क्या अब स्कूल मॉडल पर नया प्रयोग करने और उसमें सुधार करने का समय आ गया है…

देश में शिक्षा के हालात पर गैर-सरकारी संगठन ‘प्रथम’ की प्रतिवर्ष पर जारी होने वाली रिपोर्ट ‘असर’ नीति निर्माताओं के लिये ही नहीं समूचे तंत्र और शिक्षाविदों के लिये भी महत्वपूर्ण होती है। हाल ही में जारी वर्ष 2022 की रिपोर्ट कोविड महामारी के बाद की परिस्थितियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां देने के साथ भविष्य की शिक्षा व्यवस्था के बारे में नया नज़रिया भी है। हालांकि कोविड महामारी के असर और उसके फिर सिर उठाने के खतरे की आशंकाओं की खबरें मीडिया में यदा-कदा आती रहती हैं किन्तु अब यह भी लगता है कि जैसे उस दुर्दान्त महामारी की याद अब किस्से कहानियों की बात बन गई है।  

महामारी के भीषणतम दौर में, और उसके उतार के दौर में बहुत कम लोगों को यह विश्वास था कि महामारी खत्म होने के बाद चीजें फिर से जल्द ही सामान्य हो पाएंगी। बहुतों को लगता था कि कोविड के बाद की दुनिया वैसी नहीं होगी जैसी उससे पहले थी। जब जीवन का समूचा कारोबार बंद था और स्कूलें तथा अन्य शिक्षण संस्थान भी पूरी तरह बंद थे ऐसे में डिजिटल प्रौद्योगिकी तथा स्मार्टफोन, ऑनलाइन शिक्षण के माध्यम के रूप में इतने मददगार स्थापित हुए कि ऑनलाइन शिक्षा को भविष्य का शिक्षण माध्यम माना जाने लगा। जब स्कूल बंद थे, तो उनसे जुड़े हुए प्रशासकों, शिक्षकों और छात्रों ने कुछ नए कौशल, अभ्यास और यहां तक कि नये विचारों को सीखा, पटखा और आत्मसात किया। इन नवाचारों में से कौन से बच गये हैं और कौन सी पुरानी आदतें फिर से जाग उठी हैं इसकी जानकारी प्रथम की नवीनतम रिपोर्ट में मिलती है। 

असर 2022 रिपोर्ट ग्रामीण क्षेत्रों में आये कई बड़े बदलावों की महत्वपूर्ण जानकारी देती है। जैसे अब वहां लगभग हर घर (95.8 प्रतिशत) के पास एक सेलफोन है, जबकि 2018 में यह 90.2 प्रतिशत लोगों के पास था। इसी अवधि में, स्मार्टफोन वाले परिवारों का अनुपात 36 प्रतिशत से दोगुना होकर 74.8 प्रतिशत हो गया है। कई राज्यों में तो यह 90 प्रतिशत से ऊपर है। इस रिपोर्ट में पिछले साल अनुमान लगाया गया था कि 67.6 प्रतिशत घरों में स्मार्टफोन हैं। एक साल के भीतर स्मार्टफोन का व्यापक तौर पर प्रसार हुआ हैं। मोबाइल फोन और स्मार्टफोन ग्रामीण परिवारों के लिए अब सामान्य बात हो गई है, जबकि अधिकांश शहरी लोगों के लिए तो यह सामान्य बात पहले ही थी। ‘असर’ के लिये उचित ही यह सवाल रहा कि स्मार्टफोन शिक्षा के लिए कितने उपयोगी हैं?  

उसकी रिपोर्ट ने पाया कि जिन बच्चों के घर में स्मार्टफोन थे, उनमें से 26 प्रतिशत की पढ़ाई के लिए उनकी पहुंच नहीं थी, जबकि 47 प्रतिशत के पास कुछ पहुंच थी। बाकी के पास हर समय पहुंच थी। इसमें कोई शक नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान गैर सरकारी संगठनों और स्कूल सिस्टम द्वारा सेल फोन और स्मार्टफोन का अलग-अलग तरह से इस्तेमाल किया गया लेकिन पहुंच का यह मुद्दा हर जगह मौजूद था। स्मार्टफोन की लोकप्रियता बढ़ने से पहले अधिकांश घरों में टेलीविजन का बोलबाला था। यह जानना दिलचस्प है कि पिछले चार वर्षों में टीवी सेट वाले परिवारों का प्रतिशत 62.5 प्रतिशत से बढ़ कर मुश्किल से 62.8 प्रतिशत तक पहुंच सका है। यह भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि घरों में पाठ्यपुस्तकों के अलावा अन्य पठन सामग्री की उपलब्धता 6.6 प्रतिशत से घटकर 5.2 प्रतिशत रह गई है। पढ़ने की जगह सुनना और देखना सामान्य हो चला है। तो क्या देखना और सुनना भावी शिक्षा प्रक्रिया का हिस्सा बन जाएगा?

यह आशंका थी कि आर्थिक परिस्थितियों के कारण बहुत से बच्चे स्कूल छोड़ सकते हैं। लेकिन यह रिपोर्ट आश्वस्त करती है कि ऐसा नहीं हुआ है। इसके बजाय, 6-14 आयु वर्ग में स्कूल में भर्ती न होने वाले बच्चों का अनुपात जो पहले ही कम ही था वह चार वर्षों में 2.8 प्रतिशत से और घट कर 1.6 प्रतिशत तक रह गया है। महामारी के बाद एक और बदलाव यह आया है कि बच्चों का एक बहुत बड़ा हिस्सा निजी स्कूलों से सरकारी स्कूलों में चला गया है। निजी स्कूल में नामांकन लगभग एक दशक से लगातार बढ़ रहा था। वर्ष 2018 में 30.9 प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में भर्ती थे मगर महामारी के बाद 2022 में घटकर वे 25.1 प्रतिशत रह गये हैं। इन 8 मिलियन या उससे अधिक बच्चों को सरकारी स्कूलों में सहजता से समायोजित हो जाना सार्वजनिक क्षेत्र के शिक्षा तंत्र की सफलता का सबूत है। मगर साथ में यह भी हुआ है कि निजी ट्यूटर्स के पास जाने वाले सरकारी और निजी दोनों स्कूलों में बच्चों का प्रतिशत पहले के 26.4 प्रतिशत से लगभग चार प्रतिशत अधिक हो गया है। यह वृद्धि सर्वत्र एक समान नहीं है लेकिन यह सभी राज्यों में हुई है। इसका मतलब है कि सरकारी और निजी स्कूलों में जाने वाले सभी ग्रामीण बच्चों में से 30 प्रतिशत अब निजी ट्यूटर्स के पास भी जा रहे हैं। ये निजी ट्यूटर्स वे युवा शिक्षित लोग हैं जो नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हुए यह काम साथ में करते हैं। 

स्कूल बंद होने के कारण बच्चों को “पढ़ाई में कमी” का सामना करना पड़ा यह एक बड़ी चिंता रही है। वर्ष 2020 में पहली कक्षा में ‘प्रवेश’ करने वाले अधिकांश बच्चों के पास पूरे एक वर्ष के लिए कोई नियमित कक्षा नहीं थी, और दूसरे वर्ष में उनका एक बड़ा अनुपात टुकड़ों टुकड़ों में स्कूल गया या बिल्कुल नहीं गया। रिपोर्ट की महत्वपूर्ण बात यह है कि स्कूल बंद होने के बावजूद बड़ी संख्या में बच्चों ने पढ़ना सीखा। ऐसा हुआ है जैसे स्कूल बंद हुए ही नहीं हों। ‘असर’ 2021 ने पाया कि लगभग 70 प्रतिशत बच्चों के पास घर पर मदद करने वाला कोई न कोई जरूर था। यह मददगार थे माता, पिता या भाई-बहन। ऐसा लगता है कि शिक्षकों ने जहां संभव हुआ सामग्री और निर्देश देने के लिए फोन किया या घर का दौरा किया या डिजिटल उपकरणों का इस्तेमाल किया। इस बात पर गहराई से शोध करने की आवश्यकता है कि स्कूल बंद होने के दौरान बच्चों ने घर पर कैसे सीखा होगा? ‘असर’ 2022 के अनुसार, आज 50 प्रतिशत से अधिक माएं और 80 प्रतिशत पिता पांच वर्ष से अधिक की शिक्षा प्राप्त किये हुए हैं। अधिकांश माता-पिता के पास स्मार्टफोन की पहुंच है और ऐसा लगता है कि उन्होंने महामारी के दौरान अपने बच्चों के सीखने के प्रयासों में सक्रिय रूप से भाग लिया है। अब शिक्षाविद् यह मनन कर सकते हैं कि क्या प्रौद्योगिकी की सहायता से कोई हाइब्रिड होम-स्कूलिंग शैक्षिक प्रणाली या भविष्य के स्कूलों के लिए कोई मॉडल तैयार या जा सकता है? महामारी के दौर ने ‘डिजिटल बैरियर’ को तोड़ दिया। ज्यों-ज्यों बच्चों तक पहुंच बनाने की आवश्यकता होती गई, सभी स्तरों पर प्रौद्योगिकी का प्रतिरोध ध्वस्त होता गया। 

महामारी ने ऑनलाइन संसाधनों/पाठ्यक्रमों तक पहुंचने के लिए शिक्षकों की क्षमता को भी बढ़ाया। डिजिटल समाधान बच्चों को सीखने के लिए संदेश, लिंक और अटैचमेंट भेजने पर निर्भर करते हैं। पाठ्यपुस्तकें और पाठ इसमें प्रमुख रहे हैं। शिक्षा प्रणाली को चालू रखने की जरूरत में, सामग्री और शिक्षाशास्त्र की कोई जगह नहीं थी। क्या अब स्कूल मॉडल पर नया प्रयोग करने और उसमें सुधार करने का समय आ गया है, इस बारे में प्रथम फाउंडेशन के अध्यक्ष माधव चह्वाण का यह कहना महत्वपूर्ण है कि “एक ऐसे मॉडल की कल्पना करना अब संभव है जिसमें स्कूल एक ऐसा स्थान बने जो एक गांव में 3-8 या 3-10 आयु वर्ग के बालक बालिकाओं के लिए डे-केयर सेंटर के रूप में कार्य करता हो तथा जहां आंशिक रूप से मूलभूत कौशल और ज्ञान सीखने को मिलता हो। इसके बाद 8-10 और 11-14 के बड़े आयु समूहों में, बच्चों के लिए उन समूहों में सीखना संभव होना चाहिए जिन्हें स्कूल शिक्षण सामग्री और प्रशिक्षकों के संसाधन मदद देते हैं। रटने की बजाय इस आयु वर्ग के लिए कौशल और सीखने के तरीकों को सीखना सबसे महत्वपूर्ण होता है। प्रौद्योगिकी का उपयोग और माता-पिता से घर पर मदद पूरी तरह से संभव है।” बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते हैं, उन्हें अधिक स्वतंत्र शिक्षार्थी बनना चाहिए, एक ‘शिक्षक’ के साथ उन्हें कम समय बिताना चाहिए और उसकी बजाय रिसोर्स पर्सन के साथ व्यक्तिगत रूप से और ऑनलाइन अधिक समय बिताना चाहिए। महामारी ने हमें स्कूली शिक्षा को अलग तरह से देखने के लिए मजबूर किया है। स्कूल प्रणाली ने इस चुनौती का सामना किया और विभिन्न समाधानों को के लिए वह लचीली भी हो गयी। इसने नए विचारों को आज़माने की आज़ादी भी दी। माधव चह्वाण कहते हैं कि अब चूंकि महामारी का कोई प्रतिबंध नहीं है, हमें नए विचारों को आजमाने और नए मानदंड बनाने के लिए बदलती मानसिकता के साथ बने रहने की जरूरत है। हम पाते हैं कि 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मकता के महत्व पर जोर देती है। यह नीति स्कूली शिक्षा के दृष्टिकोण में मानसिकता बदलने के लिए प्रोत्साहन भी करती है। इस बात के भी शुभ संकेत मिल रहे हैं कि सरकारें शिक्षा के मिशन को काफी गंभीरता से ले रही हैं। भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला युवाओं का देश है। महामारी के बाद यह नए विचारों की नई दुनिया है। ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि हम एक उदाहरण स्थापित करते हुए दुनिया को शिक्षा का एक नया मॉडल दें। 

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राजेन्द्र बोड़ा
वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।