दाता और पाता का नाता तोड़ कर भ्राता का नाता बनाना होगा

स्वतंत्रता,समानता,बंधुता,न्याय और लोकतंत्रिक मूल्यों पर आधारित समाज बनाने के लिये आर्थिक राजनीतिक ,सामाजिक ,कानूनी सहित अन्य असमानताओं को वास्तविकता के धरातल पर कमतर करना आवश्यक है। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि-जब हम असमानता  को समाप्त करने की बात करते हैं तो इसका तात्पर्य मानव निर्मित असमानताओं को कमतर करने का प्रयास होना चाहिए । जबकि प्राकृतिक असमानताऐ प्रकृति प्रदत्त होती हैं जिनको कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता है। इसके साथ ही साथ असमानता पर विचार करते समय इस तथ्य पर पर भी ध्यान देना चाहिए कि-हर में देश में हर नागरिक को उसकी प्रतिभा ,योग्यता और परिश्रम के अनुरूप आर्थिक और सामाजिक उन्नति का पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए। आर्थिक समानता लाने का तात्पर्य यह कतई नहीं है कि-निट्ठल्ले निकम्मे कामचोर लोगों को अपनी उद्यमिता ,परिश्रम और प्रतिभा के बल पर उन्नति करने वाले लोगों के समानांतर और समकक्ष खड़ा कर दिया जाए । जब हम एक सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में समानता पर विचार करते हैं तो इसका निहितार्थ न्यायसंगत और विवेकपूर्ण समानता पर समानता पर विचार करना चाहिए। कार्ल मार्क्स के  अनुसार “कोई व्यक्ति इतना अमीर न हो कि वह किसी व्यक्ति को खरीद सके और कोई व्यक्ति इतना इतना गरीब ना हो कि वह स्वयं को बेंच सकें “।

किसी भी समाज की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का सूक्ष्मता से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि-आर्थिक असमानता अन्य समस्त असमानताओं की जननी है । आर्थिक समानता के बिना कानूनी स्वतंत्रता, राजनीतिक स्वतंत्रता और अन्य संविधान प्रदत्त स्वतंत्रताए और संविधान प्रदत्त समस्त अधिकार व्यर्थ ,बेमानी , कागज़ी और औपचारिक रह जाते हैं। आर्थिक असमानता की खाई जब अत्यधिक गहरी हो जाती है तो समाज में विविध प्रकार की आर्थिक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं तथा उस समाज में राजतंत्रात्मक और सामंती प्रवृत्तियाॅ पुनर्जीवित होने लगती हैं।आर्थिक असमानता बढने से समाज में लोगों के परस्पर संबंध और संबाद स्वस्थ्य, समान, सहज ,समरस और स्वाभाविक नहीं रह जाते हैं और गहरे रूप से अमीर और गरीब में विभाजित  समाज के रिश्ते-नाते गैर लोकतंत्रिक राजतंत्रीय परम्पराओं के अनुरूप दाता और पाता की तरह व्यवहृत होने लगते हैं। आज स्वाधीनता के पचहत्तर वर्ष बाद भी सरकार और आम जनमानस के मध्य रिश्ता दाता और पाता का बना हुआ है। विभिन्न राजनीतिक दलों के राजनेताओं द्वारा  बार-बार सार्वजानिक मंचों से  समानता के अनगिनत नारे उछाले गये । हर चुनावी मौसम में समानता के नारे उछाले जाते हैं परन्तु तमाम सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों के बावजूद असमानता की खाई उत्तरोत्तर बढती ही जा रही हैं। 

किसी देश की माली हालत का आकलन करने वाली विभिन्न राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के अनुमान के मुताबिक भारत सहित पूरी दुनिया में अमीरी और गरीबी की खाई बढती ही जा रही है। यह स्थिति समानता और न्याय पर आधारित समाज में विश्वास करने वालों के लिए चिंताजनक है। 

आर्थिक रूप से समान समाज बनाने का प्रयास प्राचीन काल से चिंतको और विचारकों द्वारा किया जाता रहा है।भारत में आर्थिक समानता और आर्थिक न्याय की स्थापना के लिए भारत की लगभग समस्त दार्शनिक एवम आध्यात्मिक परम्पराओं में अपरिग्र्ह का सिद्धांत पाया जाता है। विशेष रूप से महावीर स्वामी और महात्मा बुद्ध ने इस पर अत्यधिक जोर दिया था। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के दौर में क्रांतिदृष्टा कबीर ने अपनी रचनाओं के माध्यम से इसे फिर से पुनर्जीवित किया। 

साई इतना दीजिये जितना कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय…

स्वाधीनता-संग्राम के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आर्थिक न्याय की स्थापना और आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए “न्यासधारिता का सिद्धांत” प्रस्तुत किया। जिसके अनुसार सम्पत्ति का स्वामी स्वयं को सम्पत्ति का स्वामी न समझकर स्वयं को सम्पत्ति का संरक्षक समझें और अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही उस सम्पत्ति से खर्च करें। स्वाधीनता उपरांत प्रसिद्ध गाँधीवादी संत बिनोवा भावे ने भूदान आंदोलन के माध्यम आर्थिक असमानता तथा देश में विद्यमान भूमि के असमान वितरण को दूर करने के लिए सराहनीय प्रयास किया। इस उत्कट प्रयास के लिए संत बिनोवा भावे को रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया । इन व्यक्तिगत प्रयासों के साथ स्वाधीनता उपरांत बनने वाली सरकार ने जमींदारी और जमींदारी जैसे अन्य प्रथाओं को समाप्त कर दिया। हमारे मेधासंपन्न संविधानविद महान स्वाधीनता-संग्राम के आदर्शों मूल्यों और सिद्धांतों से अनुप्राणित थे। इसलिए समानता पर आधारित समाज बनाने के लिये भारतीय संविधान में पर्याप्त प्रावधान किए। भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्वों में इसके लिए कई प्रावधान किए गए। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को साकार करने के लिए नीति निदेशक तत्वों में पर्याप्त  प्रावधान किए गए हैं जैसे राज्य आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराएगा, राज्य आर्थिक क्षेत्र में एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करेगा, राज्य आर्थिक विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया को लागू करने का प्रयास करेगा, राज्य लघु कुटीर उद्योगो को बढावा देगे जिससे देश की दौतल अधिकतम लोगों तक वितरित हो सके, राज्य कल कारखानों में कामगारों को प्रबंधन में हिस्सेदारी देने का प्रयास करेंगा और राज्य पंचायती राज्य व्यवस्था को लागू सत्ता के विकेन्द्रीकरण का प्रयास करेगा। परन्तु पचहत्तर वर्ष बाद नीति निदेशक तत्व सीर्फ नैतिक उपदेश बनकर रह गये। संविधान में वर्णित नीति निदेशक तत्वों को धरातल पर उतार कर अमीरी और गरीबी की बढती दरार कम किया जा सकता है। 

आज इक्कीसवीं शताब्दी के दो दशक बीत गये पर आज भी आज भारत में लगभग उन्नीस करोड़ लोग शाम को भूखे पेट सोते हैं। एक ऑकडे के अनुसार भारत में आर्थिक संकेन्द्रण तेजी से बढता जा रहा हैं। यह सत्य है कि-उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण के नारे के साथ नब्बे के दशक में जिस नई अर्थव्यवस्था का आगाज हुआ उसने उपभोक्ताओं के लिए व्यापक बाजार तैयार किया परन्तु बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढते आर्थिक वर्चस्व के कारण भारत सहित तिसरी दुनिया के देशों के लघु कुटीर और परम्परागत उद्योग धन्धे ध्वस्त हो गये।1995 मे विश्व व्यापार संगठन के आविर्भाव के उपरांत तिसरी दुनिया के देशों पर  बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रश्रय देने का दबाव बढता गया। नब्बे के दशक में भारत में बनने वाली लगभग प्रत्येक  सरकारो में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आमंत्रित करने की होड़ लगी रही और सरकारे इसको अपनी आर्थिक उपलब्धि के रूप में प्रचारित करती रहीं।  आर्थिक क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चलन-कलन से आर्थिक संकेन्द्रण बढना स्वाभाविक था। भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था हैं। आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए कृषि के साथ-साथ कृषि आधारित लघु-कुटीर उद्योग धन्धों को मजबूत करना आवश्यक है। इसके द्वारा आर्थिक विकेन्द्रीकरण को गति मिलेगी और आर्थिक असमानता को कम किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त जमाखोरी, मुनाफाखोरी, काला बाजारी रिश्वतखोरी ,आर्थिक भ्रष्टाचार और आर्थिक अनियमितताओं पर नियंत्रण कर आर्थिक असमानता को काफी हद तक दूर किया जा सकता है। वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता कार्ल मार्क्स ने आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए निजी सम्पत्ति के उन्मूलन का सिद्धांत दिया था। परन्तु यह सिद्धांत व्यवहारिक नहीं है और विसंगतियों से भरा हुआ है। परन्तु कल्याणकारी अर्थशास्त्र में विश्वास करने वाले इस तथ्य से सहमत नजर आते हैं निजी सम्पत्ति की अधिकतम सीमा का निर्धारण अवश्य होना चाहिए। अमीरी और गरीबी की बढती दरार को कम करने का प्रयास करना होगा। दाता और पाता का नाता तोड़ कर भ्राता का नाता बनाकर ही हम स्वस्थ्य समरस और शहीदों के सपनों का भारत बना सकते हैं। 

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मनोज कुमार सिंह
स्वतंत्र लेखक, साहित्यकार एवं विश्लेषक है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।