अर्थव्यवस्था : दुनिया पर मंडराता आर्थिक खतरा समझने की जरूरत

दुनिया पर मंडराता आर्थिक खतरा समझने की जरूरत

दुनिया की सबसे बड़ी, कामयाब और मुनाफा कमा रही टेक्नालॉजी कंपनियों ने पिछले एक बरस में 70 हजार से अधिक कर्मचारियों को नौकरी से निकाला है। इन कंपनियों में तनख्वाह की जो हालत रहती है, उसके मुताबिक बाकी कंपनियों के कर्मचारियों से वे काफी अधिक पाते हैं, और ऐसे लोगों की नौकरी जाने का एक मतलब यह भी है कि बाजार में उनका खर्च कम या बंद हो जाएगा, और अर्थव्यवस्था का चक्का घूमना कुछ धीमा हो जाएगा। इसे इस तरह देखना भी ठीक होगा कि इन कंपनियों में जो हिन्दुस्तानी काम करते थे, वे अब भारत में बसे अपने परिवारों तक पैसे नहीं भेज पाएंगे, इससे यहां के परिवार अपना खर्च घटाएंगे, कोई नई खरीदी करने की तैयारी रही होगी, तो वह भी घट जाएगी। इसलिए दुनिया में कहीं भी बड़े पैमाने पर रोजगार जाते हैं, तो दूसरे कई देशों तक भी उसका असर होता है। और रोजगार जाने का यह सिलसिला सिर्फ टेक्नालॉजी कंपनियों या अमरीकी कंपनियों तक सीमित नहीं है, यह दुनिया में तरह-तरह के देशों में तरह-तरह से हो रहा है। रूस के यूक्रेन पर हमले, और उसके बाद की जंग के चलते दुनिया की अर्थव्यवस्था बहुत बुरी तरह चौपट हुई है, और उससे भी कामकाजी देशों के सामने रोजगार की दिक्कत आ गई है, खाते-कमाते लोगों पर महंगाई की मार दिख रही है, और भुखमरी के शिकार देशों में इंसानों के कुपोषण और भूख से मरने का सिलसिला बढ़ गया है।

कल ही पाकिस्तान की एक रिपोर्ट है कि वहां से कपड़े के निर्यात में आई गिरावट की वजह से करीब 70 लाख लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया है, और वहां का कपड़ा उद्योग गर्त में चले गया है। एक वक्त यह पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में बड़ा कारोबार था, लेकिन अब न तो घरेलू ग्राहक रह गए, न ही निर्यात रह गया, और न ही उस कपास की फसल बची जिससे बना सूती कपड़ा दूसरे देशों में जाता था। पिछले बरस आई बाढ़ में पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा ऐसा डूबा कि वहां सडक़, पुल, इमारतें, गांव-कस्बे सभी कुछ बह गए या डूब गए। इस बाढ़ से साढ़े 3 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे, कपास की फसल का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो गया था, किसान तो बर्बाद हुए ही, ग्रामीण अर्थव्यवस्था बर्बाद हुई, और अब नतीजा यह दिख रहा है कि कारखानेदार भी डूब रहे हैं, और मजदूर तो नौकरी खो ही बैठे हैं। पाकिस्तान के निर्यात का आधा हिस्सा कपड़े का निर्यात था, जो ठप्प पड़ा है। नतीजा यह होगा कि देश में आने वाली विदेशी मुद्रा नहीं आएगी, स्थानीय कारखानेदारों, कारोबारियों, और मजदूरों के पास खर्च का पैसा नहीं रहेगा, और स्थानीय अर्थव्यवस्था का चक्का घूमना धीमा हो जाएगा।

हिन्दुस्तान में कुछ दिन पहले ही आई ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट को गौर से देखने की जरूरत है। इस रिपोर्ट में बताया है कि देश की 40 फीसदी दौलत सिर्फ एक फीसदी अमीर लोगों के पास है, और नीचे की आधी आबादी के पास सिर्फ तीन फीसदी दौलत है। यह रिपोर्ट बताती है कि हिन्दुस्तान के 10 सबसे अमीर लोगों की दौलत में 2021 के मुकाबले एक बरस में 32.8 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। भारत में अरबपतियों की संख्या 2020 में 102 थी, जो बढक़र 2021 में 142, और 2022 में 166 हो गई। इसके साथ यह जोडक़र देखने की जरूरत है कि देश में करीब 23 करोड़ लोग गरीबी में जी रहे हैं, जो कि दुनिया के किसी भी एक देश में गरीबों की सबसे बड़ी संख्या है। अब अडानियों और अंबानियों के साथ इन 23 करोड़ लोगों की दौलत को जब मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था के आंकड़े तैयार किए जाते हैं, तो वे सुहाने लगने लगते हैं, यह लगने लगता है कि हिन्दुस्तान दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, और तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की तरफ बढ़ रहा है। लेकिन देश के भीतर संपत्ति और साधनों के बंटवारे की हालत क्या है, इस बदहाली को न देखकर, न समझकर, महज जश्न मनाने वाले लोग ही इसे तीसरी-चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनते देख रहे हैं। आठ बरस पहले मोदी सरकार ने देश में हर बरस दो करोड़ रोजगार या नौकरियों की बात कही थी, और उसके बाद के आंकड़े बताते हैं ऐसे अच्छे दिन का वायदा अभी तक सिर्फ एक मृगतृष्णा बना हुआ है।

हिन्दुस्तान में असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की हालत खराब है। सरकारी या गैरसरकारी आंकड़े आमतौर पर संगठित क्षेत्र तक सीमित रह जाते हैं, असंगठित क्षेत्र को लेकर लोग भी कम फिक्रमंद रहते हैं, और वहां के आंकड़े भी मौजूद नहीं रहते हैं। कोरोना और लॉकडाउन के चलते हुए पिछले दो बरस से अधिक का वक्त ऐसा रहा है जिसमें असंगठित क्षेत्र के भूखों रहने की नौबत आ गई है। अब कामकाज शुरू हुआ है, लेकिन कारोबार और रोजगार में अनिश्चितता बनी हुई है। सरकार अपना कामकाज किस हद तक टैक्स की कमाई से चला रही है, और किस हद तक सार्वजनिक कंपनियों को बेचकर चला रही है, इसका आर्थिक विश्लेषण देखने और समझने की जरूरत है। हिन्दुस्तान में आज कई किस्म के आर्थिक आंकड़े लोगों के सामने रखना बंद कर दिया गया है, और बहुत किस्म के विश्लेषण अब हो नहीं पा रहे हैं।

लेकिन हम इस बात को दुहराना चाहते हैं कि दुनिया का सबसे बुरा वक्त आना अभी बाकी है। अभी बहुत से विशेषज्ञों की यह भविष्यवाणी है कि दुनिया में मंदी का दौर आने वाला है। जिस रूस-यूक्रेन जंग से दुनिया की अर्थव्यवस्था गड़बड़ाई है, उस नौबत के और बुरे होने की एक आशंका बनी हुई है। यह जंग कहीं से कम होते नहीं दिख रही है, और इसके चलते बाकी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय राहत संस्थानों के काम में कमी आई है क्योंकि लोगों की सामाजिक-आर्थिक मदद यूक्रेन की तरफ मुड़ गई है। इन तमाम बातों के साथ कुदरत की मार को जोडक़र भी देखना चाहिए कि किस तरह एक बाढ़ ने पाकिस्तान का वर्तमान और भविष्य तबाह कर दिया है, योरप और अमरीका मौसम की मार से इतिहास का सबसे बड़ा नुकसान झेल रहे हैं। भारत जैसे देशों को भी यह सोचना चाहिए कि बदलते मौसम की मार और तबाह पर्यावरण के असर से आने वाला वक्त और तबाही देख सकता है। ऐसे में उन लोगों को अधिक सावधान रहना चाहिए जो अपनी आज की कमाई के आधार पर कर्ज लेकर किस्तें पटाने का बोझ पाल रहे हैं। कल को रोजगार और कारोबार ही नहीं रहा तो वे किस्तें आएँगी कहां से? यह वक्त बहुत सावधान रहने का है, अपना काम-धंधा बचाकर रखने का है, रोज की जिंदगी में किफायत पर अधिक से अधिक अमल करने का है।

Disclaimer: यह लेख मूल रूप से सुनील कुमार के ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है। इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। 

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सुनील कुमार
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