सिद्धार्थ रामू : तमिलनाडु में ओबीसी, एससी और एसटी के लिए 69 प्रतिशत आरक्षण है। जो करीब चार हिस्सों में विभाजित है। 46.5 प्रतिशत ओबीसी के लिए है,जो दो हिस्सों में विभाजित है। 26.5 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग ( B.Cs) और 29 प्रतिशत अत्यधिक पिछड़ा (MB.Cs)।
दलितों ( एससी) के लिए 18 प्रतिशत आरक्षण है। इसमें से 3 प्रतिशत एससी में अत्यधिक पिछड़े अरूनधाधियार समुदाय के लिए है।
मुसलमानों के लिए भी 3.5 प्रतिशत आरक्षण है।
एसटी के लिए 1 प्रतिशत आरक्षण है,क्योंकि तमिलनाडु की आबादी में उनका अनुपात सिर्फ 1.10 प्रतिशत है।
तमिलनाडु में आज का आरक्षण तीन शताब्दी ( 19वीं, 20 वीं और 21 वीं) तक चले संघर्ष नतीजा है।
यही मॉडल अपनना चाहिए, अलग-अलग राज्यों में जनसंख्या के अनुपात के अनुसार थोड़ा फेरबदल करके।
आर्थिक तौर पर कमजोर तबकों ( सहज भाषा में सवर्णों) के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण के बाद 50 प्रतिशत की आरक्षण की सीमा केंद्रीय स्तर भी समाप्त हो गई है। अब तो आबादी के अनुपात में आरक्षण के मार्ग में कोई अवरोध भी नहीं है।
इतिहास की तारीख में 1854 वह वर्ष है, जब पहली बार तमिलनाडु में आरक्षण लागू हुआ। तमिलनाडु आरक्षण के लिए करीब 170 वर्षों से संघर्ष कर रहा है और आज भी यह संघर्ष जारी है, क्योंकि इस देश के वर्चस्वशाली अपरकॉस्ट ने कभी इसे स्वीकार नहीं किया और तरह-तरह से इसमें अडंगा लगाते रहे। हाल में नीट इसका एक ज्वलंत और तात्कालिक उदाहरण हैं। नीट में ओबीसी के लिए 27 आरक्षण के पक्ष में सर्वाधिक संंघर्ष तमिलनाडु ने किया, जिसकी अगुवाई मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने की।
आरक्षण का संघर्ष हमेशा एक राजनीतिक संघर्ष रहा है, अगर कोई इसे कानूनी स्तर पर जीतना चाहता है, तो मुगालते में है, पहले राजनीतिक जीत होती है, उसी के बाद कानूनी जीत होती है। जैसे पहले भाजपा ने राजनीतिक सत्ता हाथ लिया और न्यायपालिका भी उसके अनुसार चलने लगी है।
असल संघर्ष जन गोलबंदी का है, जो जनगोलबंदी कर लेगा, वह कानूनी लड़ाई भी देर-सबेर जीत लेगा। इसका उलटा नहीं होता।