटाना शुरू किया था। हालांकि, एनसीआरबी के आंकड़ों की मानें तो 2014 से 2020 (2021 के आंकड़े उपलब्ध नहीं) के बीच राजद्रोह के 399 मामले ही दर्ज हुए हैं। आर्टिकल 14 ने इस दौरान (2014-20 के बीच) ही राजद्रोह के 557 मामले दिखाए हैं।
साफ है कि सरकार अदालत तो छोड़िये कानून का भी सम्मान नहीं कर रही थी। उनका तो बिल्कुल नहीं जिन्हें अच्छे दिन का सपना दिखाया गया था। ऐसे में अदालतों से कानून मंत्री या सरकार की यह अपेक्षा क्या राजद्रोह के दायरे में नहीं है? खासकर इसलिए कि अदालत अपना पक्ष इस तरह प्रचार माध्यमों में नहीं रख सकती है या रखती है।