कवि, दार्शनिक, शिक्षाविद चित्रकार, संस्कृतकर्मी एवं विश्व विख्यात साहित्यकार गुरूवर रविन्द्रनाथ टैगोर उत्कट देशभक्त के साथ उत्कट मानवतावादी थे। उत्कट मानवतावादी, प्रकृति अनुरागी, उच्च कोटि के पर्यावरणविद तथा विश्व बंधुत्व और विश्व शांति के लिए प्रबल पक्ष पोषक टैगोर ने विश्व नागरिकता की उत्कंठ हृदय से वकालत किया। विश्व नागरिकता की खुलकर वकालत करने वाले टैगोर भारत की साहित्यिक,सांस्कृतिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक चेतना तथा आत्मा के सर्वश्रेष्ठ अधिवक्ता, व्याख्याता और वैश्विक संवाहक थे।
बीसवीं शताब्दी में टैगोर ने भारतीय प्रज्ञा, कुशाग्रता, प्रतिभा और मेधाशक्ति का साहस और कुशलता के साथ प्रतिनिधित्व किया। अपनी साहित्यिक प्रतिभा से महाकवि कालिदास, माघ, जयदेव, सूरदास, सैयद इब्राहीम रसखान, और तुलसीदास की महान साहित्यिक विरासत को टैगोर ने आगे बढाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उनकी वाणी में योगीराज भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी की स्वरलहरियों जैसी आकर्षण शक्ति और लेखनी में अद्भुत सम्मोहन शक्ति थी। रबिन्द्र नाथ टैगोर भारतीय बसुन्धरा के विरले लेखक और कवि हैं जिनके लेख सम्पूर्ण बंगाली जनमानस के हृदय में समाहित है और उनके गीत हर बंगाली मन मस्तिष्क में हमेशा तरोताजा रहते हैं। प्रकारांतर से वह सचमुच लोकमानास, लोकमंगल तथा लोक संवेदना के सच्चे साहित्यकार थे। अपने दौर की तुच्छताओं, संकीर्णताओं और दकियानूसी विचारों से आगे बढ़ कर रबिन्द्र नाथ टैगोर ने व्यापक, वैश्विक मानवतावादी दृष्टि और समझदारी का परिचय देते हुए अपनी साहित्यिक सर्जनाओं और रचनाओं का निरंतर निरूपण किया।
इसलिए भौगोलिक रूप से पूर्वी दुनिया में पैदा हुए रविन्द्र नाथ टैगोर का पश्चिमी दुनिया ने भी भारत सहित सम्पूर्ण एशिया के सांस्कृतिक और साहित्यिक अग्रदूत के रूप में उनका अभिनंदन और स्वागत किया। प्रकृतिवादी, पर्यावरणवादी, मानवतावादी और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के रहस्यवादी होने के कारण रबिन्द्र नाथ टैगोर की रचनाओं ने न केवल भारत बल्कि विश्व साहित्य को गगनचुंबी बुलंदी प्रदान की और विश्व साहित्य को अत्यंत समृद्धशाली बनाया। उनकी ब्रहमांड को परखने की अंतः प्रज्ञात्मक चेतना और क्षमता, शैली की गरिमा युक्त सरलता, जाज्वल्यमान कल्पना और उत्कट दूरदर्शिता उन्हें वैश्विक क्षितिज पर एक अद्वितीय साहित्यिक स्थान प्रदान करती है। जिस तरह स्वामी विवेकानंद वैश्विक पटल पर भारतीय दर्शन और आध्यात्म के ओजस्वी संदेशवाहक थे उसी तरह टैगोर भारत की साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना के सर्वश्रेष्ठ संवाहक थे।
रबिन्द्र नाथ टैगोर भारतीय पुनर्जागरण और स्वतंत्रता के प्रखर और कुशाग्र साहित्यिक सर्जक थे । स्वाधीनता संग्राम के दौरान उभरते आधुनिक भारत के आदर्शों, आकांक्षाओं, मूल्यों, मान्यताओं और लालसाओं का उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल स्पष्टीकरण किया बल्कि भारतीय जनमानस से उसका साक्षात्कार कराया। गुरुवर रविन्द्र नाथ टैगोर को भारत के गौरवशाली अतीत पर गर्व और गौरव की अनुभूति होती थी। वह हमेशा कहा करते थे कि-भारत के गगनमंडल में ही उषा की प्रथम रश्मि प्रस्फुटित हूई थी। उनके अनुसार आज विश्व में प्रचलित अधिकांश मानवता वादी मूल्यों, मान्यताओं, सिद्धांतो और श्रेष्ठतम आदर्शों का निरूपण भारतीय बसुन्धरा के वनों, गुफाओं और कन्दराओं में साधना रत युगद्रष्ट्रा ऋषियों द्वारा किया गया। महान मानवता वादी रविन्द्र नाथ टैगोर शासकीय, साम्प्रदायिक, धार्मिक और विशुद्ध भौतिकवादी साम्राज्यवादी क्रूरता के प्रबल विरोधी थे। इसलिए जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर की तर्ज पर भारत में जलियावाला बाग में जनरल डायर द्वारा की गई क्रूरता का पूरी क्षमता से भर्त्सना किया था। इसे उन्होने राक्षसी अत्याचार कहा था और तत्कालीन भारत सरकार द्वारा प्रदत्त ” नाइट ” की उपाधि वापस कर दिया था। उनके अनुसार अतीत में की गई विविध प्रकार की क्रूरताएं सम्पूर्ण वैश्विक इतिहास और मानवता के मस्तक पर कलंक है। रविन्द्र नाथ टैगोर सांस्कृतिक समन्वय और अंतर्राष्ट्रीय एकता में विश्वास करने वाले अनोखे राष्ट्रवादी थे। वह उग्र तथा आक्रामक राष्ट्रवाद की हमेशा भर्त्सना किया करते थे। उग्र और आक्रामक राष्ट्रवाद की भावना समाज को उन्मादी भीड में बदल देती हैं। फिर भी वह भारतीय राष्ट्रवाद के बौद्धिक नेता बन गये। अपने पूर्ववर्ती बंकिमचन्द्र चटर्जी के साहित्यिक पुनर्जागरण आन्दोलन को टैगोर ने शक्तिशाली और व्यापक बनाया ।
राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में बंगाल में हुए साहित्यिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण ने बंगाली राष्ट्रवाद के लिए बौद्धिक पृष्ठभूमि तैयार किया। वर्तमान भारतीय राष्ट्रगान के रचनाकार रबिन्द्र नाथ टैगोर ने यद्यपि स्वाधीनता संग्राम के घमासान और ब्रिटिश साम्राज्य के साथ चल रहे राजनीतिक युद्ध में भाग नहीं लिया परन्तु इसे वह बौद्धिक तथा मानसिक रूप से उत्प्रेरित एव उत्साहित करते रहे।
रबिन्द्र नाथ टैगोर अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध कवि और साहित्यकार थे। वह कवि और साहित्यकार के साथ एक महान शिक्षा शास्त्री थे। शिक्षा के क्षेत्र में उनके किए गए प्रयोगों और प्रयासों से आकृष्ट होकर यूरोप के बडे-बडे विद्वान उनकी विश्वभारती में आते रहते थे। भारतीय दार्शनिक परम्परा में वह मांडूक्य उपनिषद के ” सत्यम् शिवम् और अद्वैतम् ” की पम्परा के अनुयायी थे और ब्रह्म समाज की शिक्षाओं और अपने पिता देवेन्द्र नाथ टैगोर से विरासत में मिलें एकेश्वरवाद के विचार में विश्वास करते थे। परन्तु उनके अन्दर हिब्रू एकेश्वरवादियों जैसी कट्टरता नहीं थी। उन्हें ईश्वर की उच्चतम स्रजनशीलता में विश्वास था और परमात्मा को प्रेम की पूर्णता मानते थे। प्रख्यात जर्मन दार्शनिकों हीगल, नीत्शे और शोपेनहाॅवर की तरह इतिहास के साथ साथ प्रकृति को भी शाश्वत आत्मा की अद्वितीय तथा असीम सृजनात्मक अभिव्यक्ति और प्रकटीकरण मानते थे। इसलिए वह कहते थे ऑखे बंद कर के क्या ढूँढते हो ऑखे खोलों तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे सामने खडा है। टैगोर बसुन्धरा पर ईश्वर के अमृतमय प्रेम और करुणा के सच्चे संदेशवाहक थे।
उन्होंने अपनी अमर रचना ” गीतांजलि ” में ईश्वरीय प्रेम की व्यापकता का खुले मन से बखान किया है तथा समस्त मानवजाति को आमंत्रित किया है कि- वह इस स्वर्णिम, ज्योतिर्मय और निर्मल प्रेम- सागर में डुबकी लगाये और इसका रसास्वादन करें। उनके अनुसार निर्मल और पवित्र प्रार्थनाओं द्वारा ईश्वरीय प्रेम का रसास्वादन किया जा सकता है। टैगोर सम्पूर्ण सृष्टि को सर्वशक्तिमान ईश्वर की सर्जना मानते थे। उनके अनुसार ब्रहमांड की यांत्रिक, जैविक और भौतिक प्रक्रियाओं में ईश्वर की व्यापकता हैं तथा प्रकृति की प्रत्येक कर्कश और कोमल घटनाओं में ईश्वर की विद्यमानता है। सरसराती हुई पत्तियाँ, वेगवती सरिताएं, तारादीप्त रातें, मध्याह्न का झुलसाने वाला ताप और मुसलाधार वर्षा ईश्वर की विद्यमानता को प्रकट करते हैं। प्रकारांतर से टैगोर प्रकृति को जड तथा भौतिक शक्तियों का यांत्रिक और संयोजन और एकत्रीकरण नहीं मानते थे बल्कि ऑधी, तूफान, महासागर, विशालकाय पर्वत, सूरज, चॉंद सितारे और पृथ्वी सब कुछ ईश्वरीय आनंद का विस्फोट है। पाश्चात्य साहित्य के महान कवि गेटे की तरह टैगोर भी प्रकृति के अनुपम सौन्दर्यत्मक आदान-प्रदान में मंत्र-मुग्ध हो जाते थे। वह वन बाग तडाग पक्षियों के कलरव, चीलो के स्वर में आनंद की अनुभूति करते थे।
रबिन्द्र नाथ टैगोर सहकार, समन्वय, साहचर्य और सार्वभौम सामंजस्य के उत्कृष्ट साहित्यकार थे। उनका एक अलौकिक, सर्वोच्च और सार्वभौम सामंजस्यकारी विश्व शक्ति में अटूट विश्वास था। इसका अभिप्राय यह है कि- मनुष्य जाति को इस सर्वोच्च सामंजस्य कारी शक्ति की अनुभूति हो जाए तो अंतर्विरोधों से उत्पन्न कटुता और अन्तर्निषेध जनित कलह तथा कर्कशता का पूर्णतः दमन और शमन हो सकता हैं। वह मानव समुदाय के साथ मनुष्य का प्रकृति के साथ सार्थक और आनंदमय सामंजस्य स्थापित करना चाहते थे। पश्चिमी दुनिया में हुए वैज्ञानिक चमत्कारों ने पश्चिमी दुनिया के लोगों में प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का हौसला दिया था। रविन्द्र नाथ टैगोर प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की इस लालसा को पूर्णतः पाशविकता मानते थे। प्रकृति के साथ वह प्रकृति के प्रत्येक प्राणी के साथ दया करूणा और प्रेम का संबध चाहते थे।
उनके अनुसार सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी को चोट पहुंचाना ईश्वर की कल्याणकारी अनुकम्पा के विरुद्ध अपराध है। टैगोर की ईश्वरीय न्याय में गहरी और गहन आस्था थी। इसलिए वह मानते थे कि-साम्राज्यवाद, निरकुंशता, शोषण, क्रूरता और बर्बरता को कभी-न-कभी अवश्य परास्त होना होगा तथा घमंड, लोभ, उद्दन्डता की निश्चित पराजय होगी। रविन्द्र नाथ टैगोर का बचपन ब्रह्म समाज के बुद्धिवादी वातावरण में गुजरा इसलिए अपने दौर में प्रचलित अंधविश्वासों, कुरीतियों, कुप्रथाओं और निराधार मान्यताओं के प्रति उनकी दृष्टि आलोचनात्मक बनी रही। वह बुद्धि को सृजनात्मक और रचनात्मक शक्तियों का प्रदीपन मानते थे। बुद्धि सृजनात्मक और रचनात्मक शक्तियों के प्रदीपन से सुंदर और समरस समाज बनाया जा सकता हैं। बीसवीं शताब्दी के इस महान भारतीय साहित्य रत्न को सम्पूर्ण एशिया में प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता के रूप जाना जाता है। टैगोर इकलौते ऐसे साहित्यकार हैं जिन्हें दो देशों ( भारत और बांग्लादेश) के रचयिता होने का गौरव हासिल है। हर भारतीय का मस्तक गौरवान्वित करने वाले भारतीय मनीषा के दैदीप्यमान नक्षत्र को उनके जन्मदिन पर शत-शत नमन।