न तो देश में पहली बार मीडिया कंपनी बेची और खरीदी गई, न ही पहली बार किसी मीडिया का मालिक बदला है और न ही पहली बार किसी पत्रकार ने इस्तीफ़ा दिया है। ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है। पर इस बार हल्ला कुछ ज्यादा है। वजह सभी जानते है। एनडीटीवी और रवीश कुमार। वैसे कंपनी बेचने और खरीदने की परंपरा काफी पुरानी है। एक बेचता है तो दूसरा खरीदता है। अदानी ग्रुप की कंपनी ने इस बार एनडीटीवी की कंपनी खरीदी है। ऐसा नहीं है की अदानी ग्रुप की कंपनी ने पहली बार कोई कंपनी खरीदी हो इससे पहले भी अदानी ग्रुप कई कंपनियां खरीद चुका है। लेकिन इस बार बात दूर तक गई है।
कहते है की पैसे से आदमी कुछ भी खरीद सकता है। लेकिन क्या खरीदना चाहिए और क्या नहीं? इस सवाल को इस बात से समझिए कि देश में केवल अदानी ही पैसे वाला पूंजीपति नहीं है, और भी कई है। वैसे अजीम प्रेम जी का नाम तो सभी ने सुना होगा, आपको बता दे कि उन्हे मीडिया कंपनियों को खरीदने के लिए नहीं बल्कि उनकी स्वतंत्रता कायम रखने और उनके बेहतर संचालन के लिए दान देने के लिए जाना जाता है। एक ट्रस्ट है जिसका नाम है Independent and public spirited Media Foundation इसके मुख्य ट्रस्टी जाने माने अभिनेता अमोल पालेकर है उक्त मीडिया फाउंडेशन फिलवक्त 27 (पत्रकारिता) संस्थानों को अनुदान दे रहा है और उक्त फाउंडेशन के मुख्य दानदाताओं में अजीम प्रेमजी का नाम शामिल है। अब सोचिए एक संस्था मीडिया की स्वतंत्रता बचाने के लिए प्रयास कर रहे है तो दूसरी क्या कर रही है।
वैसे अदानी ग्रुप को मीडिया क्षेत्र में पैसा लगाना ही था तो ऐसी कंपनियों, संस्थानों में भी पैसा लगाया जा सकता था जिन्हें लोग जनता की आवाज समझते है और जो बंद होने के कगार पर है या बंद हो चुकी है। पर उन्हे न चुनकर कमाने के उद्देश्य से किसी ऐसी कंपनी में पैसा लगाना, खरीदना, टेकओवर करना, जो अपने स्तर पर बेहतर कार्य कर रही है, तो यह व्यावसायिक तौर पर तो ठीक ठहराया जा सकता है पर सामाजिक नजरिए से नहीं।
पत्रकारिता एक सेवा है या व्यवसाय है, सेवा है तो मुनाफ़ा क्यों है और व्यवसाय है तो उत्कृष्ट कैसे? लगता है कि इस सवाल पर, चर्चा, विचार, बहस करने का समय भी निकल गया है अब तो निर्णय लेने का समय है। और निर्णय यह होना चाहिए की जिस तरह प्रधानमंत्री ने देश में रातो-रात नोटबंदी की थी, उसी तरह रातो-रात लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को गैर-लाभकारी ( Nonprofit ) बनाने की घोषणा कर दे। यक़ीन मानिए चंद गिने चुने मुनाफाखोर मीडिया कंपनियों के मालिकों को छोड़ कर कोई भी इस फ़ेसले का विरोध नहीं करेगा चाहे इस फ़ेसले से बदलाव, सुधार आने में कितना भी समय क्यों न लगे।
इसमे कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र के चोथे स्थंभ और मीडिया में जितनी भी गंदगी भरी है उसका मुख्य कारण है मुनाफ़ा। किसी भी मीडिया कंपनी को शुरू करने का मकसद यदि अन्य व्यवसाय की तरह मुनाफ़ा कमाना ही रहता है तो फिर ऐसी कंपनियाँ का सूचनाओं के नाम पर आम आदमी को लूटकर अपनी जेबे भरने का काम अनवरत जारी रहेगा। वैसे समस्याएँ इतनी ही नहीं और भी है लेकिन समाधान एक अच्छी शुरुआत से ही हो सकता है और इससे बेहतर शुरुआत क्या हो सकती है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को गैर-लाभकारी ( Nonprofit ) बनाने की घोषणा कर दी जाए। साफ नियत, देशहीत, देश के लिए जैसी बड़ी बड़ी बातों से कुछ बदलने वाला नहीं, बदलना है तो आदम के उस जमाने का सिस्टम बदलना होगा जिस जमाने मानवता के मूल्य कुछ और थे और आज कुछ और ही है।