पहले ही समय कम है ऐसे में नीतीश के प्रस्ताव पर ढील देना कहीं कांग्रेस को भारी न पड़ जाए!

पहले ही समय कम है ऐसे में नीतीश के प्रस्ताव पर ढील देना कहीं कांग्रेस को भारी न पड़ जाए!

कांग्रेस के 24 25 26 फरवरी को रायपुर में होने वाले पूर्ण अधिवेशन ( प्लेनरी) में कई प्रस्ताव पास होंगे। मगर राजनीतिक लोगों की निगाहें एक ही विषय पर होंगी कि कांग्रेस विपक्षी एकता पर कितने सालिड तरीके से आगे बढ़ती है। कोई ठोस प्रस्ताव पास करके विपक्ष को सकारात्मक संदेश देती है या औपचारिक तरीके से छूती भर है।

नीतीश कुमार ने सही समय और सही जगह पर यह सवाल उठाया है। समय सही तो इसलिए है कि कांग्रेस का सबसे बड़ा आयोजन होने जा रहा है। सामान्यत: पांच साल में यह पूर्ण सत्र या अधिवेशन होता है। या नए अध्यक्ष के चुनाव के बाद। किसी समय तो पूरी दुनिया की निगाहें इस पर लगी होतीं थीं कि कांग्रेस के अधिवेशन में क्या प्रस्ताव होता है। आजादी से पहले पूर्ण स्वराज या अंग्रेजों भारत छोड़ो के क्रान्तिकारी प्रस्ताव कांग्रेस अधिवेशनों में ही आए थे। 1929 में लाहौर में पूर्ण स्वराज और 1942 के मुंबई में अंग्रेजों भारत छोडो जैसे भविष्य की इबारत लिखने वाले प्रस्ताव कांग्रेस के अधिवेशनों में ही पारित हुए। और सही जगह इसलिए है कि वे पटना में विपक्षी एकता के ही एक मंच से बोले थे। सीपीआई ( एमएल) के अधिवेशन में। जिसमें विशेष आमंत्रितों के तौर पर नीतीश, तेजस्वी, कांग्रेस सब मौजूद थे। पहले कांग्रेस के अधिवेशनों में भी समान विचार की पार्टियों के नेता आते थे। तो यह अधिवेशन भी महत्वपूर्ण था और जगह पटना भी। क्योंकि इसी पटना बिहार ने हाल के दिनों की सबसे बड़ी विपक्षी एकता और सफल एकता दिखाई थी। 2015 के विधानसभा चुनाव बिहार में लालू और नीतीश के नेतृत्व में महागठबंधन बनाकर लड़े गए थे। और 2014 में केन्द्र से लेकर कई राज्यों में जीत के साथ आगे बढ़ रहे मोदी के रथ को इस महागठबंधन ने रोक दिया था। आज उसी गठबंधन की जरूरत राष्ट्रीय स्तर पर है।

लालू जी अभी स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। मगर तेजस्वी ने उनकी जगह काफी हद तक संभाल ली है। नीतीश वापस फार्म में हैं। मुख्यमंत्री हैं और महागठबंधन में वापस आकर अपनी नैतिक छवि वापस पा ली है।

उनका सवाल सही था कि कांग्रेस को सोचना चाहिए। इसका एक अच्छा पाजिटिव जवाब वहां कांग्रेस के प्रतिनिधि के तौर पर मौजूद सलमान खुर्शीद दे सकते थे। मगर उन्होंने एक बेमतलब का चलताऊ वाक्य बोलकर कि देखते हैं पहले आई लव यू कौन बोलता है इतने गंभीर और भविष्य के सवाल को हल्का बना दिया।

कांग्रेस में पता नहीं क्या समस्या है कि यहां राजनीतिक लोग तेजी से गायब होते जा रहे हैं। मसखरी का एक समय होता है। बड़े मामलों में गंभीर विषयों में यह अच्छी नहीं लगती है। राहुल ने अभी इतनी बड़ी यात्रा की। दूसरे दलों के लोग तो इसको कुछ महत्व दे ही नहीं रहे थे कांग्रेस के लोग भी अमहत्वपूर्ण मानते हुए इसके फेल होने की भविष्यवाणी कर रहे थे। और अन्ना हजारे को दूसरा गांधी बताने वाली जिस सिविल सोसायटी के कार्यक्रम में राहुल यात्रा शुरू होने से पहले और यात्रा के बाद गए वह तो राहुल से माफी की मांग कर रही थी। सिविल सोसायटी के नाम से जनमत पाई सरकार को झूठ के सहारे हटाने में अन्ना के सहयोगी रहे लोगों ने इन दो सम्मेलनों में क्या क्या कहा इसके पूरे वीडियो सामने आना चाहिए।

पहले वाले में तो हम थे। जहां हमें ट्वीट करने से खबर देने से लगातार रोका जा रहा था। वहां कहा गया कि हम राहुल को सशर्त समर्थन देगें। और राहुल ने यह स्वीकार किया था। अब वे शर्तें क्या हैं, क्या नहीं किसी को नहीं मालूम। इसी तरह कांग्रेस के और राहुल के माफी मांगने की बात! किस बात की माफी। राहुल ने और कांग्रेस ने पूर्व में बहुत गलतियां की हैं। क्या गलतियां? यह भी हमें नहीं मालूम। हो सकता है वह दो गलतियां हों जो राहुल ने तो नहीं कांग्रेस ने की थीं जिन्हें हमने उपर लिखा है। एक पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास करना और उसके लिए संघ्रर्ष शुरू करना दूसरे पूरे दम से कहना अंग्रेजों भारत छोड़ो! हो सकता है अन्ना और बाबा रामदेव को अपना आदर्श मानने वालों की निगाह में यह बड़ी गलतियां हों। जिसके लिए वे राहुल और कांग्रेस से माफी की मांग कर रहे थे। खैर जो भी हो 7 सितम्बर 2022 से पहले यह माहौल था कि किसी को भी विश्वास नहीं था कि यात्रा हो पाएगी और अगर होगी तो इतनी कामयाब होगी।

मगर यह कामयाब हुई। और इतनी कि पिछले साल दिए विपक्षी एकता के प्रस्ताव की नीतीश को फिर याद आ गई। जब यात्रा चल रही थी तब नीतीश को नहीं लगा कि यह इतनी कामयाब होगी। इसलिए वे यात्रा में शामिल नहीं हुए। विपक्ष का कोई बड़ा नेता शामिल नहीं हुआ। मगर अब जनता में इसका असर देखकर सबको लग रहा है कि इसका राजनीतिक फायदा उठाया जा सकता है। सही है उठाया भी जाना चाहिए।

पिछले साल नीतीश कुमार लालू यादव के साथ दिल्ली आकर सोनिया गांधी से मिले थे। विपक्षी एकता की बात हुई थी। मगर कोई प्रक्रिया चली नहीं। लेकिन अब जब अडानी का मामला आया तो संसद में विपक्षी एकता की तस्वीर बनने लगी। इसके दो बड़े कारण थे। एक तो यात्रा से बनी राहुल की स्वीकार्यता। और दूसरे हिडनबर्ग की रिपोर्ट से हिली सरकार। विपक्ष की हिम्मत बढ़ गई। जो आम आदमी पार्टी कभी कांग्रेस के साथ विपक्ष की मीटिंग में नहीं आती थी। वह रोज राज्यसभा में विपक्ष के नेता खड़गे के चेम्बर में होने वाली विपक्ष की बैठक में आने लगी। टीएमसी और सपा जो कभी आते थे और ज्यादातर नहीं वे सत्र के दौरान लगातार आए।

तो जो माहौल जनता के यात्रा के समर्थन से बना था वह अब आगे बढ़ने लगा है। नीतीश के इस आत्मविश्वास में दम है कि अगर सब एक हो गए तो भाजपा को सौ के अंदर रोक देंगे। हमें पता नहीं कि नीतीश के विपक्षी एकता के आव्हान के बाद कांग्रेस के किसी बड़े नेता ने उनसे बात की या नहीं। फौरन करना चाहिए थी। बड़े नेता से मतलब राहुल या खुद अध्यक्ष खड़गे को।

विपक्ष में और खासतौर से कांग्रेस में एक अजीब उदासीनता का भाव है। आम तौर पर होता यह है कि विपक्ष हमेशा एक्टिव, उत्साह से भरा होता है। जब कांग्रेस की सरकार थी तब भाजपा किस तरह सक्रिय रहती थी यह कोई बताने की बात नहीं है। लेकिन पिछले 9 साल से सत्ता पक्ष तो खूब सक्रिय बना हुआ है मगर विपक्ष और उसमें सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस अजीब खुमारी में घिरी रहती है।

पार्टी का पूर्ण सत्र हमेशा नेताओं में कार्यकर्ताओं में उत्साह फूंकने का काम करता है। इस बार तो पूर्ण सत्र एक बेहद सफल यात्रा के बाद हो रहा है। मगर कांग्रेस में कहीं उत्साह का जोश का भाव नहीं दिख रहा। नया अध्यक्ष भी बन गया है। उसी को पूर्ण कांग्रेस की स्वीकृति दिलाने के लिए यह अधिवेशन होता है। पूरे देश से कांग्रेस के हजारों सदस्य, जिन्हें आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के सदस्य (एआईसीसी मेम्बर) कहा जाता है इसमें शामिल होते हैं। किसी वक्त में एआईसीसी का मेम्बर होना बहुत गौरव की बात मानी जाती है। आज तो जुगाड़ से बहुत बनने लगे हैं। मगर फिर भी उन्हें ससम्मान पूर्ण अधिवेशन में आमंत्रित किया जाता है। और वे अध्यक्ष के चुने जाने को स्वीकृति देते हैं।

कांग्रेस को अपने इस पूर्ण अधिवेशन का फायदा उठाना चाहिए। और नेता कार्यकर्ताओं में जोश भरने के साथ विपक्षी एकता का रोडमेप भी क्लीयर करना चाहिए।

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Shakeel Akhtar Profile Photo
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