वृद्धजनों को सहारा देने पर सोचने का समय आ गया!

हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जहां वर्तमान में वृद्ध लोगों की संख्‍या बढ़ती जा रही है। पिछले कुछ वर्षों से दुनिया की आबादी में  उच्‍च जन्‍म दर एवं उच्‍च मृत्‍यु दर के स्‍थान पर अब निम्‍न जन्‍म दर एवं निम्‍न मृत्‍यु दर की प्रवृत्‍ति देखी जा रही है जिसका परिणाम वृद्धजनों की संख्‍या और अनुपात में बहुत वृद्धि के रूप में सामने आया है। 

संयुक्‍त राष्‍ट्र की रिपोर्ट कहती है कि सभ्‍यता के इतिहास में ऐसी तीव्र, विशाल और सर्वव्‍यापी वृद्धि पहले कभी नहीं देखी गई। उसने अनुमान लगाया है कि दुनिया भर में 60 वर्ष की उम्र के लगभग 60 करोड़ व्‍यक्‍ति हैं जिनकी संख्‍या 2050 तक दो अरब तक हो जाने की संभावना है। इनमें से अधिकतर लोग विकासशील देशों के होंगे। जैसे-जैसे भारत अगले 7 वर्षों में सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने के करीब पहुंच रहा है इस देश में बढ़ती उम्र के लोगों के बारे में गंभीर चिंता करना और उस पर विमर्श करना जरूरी हो गया है। 

कुछ अध्ययनों के अनुसार, भारत पहले की तुलना में बहुत तेजी से बूढ़ा हो रहा है और 2050 तक उसकी 60 वर्ष और उससे अधिक के लोगों की आबादी कुल आबादी का लगभग 20 प्रतिशत तक हो सकती है। सरकार ने हाल ही में संसद में कहा था कि भारत में 2050 तक 60 वर्ष से अधिक आयु के 34 करोड़ लोग होंगे जो अमेरिका की कुल जनसंख्या से अधिक होंगे। यह संख्या संयुक्त राष्ट्र और हेल्पएज जैसी अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा अनुमानित संख्या से भी अधिक है। एजेंसियों ने अनुमान लगाया था कि 2050 तक भारत में 60 से अधिक की आबादी बढ़कर लगभग 32 करोड़ हो जाएगी। लोकसभा में बताया गया कि 0-14 की आबादी की वृद्धि दर धीमी हो रही है, लेकिन देश में वृद्ध लोगों की आबादी बढ़ रही है। इससे पता चलता है कि भारत जनसांख्यिकीय लाभांश खो सकता है। भारत के सामने दोहरी चुनौती खड़ी होने वाली है। एक ओर बढ़ती आबादी की जिसके लिये शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था करने की चुनौती होगी तो दूसरी तरफ वृद्धों की बढ़ी हुई आबादी की देखभाल की बड़ी चुनौती होगी क्योंकि परंपरागत संयुक्त परिवारों के टूटने से उसका सहारा घटता जा रहा है।  

हाल ही की एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होने तथा उभरती अर्थव्यवस्थाओं के समूह में हमेशा के लिए बने रहने के लिए भारत के पास अब केवल 10 वर्षों का सीमित समय है। वर्तमान में भारत की जनसांख्यिकीय लाभांश की ताकत वास्तव में 2030 तक भारत के नुकसान में बदल सकती है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की “इंडिया एजिंग रिपोर्ट 2017” पहले ही चेता चुकी है कि 60 वर्ष से अधिक आयु की जनसंख्या का हिस्सा 2015 के 8 प्रतिशत से बढ़कर 2050 में 19 प्रतिशत हो सकता है। इस रिपोर्ट का अनुमान है कि 2000-2050 के दौरान, भारत की कुल जनसंख्या में 56 प्रतिशत की वृद्धि होने की उम्मीद है, जबकि 60 से अधिक की आबादी में 326 प्रतिशत और 80 से अधिक आयु वर्ग में 700 प्रतिशत की वृद्धि होगी। वरिष्ठ नागरिकों पर राष्ट्रीय नीति बनाने के लिए बनी समिति के अनुसार दुनिया में वृद्धों की कुल आबादी का 1/8 प्रतिशत हिस्सा भारत में है। 

भारत में वृद्धों के लिए अलग से नीति 1999 में तब बनी जब उस वर्ष को संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक प्रस्ताव पास कर अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजनों के वर्ष रूप में मनाने का तय किया। यह भी सच है कि भारत के संविधान की धारा 41 वृद्ध जनों के कल्याण का भरोसा दिलाती है। यह धारा कहती है कि राज्य अपनी आर्थिक क्षमताओं और विकास की सीमाओं में वृद्धजनों को लोक सहयोग (सरकारी मदद) दिलाने के लिए प्रभावी प्रावधान करेगा। मगर हमारे यहां इस प्रावधान पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया क्योंकि भारतीय समाज में पुरातन काल से वृद्धों की सामाजिक सुरक्षा संयुक्त परिवार व्यवस्था में अति सुरक्षित रही है। लेकिन ज्यों ज्यों देश में पश्चिम की अवधारणा वाली विकास की व्यवस्था अपनाई जाने लगी और 90 के दशक में पूंजीवादी आर्थिक नीतियों को पूरी तरह स्वीकार कर लिया गया तब से नई अर्थ व्यवस्था के प्रभाव से हमारे यहां संयुक्त परिवारों का विखंडन भी शुरू हो गया और घरों में वृद्धों की सत्ता समाप्त होने लगी और नई पीढ़ी के लिए वे आर्थिक रूप से अनुपयोगिता ही नहीं हो गए बल्कि आर्थिक बोझ भी बन गए। इसी के चलते वृद्धों की देखभाल के लिए राज्य को हस्तक्षेप करना पड़ेगा। क्योंकि यह समस्या पश्चिमी सभ्यता की देन है और जिसके लिए भारतीय सभ्यता की कोई तैयारी नहीं थी इसलिए वृद्धों के कल्याण के लिए पश्चिम के रास्ते का विकल्प ही चुना जा रहा है। इसके अलावा कोई चारा भी नहीं सूझता। 

भारतीय परिवार और समाज में पहले वृद्धों का ऊंचा स्थान हुआ करता था क्यों कि उनके पास अनुभव होता था जिसका लाभ नई पीढ़ी को मिलता था। वृद्धजन तब तक के संचित ज्ञान को आगे की पीढ़ी को पहुचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। इसीलिए वे समाज में अपना विशेष  अर्थ रखते थे। मगर आज के दौर में जब आधुनिक यंत्र तकनीक और पूंजीवाद की लालच वाली विचारधारा जिसमें जीतने के लिए सब जायज होता है और जिसमें दौड़ने और गला काट प्रतिस्पर्धा की शक्ति का ही मोल होता है वृद्धजनों की वैसी उपयोगिता नई पीढ़ी के लिए नहीं रह गई है। 

नैतिकता और मानवीय रिश्तों को अपने लाभ पर तरजीह देने वाली पीढ़ी के लिए वृद्धजनों को संभालने के लिए फुरसत नहीं है। ऐसे में वृद्धजनों की ज़िम्मेदारी निभाने का संवैधानिक दायित्व राज्य पर आ पड़ा है। वृद्धजन अपने जीवन के संध्याकाल में उपेक्षित न रहें और उनके लिए रोटी पानी का इंतजाम हो, उनके स्वस्थ्य की देखभाल हो और सबसे बढ़ कर उन्हें भावनात्मक मदद मिले जिससे अपने को एकाकी नहीं महसूस करें इसी पर राज्य के नीति निर्माताओं को सोचना है और व्यवस्थाएं करनी होगी। अपने माता-पिता को नहीं संभालने वालों को कानूनी रूप से बाध्य करने और ऐसा नहीं करने वालों के लिए सजा के प्रावधान करके राज्य को अपने काम की इतिश्री नहीं समझ लेनी चाहिये। नीति निर्माताओं को इस पर भी गंभीरता से विचार करना होगा कि कैसे वृद्धों को अपने परिवारों की सुरक्षा सुनिश्चित कराई जाये। यह केवल कानून से नहीं हो सकता। 

हमारी सारी पढ़ाई लिखाई में परिवार के रिश्तों की, छोटों और बड़ों के बीच के सम्बन्धों की और परिवार और समाज के भारतीय विचार का कोई पाठ नहीं होता। शिक्षकों और छात्रों के बीच भी अब सिर्फ सेवा प्रदाता और उपभोक्ता वाला व्यावसायिक रिश्ता हो चला है। गुरु शिष्य की परंपरा तिरोहित हो चुकी है। इसीलिए हम देखते हैं कि वृद्धजनों के कल्याण की नीतियां बनाते हुए हमारे नीति निर्माता कभी वैसा भावनात्मक दृष्टिकोण नहीं रखते जिसमें भारत की माटी की गंध हो। उनके लिए उद्योगों के लिए कोई नीति बनाने और वृद्धजनों के लिए नीति बनाने में कोई फर्क नहीं होता। नीति निर्माताओं को अर्थ से सारी समस्याएं सुलझा लेने के पश्चिमी देशों के मंत्र के अलावा कुछ नहीं सूझता। उनके लिए विकास की अवधारणा में सिर्फ कामकाजी आबादी आती है। नीति निर्माता यह भूल जाते हैं कि कामकाजी आबादी के लिए वे जो तथाकथित संपन्नता या विकास ला रहें हैं वह उस पीढ़ी से भेदभाव करती है जो उम्र के उस पढ़ाव पर है जहां वे काम करने में अशक्त हो चले हैं। जहां एक तरफ नई पीढ़ी की आय बढ़ती है वहीं दूसरी तरफ मंहगाई बढ़ती है। बढ़ी आय से नई पीढ़ी तो मंहगाई से पार पा लेती है मगर वृद्धजन जिनके पास अपनी संचित जमा पूंजी के अलावा आय का कोई साधन नहीं होता वह सबसे अधिक परेशानी में हैं।   

पहले निराश्रित गरीब वृद्धों के लिए सरकारी पेंशन जैसी योजनायें बनी और फिर बच्चों पर कानूनी बाध्यता डाली गयी कि वे अपने वृद्ध माता – पिता की समुचित वित्तीय मदद करेंगे और यदि वे अपने माता – पिता को शारीरिक तकलीफ देते हैं या उनकी उचित देखभाल नहीं करते हैं तो उन्हें सजा हो सकती है। माता-पिता एवं वरिष्‍ठ नागरिकों के लिए ज़रूरत आधारित अनुरक्षण तथा उनका कल्‍याण सुनिश्चित करने के लिए दिसम्‍बर 2007 में ऐसा कानून बनाया गया। भारत सरकार ने वृद्धजनों का कल्‍याण सुनि‍श्चित करने की प्रतिबद्धता को दर्शाते हुए जनवरी, 1999 में पहली राष्‍ट्रीय वृद्धजन नीति की घोषणा की थी। इस नीति में वृद्धजनों की वित्‍तीय एवं खाद्य सुरक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य देखरेख, आवास तथा अन्‍य ज़रूरतें, विकास में बराबर की हिस्‍सेदारी, दुर्व्‍यवहार एवं शोषण से सुरक्षा तथा उनके जीवन स्‍तर में सुधार लाने के लिए सेवाओं की उपलब्‍धता सुनिश्चित करने के लिए राज्‍य की सहायता पर बल दिया गया। इसके अलावा सरकार ने एकीकृत वृद्धजन कार्यक्रम भी बनाया है जिसमें केन्‍द्रीय क्षेत्र की योजना के रूप में गैरसरकारी संगठनों के माध्यम से 1992 से वरिष्‍ठ नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतें, विशेष रूप से आवास, भोजन एवं अभावग्रस्‍त वृद्धजनों की स्‍वास्‍थ्‍य देखरेख जैसी आवश्‍यकता पूरी करके उनके जीवन स्‍तर में सुधार लाने की बात की गई है। मगर सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों के कमीनी स्तर पर हश्र हम रोज देखते हैं। नयी सदी के मध्य तक वृद्धजनों को परिवारों से नहीं राज्य से सहारा पाने की आवश्यकता होगी जिसके लिये नीति निर्माता यदि उनकी परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील होंगे तभी इस नई पैदा हो रही समस्या का हल हम अपने सांस्कृतिक परिवेश में खोज सकेंगे। वही श्रेयकर होगा।  

We are a non-profit organization, please Support us to keep our journalism pressure free. With your financial support, we can work more effectively and independently.
₹20
₹200
₹2400
Rajendra Bora Profile Photo
वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।