दुनिया परेशां हैं, कुछ तो बोलिए हुज़रे आला!

दुनिया परेशां हैं, कुछ तो बोलिए हुज़रे आला !

सुसंस्कृति परिहार : जी हां, चौंकिए नहीं तालिबान ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की और बाकायदा अपनी रीति नीति के बारे में विस्तार से बताया। उसे सुनकर देश दुनिया के संवेदनशील लोगों की यकीनन अच्छा लगा। शरीयत में तब्दीली का पैगाम समय की पुकार के अनुरूप है। इसे सुनकर, ख़ासतौर पर सहमी अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं की जान में जान आ गई होगी। अपना वतन छोड़ने वालों के कदम भी ठिठके होंगे। यह वही तालिबान है जिसने मलाला यूसुफजई को शिक्षा के प्रति जागरूकता अभियान चलाने के लिए सिर पर गोली मारी थी। यह वही तालिबान है जिसने मीडिया के एक हमारे फोटो ग्राफर दानिश सिद्दिकी को मौत के घाट हाल ही में उतारा था। जिसने हाल ही में हिजाब विहीन अफगानी महिलाओं को कोड़ों से मारा था जो अभी ही तो हमने देखा था। वे बदल रहे हैं उनमें इंसानियत वापस आने के संकेत प्रेस कॉन्फ्रेंस से मिले हैं। ख़ुदा खैर करे।

इधर हमारे देश में आज भी अंध धार्मिकता के प्रति बढ़ता रुझान और — मारे जाएंगे जैसे नारे दिल्ली में लग रहे हैं। एक विशेष कौम के प्रति नफ़रत फैलाने का काम ऊपर से चलाया जा रहा हो। जहां संविधान की घोर उपेक्षा जारी हो अपराधियों पर कृपा बरसाई जाएंगी रही हो। नागरिकों के मौलिक अधिकारों का तेजी से क्षरण हो रहा हो। आगे बढ़ती महिलाओं के प्रति दोषपूर्ण रवैया हो। स्त्री को आज़ादी के 75वर्ष बाद भी निजी सम्पत्ति बतौर समझा जा रहा हो। यौनिक हिंसा के अपराधी सत्ता में बिराजमान हों। देश में गरीब की जगह अमीरों की मदद की जा रही हो। जहां सिर्फ हम दोनों हमारे दो का शासन स्थापित हो। स्वायत्त संस्थाओं पर सरकार का दबाव हो। मीडिया गोदी मीडिया की भूमिका हो।जन आंदोलनों को राजद्रोह माना जाए। तो ये कहना ज़रा मुश्किल से होता है कि हम लोकतांत्रिक भारत में हैं। ये छद्म लोकतंत्र का साया है जो दुनिया की नज़र में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश बना हुआ है।

दुनिया परेशां हैं, कुछ तो बोलिए हुज़रे आला!

बहरहाल, अपने पड़ौस में हुए एक व्यापक परिवर्तन से हमारे साहिब भले मन ही मन चिंतित हो सकते हैं पर दुनिया का इतना बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत के प्रधानमंत्री की चुप्पी उदास करती है। क्या वास्तव में वे तालिबान से डर गये हैं। कुछ लोग तो यहां तक कहने से भी नहीं चूके कि लाल किले की जिस तरह घेराबंदी इस बार हुई उसके पीछे तालिबान का ही डर था। सवाल इस बात का है ये डर क्यों और कैसे उन्हें हिला गया क्या इसके मूल में अमरीका है और मित्रवर राष्ट्र इज़राइल। जिनका मूल उद्देश्य पेंटागन के हथियारों की सप्लाई है। वे आतंकी तैयार करते हैं और फिर आतंक के सफाए के नाम पर युद्ध जारी रखते हैं। ईराक में सद्दाम हुसैन के साथ वही हुआ और वही अफ़ग़ानिस्तान में। पाकिस्तान पर अमेरिका का वरद हस्त बना हुआ है। भारत पाक युद्ध या भारत-चीन युद्ध की चाहत में अमेरिका सतत लगा रहता है। अब कश्मीर के बहाने कभी भी किसी रूप में आतंक फैलाने की कोशिश होगी यह लगभग तय है। हमारे प्रधानमंत्री बुरी तरह से चीन, इजरायल, अमेरिका और पाकिस्तान और अब तालिबानी अफगानिस्तान से घिर चुके हैं। उनकी अपनी कोई दृढ़ नीति ना होने से हमारे पुराने मित्र भी किनारे लग चुके हैं। ऐसे में वे किस मुंह से बात करें। लेकिन उन्हें अपना रुख स्पष्ट करना ही होगा।वरना तालिबान भारत का शत्रु तो बना बनाया है। आइए, एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर डालिए। दुनिया के पत्रकार इंतज़ार में है।

दुनिया परेशां हैं, कुछ तो बोलिए हुज़रे आला!

जहां तक रुस का तालिबान को समर्थन देने की बात है पड़ोसी राष्ट्र के नाते ये जिम्मेदारी बनती है दूसरे नए अफगानिस्तान के लिए प्रगति के रास्ते खोलकर उसकी मदद भी हो सकती है। तालिबान की नीतियों में जिस तरह बदलाव की घोषणा हुई है वह चमत्कार अप्रत्यक्षत:रुस की वजह से सामने आया है।एक तरफ तालिबान अपनी सोच बदलने की मुहिम शुरू करने वाला है वहीं हमारा लोकतंत्रात्मक देश तालिबानी संस्कृति को यहां विस्तार देने में लगा है। साहिब देश हित में कुछ बोलिए। कुछ तो सोचिए। कहीं आपने अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति की तरह झोला उठाकर चलने का फैसला तो नहीं ले लिया।

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Susanskriti parihar
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