गुजरात। उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर स्थित वाराणसी से संसद के लिए मई 2014 में निर्वाचित होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, ‘मां गंगा की सेवा करना मेरे भाग्य में है।’ गंगा नदी का न सिर्फ़ सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व है बल्कि देश की 40% आबादी गंगा नदी पर निर्भर है। 2014 में न्यूयॉर्क में मैडिसन स्क्वायर गार्डन में भारतीय समुदाय को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था, “अगर हम इसे साफ करने में सक्षम हो गए तो यह देश की 40 फीसदी आबादी के लिए एक बड़ी मदद साबित होगी। अतः गंगा की सफाई एक आर्थिक एजेंडा भी है”। उत्तर प्रदेश की गंगा अब तक कितनी साफ हुई यह तो सभी जानते है। लेकिन गुजरात की दमण गंगा नदी को भी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी प्राथमिकता में लाना चाहिए।
हालांकि इसमे कोई दो-राय नहीं कि पर्यावरण के नियमों के साथ उलंधन कर पर्यावरण को हानी पहुंचाने का मतलब है जनजीवन को हानी पहुंचाना और इसी लिए पर्यावरण नियमों में एक नियम ऐसा भी है जिसमे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले को आर्थिक दण्ड के साथ कारावास का भी दण्ड रखा गया है, लेकिन क्या कभी किसी इकाई के संचालक को पर्यावरण को हानी पहुंचाने पर कारावास का दंड दिया गया? उन्नति के लिए उधोग आवश्यक है लेकिन यदि इकाइयों की उन्नति की नीव बार-बार पर्यावरण की कब्र पर ही रखी जाएगी तो इससे आने वाले समय में जनता को होने वाले नुकसान का आंकलन भी प्रशासन को अभी से कर लेना चाहिए। जनता जब भी किसी नदी में कलर वाला गंदा ओर प्रदूषित पानी देखती है तो उसे पता चल जाता है की यह ओधोगिक इकाइयों द्वारा छोड़ा गया गंदा ओर जहरीला पानी है। जनता को पर्यावरण संबन्धित नियमों की उनती जानकारी नहीं जितनी अधिकारियों को है इसके बाद भी जनता अधिकारियों से अधिक सतर्क दिखाई देती है क्यो कि जनता भ्रष्ट नहीं है!
पर्यावरण की बढ़ती समस्या का एक कारण यह भी है कि भारत में प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों कि तदात, पर्यावरण प्रेमियों कि तुलना में काफी आधिक है। इसका यह मतलब नहीं है कि प्रदूषण के लिए पर्यावरण प्रेमी शिकायत नहीं करते, पर्यावरण प्रेमी जब भी इकाइयों के प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए स्थानिय अधिकारियों से शिकायते करते है तो उधोगपतियों से लेकर, सरकारी अधिकारियों तक उक्त पर्यावरण प्रेमी का साथ देने की बजाय उसे ऐसे आंखे दिखाने का काम करते है जैसे कि वह प्रदूषण पर नहीं बल्कि प्रदूषण फैलाने वाली इकाई तथा अधिकारियों कि आम्दानी पर प्रतिबंध की मांग कर रहा हो।
दमण और दीव सांसद लालुभाई बाबूभाई पटेल ने 10 June, 2014 को लोकसभा में “सभापति जी, मैं आपका आभारी हूँ कि आपने मुझे बोलने का मौका दिया। मैं दमन और दीव से आता हूँ जो छोटा सा प्रदेश है जो मत्स्य उद्योग और पर्यटन पर निर्भर करता है। मेरे प्रदेश में बहती हुई दमनगंगा नदी के निकट बसे गुजरात के वापी शहर से ज़्यादातर औद्योगिक और कैमिकल दूषित पानी इस नदी में निकास करता है। मंत्रालय को मैंने यह भी बताया कि गुजरात प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड ने भी हमारी प्रार्थना नहीं सुनी। वापी के गुजरात इंडस्ट्रियल डैवलपमैंट कार्पोरेशन का ट्रीटमैंट प्लांट भी ढंग से कार्य नहीं कर रहा है। इसका सीधा असर नदी के मत्स्य उद्योग पर पड़ रहा है। नदी में मछलियाँ खत्म हो रही हैं। क्योंकि दमन शहर की यह नदी अरब सागर से मिलती है,इसलिए दरियाई मछली पर इसका बड़ा असर पड़ता है। यह प्रदूषित पानी काला होने के कारण दरिया का पानी भी काले रंग का हो गया है।”
50 फीसदी से ज्यादा कार्यबल की कमी
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ( NGT ) ने आर्यावर्त फाउंडेशन बनाम मैसर्स वापी ग्रीन एनवॉयरो लिमिटेड एंड अदर्स मामले में जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली पीठ ने 5 फरवरी, 2021 की टिप्पणी “पर्यावरण की क्षति सीधे-सीधे लोगों के स्वास्थ्य से जुड़ी है। पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी के चलते लोगों की मौतें होती हैं और उन्हें चोटें पहुंचती हैं। पर्यावरणीय नियमों का उल्लंघन ठीक उसी गंभीरता से लिया जाना चाहिए जिस तरह से आपराधिक मामलों से बचाव के दौरान लिया जाता है।” एनजीटी की प्रधान पीठ ने कहां की छह महीनों के भीतर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी) को मजबूत बनाने का खाका तैयार करें। “सभी राज्यों और संघ शासित प्रदेशों के मुख्य सचिव और पर्यावरण सचिव व पीसीबी के चेयरमैन सीपीसीबी की रिपोर्ट में उठाए गए मुद्दों का अध्ययन करने के साथ ही समाधान करें। पर्यावरण संरक्षण, 1986 कानून के तहत इनमें प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के खाली स्थानों को दक्ष लोगों के जरिए भरने के साथ ही जरूरी उपकरणों को खरीदने व प्रयोगशालाओं को स्थापित करने व उन्नत बनाने का रोडमैप छह महीने के भीतर तैयार करें।”
वही सीपीसीबी ( Central Pollution Control Board ) ने अपनी स्थिति रिपोर्ट में बताया था कि देश के सभी राज्यों और संघ शासित प्रदेशों में ग्रुप ए (साइंटिफिक, टेक्निक्ल, एडमिन स्टॉफ ) में कुल 1749 सैंक्शन पदों में 1,092 कर्मचारी कार्यरत हैं और 657 पद रिक्त हैं। जबकि ग्रुप बी (साइंटिफिक, टेक्निक्ल, एडमिन स्टॉफ) 2,629 सैंक्शन पदों में 1,591 पद पर कार्यरत हैं और 1,038 पद खाली हैं। वहीं, ग्रुप सी में 5,060 पदों में 2,413 पदों पर कर्मचारी हैं जबकि 2,647 पद खाली हैं। सीपीसीबी की रिपोर्ट के मुताबिक राज्यों और संघ शासित प्रदेशों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड या समितियों में 50 फीसदी से ज्यादा कार्यबल की कमी है। आदेश के एक बिंदु में कहा गया की “सीपीसीबी और राज्यों के पीसीबी या समितियां प्रयोगशालाओं की स्थापना या उन्हें उन्नत बनाने के लिए पर्यावरण जुर्माने का इस्तेमाल करें। इसके लिए एनजीटी एक्ट की धारा 33 के तहत किसी भी अन्य मंजूरी की जरूरत नहीं होगी।” अब सवाल यह है कि 5 फरवरी, 2021 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा दिए गए आदेश और टिप्पणी पर सीपीसीबी और राज्यों के पीसीबी या समितियों ने कितना पालन किया?
वापी सीईटीपी को 10 करोड़ जुर्माना
ज्ञात हो कि दिल्ली एनजीटी ( NGT ) में वर्ष-2017 में आर्यवर्त फाउंडेशन ने सीईटीपी के खराब परिणाम के मामले में याचिका दायर की थी। दिल्ली एनजीटए ने प्रदूषण के मुद्दे पर वापी सीईटीपी ( Common Effluent Treatment Plant ) को 10 करोड़ जुर्माना किया था तथा एनजीटी ने दो कमेटी बनाकर प्रदूषण की मॉनिटरिंग कराने तथा प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई करने का आदेश भी दिया था इसके अलावे एनजीटी के आदेश में लगातार प्रदूषण फैलाने और क्लोजर वाली बड़ी कंपनियों को 1 करोड़, मध्यम स्केल इंडस्ट्रीज को 50 लाख और लघु उद्योगों को 25 हजार जुर्माना करने का आदेश दिया। आम जनता को लगा कि 10 करोड़ के जुर्माने से उधोगिक इकाइयों के प्रदूषण पर रोक लगेगी, लेकिन जमीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं दिखा, ना ओधोगिक इकाइयों से निकालने वाले प्रदूषित जल में कमी आई ना ही दमण गंगा नदी कि तस्वीर बदली।
वर्ष 2017 और वर्ष 2019 के यह दो विडियों देखिए।
गुजरात के शहर महाराष्ट्र की तुलना में अधिक प्रदूषित
वही सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) द्वारा क्षेत्रीय वायु प्रदूषण के स्तर के एक नए विश्लेषण के अनुसार, भौगोलिक लाभ और अनुकूल मौसम विज्ञान के बावजूद पश्चिमी राज्यों महाराष्ट्र और गुजरात में वायु प्रदूषण तेजी से चिंता का विषय बनता जा रहा है। सीएसई की कार्यकारी निदेशक (अनुसंधान) अनुमिता रॉयचौधरी ने कहा कि मुंबई में खराब-हवा के दिनों की संख्या 2019 और 2021 के बीच दोगुनी हो गई है, जबकि अच्छे दिनों में 20 प्रतिशत की कमी आई है। विश्लेषण में दो राज्यों के 15 शहरों में फैले 56 निरंतर परिवेशी वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशनों (सीएएक्यूएमएस) को शामिल किया गया है। महाराष्ट्र में औरंगाबाद, कल्याण, नागपुर, नासिक और सोलापुर में एक-एक स्टेशन, चंद्रपुर में दो, नवी मुंबई में चार, पुणे में आठ और मुंबई में 21 स्टेशन। गुजरात में अंकलेश्वर, नंदेसरी, वापी और वटवा में एक-एक स्टेशन, गांधीनगर में चार और अहमदाबाद में आठ स्टेशन। शोधकर्ताओं ने पाया कि इस क्षेत्र के लगभग सभी शहरों में 2020 में वार्षिक औसत पीएम 2.5 के स्तर में गिरावट देखी गई थी जिस वर्ष लॉकडाउन लागू किया गया था। लेकिन अब दोबारा पुरानी स्थिति दिखाई पड़ रही है।
गुजरात के शहर महाराष्ट्र की तुलना में अधिक प्रदूषित हैं। वटवा और अंकलेश्वर में इस क्षेत्र में सबसे प्रदूषित हवा है जिसमें 2021 का औसत पीएम 2.5, 67 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है। इसके बाद वापी और अहमदाबाद में 2021 का वार्षिक औसत क्रमश: 54 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर और 53 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है।
(सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE), नई दिल्ली (भारत) में स्थित एक गैर-लाभकारी सार्वजनिक हित अनुसंधान संगठन(not-for-profit public interest research organisation) है। इसकी स्थापना 1980 में की गयी थी। यह संगठन भारत में पर्यावरण, खराब नियोजन, जलवायु परिवर्तन और पहले से मौजूद नीतियों के बेहतर कार्यान्वयन आदि से संबन्धित मुद्दों को उठाता है)
हर चार में से तीन नदी उच्च स्तर पर प्रदूषण का शिकार
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार देश की 351 नदियां प्रदूषण का शिकार हैं। इनका पानी आचमन के लायक भी नहीं है। अगर आप इसको पीते हैं तो बीमार होने की आशंका है। आज स्थती यह आ गई है कि देश की हर चार में से तीन नदी उच्च स्तर पर प्रदूषण का शिकार हैं। इनमें बड़ी मात्रा में हेवी टॉक्सिक मटीरियल मिले हैं, जिनमें लेड, आयरन, निकल, आर्सेनिक, क्रोमियम व कॉपर शामिल हैं। यह भी उन जगहों पर, जहां पर इनकी पानी की गुणवत्ता जांचने के लिए स्टेशन बनाए गए हैं। गंगा पर बनाए गए 33 केंद्रों में से 10 पर प्रदूषण का स्तर मानक से कहीं ज्यादा दिखाई दिया।
भारत का संविधान, केंद्र और राज्य सरकारों को इसके नागरिकों के लिये स्वच्छ तथा स्वस्थ वातावरण एवं स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने का प्रावधान करता है। (अनुच्छेद 48A, अनुच्छेद 51 (A) (g), अनुच्छेद 21)। साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की है कि स्वस्थ और स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। लेकिन आज ज़्यादातर नदिया ओधोगिक प्रदूषण का शिकार बन चुकी है।
अब सवाल यह भी उठता है की क्या बढ़ते प्रदूषण के लिए केवल उधोग ही ज़िम्मेवार है, प्रदूषण नियंत्रण समितियों और बोर्ड की कोई जिम्मेवारी नहीं? यह सवाल इस लिए क्यों की इकाइयों द्वारा फैलाए जाने वाले प्रदूषण के लिए सबसे पहले ठीकरा उधोगिक इकाइयों के मत्थे ही फोड़ा जाता है जबकि इकाइयों के प्रदूषण पर नज़र रखने के लिए सैकड़ों कर्मचारी-अधिकारी सालों से वेतन लेते आए है! फिर भी दिन ब दिन हालत बद से बदत्तर होते जा रहे है। जिसके बाद यही लगता है की प्रदूषण की रोकथाम करने के लिए गठित विभाग और विभागीय अधिकारी ठीक तरह से काम नहीं कर रहे है।
किसी भी उधोग को नियमित संचालन के लिए Consent to Establish, Consent to Operate and consent to renewal लेना अनिवार्य है। वही सूत्रों का कहना है कि प्रदूषण नियंत्रण समिति के संबन्धित अधिकारी Consent to Establish, Consent to Operate and consent to renewal के लिए उधोगों से मनचाही रकम वसूलते है और उस रकम हिस्सा ऊपर तक देते है अब ऊपर यानि कितना ऊपर तक यह पता लगाना तो जांच एजेंसियों का काम है। वैसे इसके अलावे Consent देने में विलंब करना, तय समय पर नियमानुसार इकाई का निरक्षण ना करना, आँख बंद करके निरक्षण करना, निरक्षण के दौरान लिए गए नमूनों की गलत और फर्जी रिपोर्ट तैयार करना, इकाई को क्लोज़र नोटिस नहीं देना अथवा दिए गए नोटिस को वापस लेने जैसे कई खेल खलने में भी अधिकारियों को महारथ हासिल बताई जाती है और ऐसे कार्यों के लिए अधिकारी अपनी सुविधा अनुसार एजेन्टों कि मदद भी लेते है ताकि जांच एजेंसियों को गुमराह किया जा सके। गुजरात कि दमण-गंगा कि ताजा तस्वीरे यही बताती है कि एनजीटी कि दखल के बाद भी अब तक प्रदूषण में कोई कमी नहीं आई और जब तक भ्रष्ट अधिकारी कुर्सी के गणेश बने बैठे रहेंगे तब तक कमी आना ना-मुमकिन दिखाई देता है। उधोग पर नज़र रखने के लिए जीपीसीबी है, जीपीसीबी के ऊपर सीपीसीबी है और सीपीसीबी के ऊपर एमोईएफ पर लगता है सबका लक्ष्य विकास है, सिर्फ विकास।