
किसी विश्व विजेता की मुद्रा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी की नई दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सोमवार को जब पहुंचे तो उनका भव्य रोड शो हमेशा की तरह एक नयनाभिराम दृश्य उपस्थित कर रहा था। एक अति सुरक्षित बड़ी गाड़ी के पायदान पर खड़े होकर वे सड़क के दोनों ओर खड़े अपार जनसमूह का अभिवादन कर रहे थे। उन पर पुष्प वर्षा हो रही थी। उनके इस ऐतिहासिक बैठक-गमन को सरकारी और गैर सरकारी मीडिया के अनेक कैमरामेन और वीडियोग्राफर हमेशा के लिये संग्रहित करने के काम को पूरी जिम्मेदारी, संजीदगी व तत्परता से अंजाम दे रहे थे। हमेशा की तरह इस बात का ध्यान रखा गया था कि फोकस में मोदी रहेंगे, सिर्फ मोदी ही। यहां तक कि पुष्प वर्षा कौन कर रहे थे, इस पर भी कैमरे व वीडियो की आंखें अनावश्यक नहीं घुमाई जा रही थीं। प्रभावशाली इवेंट मैनेजमेंट के जरिये भाजपा द्वारा अति सामान्य व नियमित घटना को असाधारण व अलौकिक बनाने की महारत से जो लोग अनभिज्ञ हैं वे सम्भवतः इस बात से गच्चा खा सकते हैं और एकबारगी सोचेंगे कि यह पुष्प वर्षा साक्षात स्वर्ग लोक से हो रही होगी। अगर धरती व आसमान के बीच की दूरी इतनी न होती तो गंधर्व व किन्नरों द्वारा गाये जा रहे गीत व संगीत की ध्वनि भी उन तक अवश्य पहुंचती।
जो भी हो, कुछ किलोमीटर की ही सही परन्तु चाक्षुक बिम्ब की दृष्टि से एक साधारण से राजनैतिक कार्यक्रम के अद्वितीय प्रस्तुतीकरण के बीच में न तो पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा और न ही कोई अन्य कथित कद्दावर नेता, मंत्री या पदाधिकारी थे- हमेशा की भांति। जनता के सामने उपस्थिति पर मोदी जी के एकाधिकार को व्यक्तिगत व दलीय स्वीकृति कभी की मिल चुकी है। हाल ही में हुए गुजरात के चुनाव में मिली सफलता का श्रेय मोदी जी को निर्विवाद रूप से तो जाता ही है, पर अपने राज्य यानी हिमाचल प्रदेश में हुई पराजय को सिर नवाकर स्वीकार कर लेने के कारण नड्डा साहेब को 2024 के लोकसभा चुनाव तक आराम से एक्सटेंशन मिल जायेगा- ऐसा प्रतीत होता है। यह लेख जब लिखा लिखा जा रहा है तब एक दिन की बैठक हो चुकी है; और मंगलवार को क्या हो सकता है- उसके अनुमान कुछ इसी प्रकार के संकेत देते हैं। भव्यता से भी एक लेवल ऊपर के दिव्य टाइप वाले रोड शो की खुमारी कार्यकारिणी बैठक के प्रथम दिन की कार्रवाई पर साफ दिखलाई दी। इस साल होने वाले 9 राज्यों के विधानसभा चुनावों में से एक को भी न हारने की जो सख्त ताकीद अध्यक्ष महोदय ने दी है, उससे स्पष्ट है कि वे हिन्दुत्व और सांस्कृतिक विरासत के एजेंडे पर ही लड़े जायेंगे। अगर कोई सोचे कि भारत ने पिछले करीब 9 वर्षों में मोदी व भाजपा के नेतृत्व में जो अभूतपूर्व तरक्की की है (जैसी कि पिछले 70 साल में नहीं हुई), तो उसका उल्लेख 2023 के विधानसभा और अगले बरस के बहुप्रतीक्षित लोकसभा चुनावों में होगा। तो जान लीजिये कि ऐसा नहीं होने वाला!
भाजपा का दावा रहा है कि विगत लगभग 9 वर्षों में देश ने जबर आर्थिक तरक्की की है। चूंकि मोदी सतत दो बार चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बने हैं, तो उनके कामों का मूल्यांकन भी पिछले दोनों कार्य अवधियों का होगा; और उनकी पार्टी व समर्थक दोनों ही कहते हैं कि इस करीब एक दशक में देश आसमान की ऊंचाइयों को भी पार कर गया है, तो 2014-19 की बात होगी ही। पहला साल पूर्ववर्ती सरकारों की निष्फलता एवं नेहरू-गांधी परिवार को गरियाने में मजे-मजे में निकला। हालांकि उनकी सरकार शुरुआती दौर में उज्ज्वला, जन-धन, नमामि गंगे, स्टार्ट अप, मेक इन इंडिया जैसी योजनाएं लेकर आई। इनके नतीजे देखने का धैर्यपूर्ण इंतज़ार जनता ने यह सोचकर किया कि बच्चा पैदा होने में कुछ वक्त तो लगता ही है; तभी 8 नवम्बर, 2016 को एक सनकपूर्ण फैसले के तहत मोदी ने नोटबन्दी कर दी जिसने जनता और देश की अर्थव्यवस्था को कुछ महीनों में ही बर्बाद कर दिया। वृहत्तर उद्देश्यों से इस (विनाशकारी) कदम को जोड़ने की स्वयं मोदी, उनकी सरकार, भाजपा व समर्थकों द्वारा की गयी, परन्तु अब एक तरह से सभी घोषित या अघोषित तरीके से मान चुके हैं कि नोटबन्दी ने अपना कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं किया, उल्टे, भारत की नगद लेन-देन वाली एक विशालकाय अर्थव्यवस्था को ही बर्बाद कर दिया। इसे एक तरह से अब तक की सबसे बड़ी संगठित लूट मान लिया गया है।
फिर लाई गई जीएसटी ने भी नोटबन्दी के काम को ही आगे बढ़ाया। छोटे व मध्यम उद्योग-कारोबार सिमट गये। इससे फैली बेरोजगारी के बाद भी यह कहकर मोदी को लोगों ने जिताया कि शायद इस बार वे पहले कार्यकाल में हुए नुकसान को सुधार लेंगे। फिर, विकल्पहीनता व विपक्षी बिखराव के चलते भी लोगों द्वारा वैसा निर्णय लिया गया। इस बार उनके पास और भी बड़ा बहुमत था। दूसरे कार्यकाल में आये कोरोना ने मोदी सरकार की अक्षमता के साथ क्रूरता की पोल भी खोल दी। लोग गरीब होते गये और मौके का फायदा लेते हुए मोदी ने अपने कुछ मित्र उद्योगपतियों व कारोबारियों की जेबें भर दीं। कौड़ियों के मोल एक के बाद एक शासकीय उपक्रम व व्यवसाय खरीदकर वे भारत ही नहीं, विश्व के सबसे अमीरों में शामिल हो गये। इधर 80 करोड़ जनता मासिक 5 किलो मुफ्त राशन पर निर्भर हो गयी। असमानता, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी अपने चरम पर है। निजीकरण के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, अन्य सेवाएं महंगी हो गयी हैं। 2022 तक के लिये किये गये किसी भी वादे (सभी को पानी-बिजली के साथ मकान, किसानों को दोगुनी आय, स्वच्छ गंगा, बुलेट ट्रेन आदि) को मोदी पूरा नहीं कर सके। इन पर बात ही नहीं होती और कोई पूछता भी नहीं।
अनवरत असफलताओं से यह लगभग साबित हो जाने के बाद कि मोदी व भाजपा में इस विविधतापूर्ण समाज का नैतिक रूप से नेतृत्व करने की न तो क्षमता है और न ही प्रशासकीय कुशलता, अब उनके पास इस बात के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है कि वे आगामी सारे चुनाव (इस वर्ष के 9 विस और 2024 का लोस) उन्हीं भावनात्मक मुद्दों पर लड़े जिसकी सफलता-असफलता के लिये कोई आंकड़े नहीं चाहिये होते हैं, कोई बात वैज्ञानिक या तार्किक दृष्टि से साबित नहीं करती होती। एक धर्मप्राण, काल चक्र, नियति, ईश्वर की मर्जी तथा भाग्य पर अंतहीन भरोसा करने वाले और जातीयता व साम्प्रदायिकता में आकंठ डूबे देश में जब बड़ी संख्या में लोग अशिक्षित, अर्द्ध शिक्षित, वाट्सएप विश्वविद्यालय से नवशिक्षित तथा आईटी सेल द्वारा प्रशिक्षित हों, वहां एक बार नहीं, बार-बार चुनावी कामयाबी भावनात्मक मुद्दों के आधार पर पाई जा सकती है। तिस पर सवाल पूछने और संवाद के सारे रास्ते बंद हों, असफलताओं को बड़ी कामयाबी के रूप में पेश करने की बाजीगरी भी अगर किसी को आती हो तो आगामी सारे चुनाव जीत लिये जाएंगे।
फिर भी, यह बात तो याद रखनी ही होगी कि मूल मुद्दों से कुछ समय तक भागा जा सकता है, भावनात्मक मसलों की आड़ में थोड़े समय के लिये छिपा जा सकता है, लेकिन अनंतकाल के लिये नहीं। इसलिये भाजपा को चाहिये कि जितनी जल्दी हो सके विकास व ठोस उपलब्धियों की बात करे एवं उसके आधार पर चुनाव लड़े व जीते। जनता को भी चाहिये कि वह सरकार से पूछे कि 2014 के पहले मोदी जी केवल 60 माह में 60 वर्षों के बराबर के चमत्कार करने के दावे व वादे करते थे, उनका क्या हुआ। खासकर, युवा पीढ़ी जिसके पास अगले 50-60 वर्ष जीने के लिये शेष हैं। रोड शो, फूलों की बरसात, विरासत, शक्ति प्रदर्शन, ‘भैयाजी के साथ मिलकर फीलिंग गुड’ के स्टेटस डालकर तथा पन्ना प्रमुख बनकर कुछ दिन तो काटे जा सकते हैं लेकिन आजीवन आपका काम इनसे नहीं चल सकेगा। विकास पर लाईये सियासत को; और विकास का हिसाब तो सत्तारुढ़ दल को ही देना होता है। भाजपा इसी से तो भाग रही है। इसलिये उसे राजनैतिक छवि गढ़ने के ऐसे प्रदर्शन करने पड़ रहे हैं। हो सकता है कि इससे उनकी छवि सुधरे भी, वह चुनाव भी जीत ले, पर वह देशवासियों को क्या देने जा रही है, यह तो कोई नहीं जानता।
Disclaimer: यह लेख मूल रूप से दीपक पचपोरे के वॉल पर प्रकाशित हुआ है। इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए द हरिश्चंद्र उत्तरदायी नहीं होगा।
