हमारे देश में पदयात्राओं का एक इतिहास रहा है| गाँधी जी ने १९३० में नमक आन्दोलन के नाम से सावरमती आश्रम से दांडी के लिए पदयात्रा शुरू की थी| करीब २४० मील चलकर दांडी पहुंचे थे| इसके बाद १९३३-३४ में उन्होंने छुआछूत के खिलाफ पदयात्रा की| १९५१ में गांधीवादी विचारों के अनुयायी विनोबा भावे ने भूदान आन्दोलन के लिए पदयात्रा की| तेलंगाना से शुरू करते हुने आचार्य विनोबा भावे बोध गया पहुंचे थे| ६ जनवरी १९८३ में चन्द्र शेखर ने कन्याकुमारी से अपनी पदयात्रा धुरु की और 25 जून १९८३ को दिल्ली के राजघाट पहुंचे थे| उनकी यात्रा ४२६० कि मी लंबी थी| इसके अलावा समय-समय पर गांधीवादी विचारों से प्रभावित राजनेता और समाजसेवी पदयात्रा करते आये हैं|अन्य प्रदेशों के नेता भी अपने राजनीतिक और सामाजिक फायदों के लिए समय-समय पर लंबी दूरी तक पैदल यात्रायें करते आये हैं| इसकी एक परम्परा सी बन गई है|
पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्रशेखर को अपनी यात्रा शुरू करने समय इस बात की फ़िक्र थी कि लोग इसे सियासी नाटक समझेंगे| फ़िक्र सही भी थी| उनको अहसास था कि भाषा की दिक्कतें सामने आएँगी| पर बाद में उन्हें अहसास हुआ कि ‘ह्रदय की भाषा’ सभी समझते हैं| हृदयहीन राजनीति की दुनिया में एक राजनेता ‘ह्रदय की भाषा’ बोलता भी है, और लोग समझते भी हैं, यह एक दिलचस्प सवाल है| एन टी रामाराव ने भी आन्ध्र प्रदेश में करीब 1500 कि.मी. की यात्रा की थी| इसका उन्हें राजनीतिक लाभ भी मिला था| मौजूदा समय में इस तरह की यात्राओं में सबसे अधिक चर्चित रही है, लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा जिसने अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण की मांग को एक नई दिशा दे डाली|
गाँधी जी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने उनको सलाह दी थी कि पदयात्राओं के दौरान वह अपनी आँखें और कान खुले रखें पर अपना मुंह बंद रखें| उनकी सलाह थी कि देश दुनिया को समझना है तो देखना और सुनना ही दो ऐसे तरीके हैं जिनके द्वारा लोगों को, उनकी समस्याओं को समझा जा सकता है| मुंह बंद रखने की सलाह का अर्थ था कि लोगों के सामने अपनी बातें न रखें, बस उनको सुनें| आपके पास सारे जवाब नहीं और उनके पास बहुत कुछ है आपसे कहने के लिए| गांधी जी ने उनकी बात मानी और राजनीतिक दुनिया में एक नई तहजीब सिखाई|
राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से ये पद यात्रायें लाभकारी होती हैं| हां, विदेशों में इस तरह की यात्राओं की परंपरा नहीं| वहां लोग अपने कार और हवाईजहाजों पर यात्रायें करते हैं; लोगों से मुलाकात करते हैं| पर राजनीतिक और सामाजिक समर्थन जुटाने के लिए पदयात्राएं हैं उपयोगी| शीर्ष नेता इन यात्राओं के जरिये यह संदेश भी दे देते हैं कि वे देश की नब्ज़ पहचानते हैं|उन्होंने गाँव, गली, मोहल्लों के लोगों से सीधे बातचीत की है, उनके साथ उठे-बैठे हैं|उनको समझा है, उन्हें अपनी बातें समझाई हैं| लोगों में उत्साह और उत्तेजना का संचार भी होता है| यह सिर्फ भावनात्मक प्रतिक्रिया है या फिर इसमें कोई देश हित भी होता है, यह बात दीगर है| यह सारी मेहनत मशक्कत वोटों में तब्दील हो पाती है या नहीं, यह तो चुनाव का समय ही बताता है| यह कहना गलत होगा कि इन यात्राओं का कोई राजनीतिक मकसद नहीं होता, हालाँकि वोटर मन में क्या ठाने बैठे हुए हैं, इसकी खबर तो मत गणना के दिन तक नहीं लग पाती!
उम्मीद है राहुल गांधी ने पदयात्राओं के इस इतिहास पर एक नजर डाली होगी| गांधी जी के राजनीतिक गुरु की हिदायत को ध्यान में रखेंगे| राहुल गांधी की भारत जोड़ो पदयात्रा की आलोचना होगी ही, और होनी शुरू भी हो गई है| लोकतंत्र के दस्तूर के मुताबिक यह तो होना ही है| एन डी ए की विराट आई टी सेल पूरी ताकत के साथ इस यात्रा का मखौल उड़ाने में लग चुकी है| गौरतलब है कि इस समय भारतीय विपक्ष कई तरह की तूफानी गतिविधियों में लगा हुआ है| एक तरफ नीतीश कुमार अलग अलग रंगों, चाल-चलन और विचारधाराओं वाले दलों को एक में मिलाने का काम पूरे जोर शोर से कर रहे हैं| साथ ही यह दोहराते जा रहे हैं कि उनकी कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं ये सब करने में| वे एक विरक्त, निर्लिप्त, निष्काम योगी की इमेज प्रस्तुत कर रहे हैं जो सिर्फ और सिर्फ इस देश को बचाने का काम करने के महान यज्ञ में अपनी निजी स्वार्थ की आहुति देकर देश का हित कर रहा है| कांग्रेस ने भी अलग तरह का भ्रम रच दिया है| एक ओर तो राहुल कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से दूर रहने का ऐलान कर चुके हैं, और दूसरी तरफ समूचे देश में घूम-घूम कर लोकप्रियता बटोर रहे हैं|ऐसे में पार्टी का अध्यक्ष बनने लायक बचा ही कौन रहेगा? सबसे लोकप्रिय नेता के अलावा पार्टी और किसे संगठन का दायित्व सौंपेगा? आखिरकार हो सकता है पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी उन पर ही आये, या फिर ऐसे किसी नेता पर जो आँखें मूंद कर उनकी भक्ति में लीन रहने को तैयार रहे| फिलहाल तो अशोक गहलोत इसमें सबसे आगे दिख रहे हैं, पर राष्ट्रीय स्तर पर गहलोत को कौन महत्त्व देता है, यह सवाल तो बना रहता है? यदि विपक्ष का महागठबंधन बन भी गया तो यह एक चमत्कार ही होगा| केजरीवाल और कांग्रेस, ममता और वामपंथियों को साथ-साथ देखना फिलहाल तो एक अजीबोगरीब स्वप्न की तरह ही लगता है| अभी तो सभी अपनी सत्ता लोलुप रसनाओं को मुंह की गहराई में छिपाए हुए हैं, पर एक बार इन्होने भाजपा को मात दे भी दी, तो अपनी अपनी आपसी लालसाओं के भयावह युद्ध में ही सब ड़ूब जायेंगे! देश के आम आदमी का तो यही सोचना है| तमाम उठापटक का फायदा आखिरकार भाजपा को ही मिल जाएगा| उसे वही लोग कामयाबी दिला जायेंगे जो उनके खिलाफ एकजुट होने की कोशिश में लगे हुए हैं| ऐसा ही प्रतीत होता है|
कुछ सबक हैं, जो कांग्रेस और बाकी विपक्ष को जरुर सीखने चाहिए| राहुल गांधी को समझना चाहिए कि यह सिर्फ एक भौतिक पदयात्रा नहीं| एक जगह से दूसरी जगह की| यह मानसिक स्तर पर भी एक गंभीर पदयात्रा होनी नहीं चाहिए| जिस तरह की मानसिक पदयात्रा का परिणाम नेहरु की ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ जैसी पुस्तक थी| दूसरा यह कि भाजपा २०१४ के पहले से ही सबसे पहली ऐसी पार्टी है जिसने सोशल मीडिया की ताकत को पहचाना और उसका अपने लाभ के लिए अच्छी तरह उपयोग किया| ट्विटर, इन्स्टाग्राम, फेसबुक और व्हाट्सऐप, टेलीग्राम—कोई ऐसा मंच ही नहीं बचा सोशल मीडिया का जिसका भाजपा ने पूरा उपयोग नहीं किया हो| टीवी चैनल्स पर भी भाजपा का कब्ज़ा है| एन डी टी वी के शेयर खरीद कर, और भविष्य में और अधिक शेयर खरीदने का प्रस्ताव रखकर भाजपा ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पूरी तरह अपने खलीते में रख लिया है| सोशल मीडिया पर काम करने वालों की भाजपा के पास एक मजबूत सेना है| भाजपा समुदाय और बूथ स्तर पर भी इन मंचों का भरपूर उपयोग करने की कला और तकनीक दस साल से करती आई है| नेतृत्व की उपस्थति पार्टी की भीतरी एकता को बनाये रखने में सार्थक भूमिका निभाती रही है| दूसरे पार्टियाँ छोड़ कर आये नेताओं को भी अच्छी तरह मैनेज किया गया है, और पार्टी के भीतर किसी नेता में बगावत की थोड़ी भी बू आई है, तो उसे एक तरफ करने में केन्द्रीय नेतृत्व ने संकोच नहीं क्या है|
भाजपा 18 राज्यों एक केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव जीत कर सरकार बना चुकी है| केंद्र में वह आठ वर्षों से जमी हुई है| अलग-अलग राज्यों में उसने अपने राजनीतिक आख्यान को जरुरत के मुताबिक बदला भी है, जिसमे इसे सफलता मिली है| पूरे देश में फैले पार्टी के काडर लगातार संगठन के लिए काम करते हैं| राहुल गांधी की पदयात्रा की सफलता और इसके वोटों में तब्दील होने की संभावना इस पर निर्भर करती है कि उन्होंने भाजपा के इन तौर तरीकों को किस हद तक सीखा है, और उन्हें कहाँ तक अमल में लाने की कोशिश कर पाती है|
एक बार और गौरतलब है, और वह यह कि राहुल गांधी की पदयात्रा के भावनात्मक पहलुओं पर ज़रूरत से ज्यादा जोर दिया जा रहा है| एक तरफ वह कह चुके हैं कि वह पार्टी का अध्यक्ष बनने की इच्छा नहीं रखते| दूसरी और वह लगातार लोकप्रियता बटोरे जा रहे हैं, इतनी अधिक कि और कोई पार्टी का अध्यक्ष बनने की सोच ही न सके| राष्ट्रीय स्तर की लोकप्रियता के मामले में उनके सामने ने ही गहलोत टिकते हैं और न ही शशि थरूर| इतनी ही अहम बात यह भी है कि राहुल का व्यक्तित्व लोगों को सम्मोहित कर रहा है| उनकी पोशाक, उनके हावभाव, उनकी मुस्कान, किसी टेनिस खिलाड़ी की तरह का उनका एथलेटिक जिस्म, रास्ते चलते आबाल, वृद्ध, वनिता को गले लगाना, यह सब उनके भीतर के खुलेपन और करुणा को दर्शा रहा है| कम से कम उनके अनुयायियों और भक्तों को तो बिलकुल सम्मोहित कर रहा है यह सब| ऐसे में इस बात को याद रखना जरुरी है कि राहुल ‘जोत से जोत जगाते चलो, प्रेम की गंगा बहते चलो’ का गीत गाते हुए कोई धार्मिक बाबा या पीर नहीं जो इस ‘बिखरे हुए’ देश को जोड़ने निकल पड़े हैं| यह एक विशुद्ध राजनीतिक कार्यक्रम है| इसका एक स्पष्ट राजनीतिक उद्येश्य है| और इसमें कोई बुराई भी नहीं| राहुल एक राजनीतिक पार्टी के सर्वोच्च नेता हैं और राजनीति का घोषित मकसद ही सत्ता हासिल करना और उसे अपने पास बनाये रखना है| बात बस इतनी सी है, कि इस भावनात्मक लहर में लोग ज्यादा न बह जाएँ और अपने नेता को वस्तुपरक दृष्टि से देखें, उनका काम देखें, आम जनता के लिए उनकी फ़िक्र को देखें समझें| वह नेता भले ही वह चीतों के साथ खेल रहा हो, या देश भ्रमण पर निकल पड़ा हो|