विश्व में होने वाली विविध क्रांतिओं और समय-समय पर होने वाले सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन और सामाजिक सुधारों की सफलता में उस समाज के बौद्धिक वर्ग की अग्रणी भूमिका रही है। दुनिया में समय-समय पर होने वाले इन समस्त सामाजिक परिवर्तनों,सामाजिक सुधारों और सुप्रसिद्ध क्रांतिओ का कुशलता पूर्वक मार्गदर्शन बौद्धिक वर्ग (चिंतक, विचारक, दार्शनिक, साहित्यकार इत्यादि) द्वारा ही किया गया और बौद्धिक समुदाय द्वारा ही इन क्रातियों और विविध परिवर्तनो के लिए आवश्यक आधार-भूमि,पृष्ठभूमि और भावभूमि तैयार की गई और बौद्धिक समुदाय के विचारों के फलस्वरूप ही क्रांतिओ और परिवर्तनों के लिए अनुकूल परिस्थितियां निर्मित हुई।
इसके साथ ही साथ इन समस्त सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनो,सामाजिक सुधारों और क्रांतिओ को मानसिक, मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक प्रेरणा भी बौद्धिक वर्ग के महान विचारों और संघर्षों से मिली। स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व के नारे के साथ लडी गयी फ्रांसीसी क्रांति के वैचारिक बौद्धिक और दार्शनिक प्रणेता जीन जैक्स रूसो,मांटेस्क्यू और वाल्टेयर थे,अमेरिकन क्रांति के प्रणेता टामस जेफरसन,डिडेरो और फ्रेंकलिन थे,तथा सोवियत संघ में सम्पन्न होने वाली समाजवादी क्रांति को वैज्ञानिक समाजवाद के जन्मदाता कार्ल मार्क्स के क्रांतिकारी विचारों से प्रेरणा मिली थी।
सातवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक पूरी तरह अंधकार में डूबे यूरोपीय महाद्वीप में पुनर्जागरण और जनमानस में आधुनिक तार्किक वैज्ञानिक मानवतावादी चेतना का जन्म कोपरनिकस कैपलर गैलीलियो जैसे अनगिनत दूरदर्शी साहसी चिंतको और विचारकों के महान विचारों और संघर्षों के फलस्वरूप हुआ। इन दूरदर्शी विचारकों के आधुनिक विचारों ने सातवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक अंधकार में डूबे यूरोपीय महाद्वीप को आधुनिक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक समाज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कोपरनिकस कैपलर गैलीलियो के अतिरिक्त जिन अन्य महान विचारकों ने यूरोपीय महाद्वीप को बहुआयामी रूप से तरक्की की बुलंदी तक पहुँचाया उनमें जान लाॅक ,जरमी बेंथम,जान स्टुअर्ट मिल और कार्ल मार्क्स जैसे चिंतको विचारकों और दार्शनिकों के विचारों और संघर्षों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सुकरात अरस्तू प्लेटो पाइथागोरस इरेटास्थनीज जैसे अनगिनत दार्शनिकों विद्वानों और विचारकों की बहुलता के कारण ही प्राचीन यूनान को ज्ञान-बिज्ञान का पालना कहा गया।
इसी परम्परा में गुरु वशिष्ठ गुरु विश्वामित्र गुरु चाणक्य गुरु संदीपनी जैसे अपने श्रेष्ठ और महान गुरुओं और उनकी महान शिक्षाओ के कारण भारत वैश्विक स्तर पर विश्व गुरू के रूप में विख्यात रहा। गुरु विश्वामित्र गुरु संदीपनी जैसे श्रेष्ठ और महान गुरुओं के कुशल मार्गदर्शन में मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगीराज श्री कृष्ण जैसे युगों के महानायक अवतरित हुए और गुरु चाणक्य की महान शिक्षाओ ने चन्द्रगुप्त मौर्य जैसे महान चक्रवर्ती सम्राट को पैदा किया। इसी कडी में भारतीय स्वाधीनता संग्राम का महासंग्राम तत्कालीन भारतीय बौद्धिक वर्ग (शिक्षक वकील पत्रकार और प्रखर समाज सेवियों ) के मार्गदर्शन और नेतृत्व में लडा गया।
स्वाधीनता संग्राम के दौरान शिक्षकों वकीलों और पत्रकारो द्वारा ही भारतीय जनमानस को स्वतंत्रता का अर्थ और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना समझाया गया तथा स्वतंत्रता की महत्ता और स्वतंत्रता का मूल्य बोध भी शिक्षकों वकीलों और पत्रकारो द्वारा ही निराश हताश भारतीय जनमानस को कराया गया। भारतीय संविधान के निर्माण से लेकर स्वाधीन भारत के पुनर्निर्माण और विकास के लिए सर्वाधिक प्रयास और प्रयत्न भी भारत के बौद्धिक वर्ग द्वारा ही किया गया। स्वाधीनता उपरांत भारतीय जनमानस की आशाओं आकांक्षाओं और सपनों को होमी जहाँगीर भाभा विक्रम साराभाई महान कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन और वर्गीस कुरियन जैसे मेधावियों द्वारा अंतिम निष्कर्ष तक पहुँचाने और व्यवहारिक परिणति तक लाने के लिए ईमानदार प्रयास किए गए। स्वाधीनता उपरांत भारतीय शासन सत्ता के सर्वोच्च पदों को उस दौर के उच्चकोटि के प्रतिभाशाली व्यक्तित्वो ने सुशोभित किया।
डॉ राजेंद्र प्रसाद सर्वपल्ली राधा कृष्णन पंडित जवाहरलाल नेहरू कृष्णा मेनन डॉ भीम राव अंबेडकर इत्यादि सभी उच्चकोटि के प्रतिभाशाली थे। स्वाधीनता उपरांत भारतीय संसदीय राजनीति में योग्यता प्रतिभा सचरित्रता ईमानदारी और बचनबद्धता अनिवार्य और अपरिहार्य परिपाटी और परम्परा के रूप में स्थापित रही। गैर कांग्रेसी राजनीतिक पुरोधाओं डॉ राम मनोहर लोहिया आचार्य नरेन्द्र देव बलराज मधोक के अन्दर वैश्विक राजनीति की उच्चकोटि समझदारी और उत्कट मेधा शक्ति थी। प्रकारान्तर से योग्यता प्रतिभा मेधा हमारी राजनीतिक संस्कृति का अपरिहार्य तत्व थे।
परन्तु जैसे जैसे सम्पन्न्नता बढी वैसे-वैसे प्रतिभाशाली बौद्धिक समुदाय जैसे शिक्षक वकील पत्रकार और अन्य प्रखर पेशेवर बुद्धिजीवी भारतीय राजनीति में केन्द्रीय भूमिका से बाहर होते गए वर्तमान दौर में अपराधियों माफियाओ भ्रष्टाचारियो और धन्नासेठो ने इन्हें ढकेल कर परिधि पर खड़ा कर दिया हैं। 1952 के प्रथम निर्वाचित संसद से लेकर वर्तमान संसद की डेमोग्रेफी का अध्ययन किया जाय स्थितियाँ बिल्कुल भयावह नजर आती हैं। 1952 की पहली लोक सभा में चुनकर जाने वाले सदस्यों में सबसे ज्यादा संख्या शिक्षकों वकीलों और पत्रकारो की थी परन्तु उत्तरोत्तर इनकी संख्या घटती गयी। वर्तमान समय में संसद और राज्यों की विधानसभाओं में शिक्षको वकीलों पत्रकारो और अन्य बौद्धिक वर्ग की संख्या लगभग नगण्य है।
आज उनकी जगह धीरे-धीरे समाज के अपराधी माफिया बाहुबली भ्रष्टाचारी धन्नासेठ और घोर जातिवादी और साम्प्रदायिक लम्पट नेता संसद और विधानसभा के गलियारों में नजर आने लगे। यह सिलसिला निरंतर आगे ही बढता रहा और अपराध और जरायम पेशे के लोगों के उत्तरोत्तर बढते हौसले और जनता के बीच उनके प्रति बढते आकर्षण ने चम्बल के बीहड़ो में दहशत और आतंक का पर्याय बन चुके चम्बल के डकैतो को भी चुनाव में किस्मत आजमाने का हौसला दे दिया।
सदियों से भारतीय बसुन्धरा सम्पूर्ण विश्व में अपने ज्ञान,मेधा,चिंतन दर्शन और उत्कृष्ट शिक्षा और उच्चकोटि के दार्शनिकों तथा सर्वश्रेष्ठ गुरूओं के कारण ज्ञान-विज्ञान और दर्शन की भूमि के रूप में जानी जाती रही हैं। महात्मा बुद्ध महावीर जैसे दार्शनिकों न केवल भारत भूमि को अपितु अपने दार्शनिक एवम आध्यात्मिक विचारों से पूरी दुनिया को प्रभावित किया। इतिहास साक्षी है कि-भारतीय बसुन्धरा पर वही विभूतियाँ महिमामंडित होती रही हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा पराक्रम परिश्रम कुशलता कुशाग्रता हुनर और हौसले से सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन लाया।
गुरु वशिष्ठ गुरू विश्वामित्र गुरू द्रोणाचार्य और आचार्य चाणक्य की वंश परंपरा के सच्चे ध्वजवाहक वर्त्तमान दौर के शिक्षकों, इंसाफ के मन्दिर में इंसाफ, इंसानियत और इंसानी हक हूकूक की खातिर काली कोट पहनकर बहस करने वाले वकीलों, लोकतंत्र के चौथे खम्भे के स्तम्भ माने जाने वाले पत्रकारों और देश के सच्चे सचेत जागरूक बुद्धिजीवियों को आज अपनी घटती गिरती उत्तरोत्तर राजनीतिक सामाजिक हैसियत पर गहराई से आत्म-चिंतन आत्म-विश्लेषण और आत्म-मंथन करने की आवश्यकता है।
लगभग दो सौ वर्षों तक पराधीनता के दौरान इस देश के जनमानस के पराधीन मन मस्तिष्क को स्वाधीनता का अर्थ और स्वाधीनता के लिए संघर्ष करना शिक्षकों वकीलों पत्रकारों और उस दौर के सचेत बुद्धिजीवियों ने ही बताया और समझाया।आजादी के दौरान होने वाले हर तरह के आन्दोलन का नेतृत्व शिक्षकों वकीलों पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने ही किया था। इसलिए स्वाधीनता उपरांत इस देश के जनमानस ने सबसे ज्यादा भरोसा विश्वास इन्हीं शिक्षकों वकीलों पत्रकारों और बुद्धिजीवियों पर जताया और इसीलिए सत्तर के दशक तक इस देश की संसद और राज्यों की विधानसभाओ में जनता ने अपने प्रतिनिधि के रूप में चुनकर अवसर दिया। परन्तु जैसे जैसे आजादी के जश्न की ढोल नगाड़ो की थाप मद्धम पडती गई वैसे वैसे शिक्षक वकील पत्रकार और बुद्धिजीवी राजनीतिक शक्ति सत्ता और प्रभाव की मुख्य धुरी या केन्द्रीय स्थिति से परिधि पर या हासिए पर धकेल दिए गए ।नब्बे के दशक तक आते-आते कास्ट क्राइम और कैश का जादू सिर चढकर बोलने लगा।
जाति धर्म की बुनियाद पर सामाजिक अभियांत्रिकी (सोशल इंजीनियरिंग)चुनाव जीतने का सबसे आसान और अचूक फार्मूला बन गया। इसी दौरान हर जातियाँ अपनी जाति के रॉबिनहुड स्टाइल के बाहुबलियों मे अपना नायक ढूँढने खोजने लगी और देखते ही देखते बाहुबली अपनी-अपनी जातियों के रहनुमा और मसीहा बन गए। जनमानस में वर्तमान दौर के राजनेताओं की घटती लोकप्रियता विश्वसनीयता और आकर्षण ने राजनीतिक दलों को अपनी राजनीतिक रैलियां सफल बनाने के लिए रूपहले पर्दे के सितारों और सिने तारिकाओं की सहायता लेने के लिए मजबूर कर दिया।आज ग्लैमरस चेहरे राजनीतिक रैलियों के अनिवार्य अंग हो गए और अपने मजबूत राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को परास्त करने के लिए भी राजनीतिक दलो ने रूपहले पर्दे के चमकते दमकते चेहरों को बतौर उम्मीदवार चुनाव में उतारना आरम्भ कर दिया। इन बहुविवीध कारणों से भारतीय राजनीति संसदीय राजनीति की स्वस्थ्य परम्पराओं से दूर होती गई और और इक्सवी सदी के आरम्भ से ही देश की संसद और राज्यों की विधानसभाओ में सोच विचार शिष्टाचार और विषयवस्तु की दृष्टि से बहस का स्तर उत्तरोत्तर गिरता गया ।
यह सर्वविदित है कि संसद और विधान सभाओं में सुयोग्य सचरित्र ईमानदार के साथ साथ प्रतिभाशाली जब जनप्रतिनिधि बनकर संसद और विधानसभाओं में पहुँचेगे तभी देश की वास्तविक समस्याओं और जनता के बुनियादी मुद्दों पर धारदार बहस होगी और जब धारदार बहस होती है तभी जनता के पक्ष मे शानदार नीतियां बनती हैं और जनता के पक्ष में शानदार फैसले होते है। इसलिए आज शिक्षकों वकीलों पत्रकारों सहित सम्पूर्ण बौद्धिक तबके को अपनी घटती सामाजिक हैसियत और राजनीति भूमिका तथा जनमानस में उत्तरोत्तर बढती अस्वीकार्यता पर आत्म-मंथन करते हुए नये दौर की चुनौतियों के लिहाज से अपने को तैयार करना होगा ।प्रकारांतर से बौद्धिक समुदाय का सक्रिय हस्तक्षेप स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।