आदिवासियत और हमारा रवैया

आदिवासियत और हमारा रवैया

आदिवासी समाज अंग्रेजी शासन के काल से लगातार प्रताड़ना झेल रहा है यूं तो कहना यह चाहिए कि वह सदियों से प्रताड़ना का दंश झेल रहा है किंतु बाहरी आक्रमणकारी जब उनकी धरा भारत भू पर आए तब तथाकथित सभ्य कहे जाने इन आक्रमणकारियों से वे लड़े नहीं अपितु जंगल और पहाड़ों के सुदूर क्षेत्रों में शांतिपूर्वक रहने चले गए। तब से वे अब तक जंगलों और पहाड़ों में अपना कठिन जीवन जी रहे हैं किंतु उनके चेहरे पर शिकन नज़र नहीं आती वे मस्ती से रहते हैं।  रात नाचते गाते और झूमते हैं।  इन्हीं  आदिवासियों के बीच से कर्मा, सैला, मुद्रिका, जैसे महत्वपूर्ण लोकनृत्यों से दुनियां में भारत की साख है।  स्कूल ,कालेज, विश्वविद्यालय से लेकर महत्वपूर्ण सांस्कृतिक उत्सवों की ये पहचान है जान हैं।

आदिवासियत की सबसे बड़ी पहचान उनका स्वाभिमान है वे जीवन में कभी संग्रह नहीं करते।  एक मेहनत कश की तरह वे रोज कमाते खाते हैं कल की चिंता नहीं करते। ये प्राकृतिक धर्म है जैसे पशु-पक्षी और जानवर करते हैं।  इससे प्रकृति सुरक्षित है घने जंगलों और पहाड़ों में। उनके यहां जीवन बड़ा सरल और सहज है। स्त्री को बराबरी का दर्जा है।  पूर्वांचल के नागालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम आदि में अभी भी मातृसत्तात्मक समाज मिलता है।  उनके यहां लिंगानुपात में फीमेल आगे हैं।    वे लड़की और लड़के में कोई भेदभाव नहीं करते।   लड़कियों को अपनी पसंद का वर चुनने का अधिकार है बस्तर में तो अभी भी घोटुल बने हुए हैं जहां लड़के लड़कियां साथ रहकर वर वधु चुनते हैं चयन के बाद लड़के वाले वधु पक्ष से लड़की लेने के एवज में उल्टा उन्हें दहेज अपनी गुंजाइश के मुताबिक देते हैं।  वे जंगलों पहाड़ों की औषधियों का भरपूर ज्ञान रखते हैं।  वे आमतौर पर मोटे अनाजों मक्का,ज्वार ,बाजरा,रागी का इस्तेमाल करते हैं जो पौष्टिकता से भरपूर है।   जिसकी बदौलत वे पहाड़ और जंगलों में विचरण कर रोजाना पेट भरने की जुगत कर पाते हैं। उनके इन अनाजों, औषधियों , पहाड़ों और वन संसाधनों पर आजकल जमकर डाका डाला जा रहा है। ये तमाम चीजें शहरी उपभोक्ता के पास पहुंच रहे हैं।  सस्ते में वनोपज लेकर कारपोरेट बहुत ऊंचे दामों में बेच भारी भरकम मुनाफा कमा रहा है जिससे आदिवासी अब भोजन में राशन में मिल रहा कीड़े लगा अनाज खाने विवश हैं।

चिंताजनक यह है कि अब उनके जल, जंगल, ज़मीन और जीव जंतुओं से घिरे परिवेश पर सतत हमले हो रहे हैं।  विचित्र बात ये कि उन्हें मूलधारा में  लाने का उपक्रम ही बेतुका है। मूलधारा तो उनकी ही है जिनको हम तहस नहस करने उतारु हैं।  कथित विकास की तमाम कोशिशों ने उन्हें ना घर का रखा ना घाट का। वे जब से भारत गणराज्य में आदिवासी जनजाति की हैसियत से जुड़े हैं उनके भोले-भाले सांसद विधायक का भरपूर दोहन किया गया। उनका जब चाहा जैसा इस्तेमाल किया गया।  जब वे पढ़ लिख कर तथाकथित मूल धारा में शामिल होना चाहते हैं तो उनके साथ वही सलूक हो रहा है जो भारत में सदियों से दलितों के साथ हुआ है।

हालांकि आदिवासियत को सुरक्षित रखने हमारे संविधान में पर्याप्त व्यवस्थाएं मौजूद हैं पर जब सरकार को उनकी ज़मीन,जल और जंगल की ज़रुरत  होती है तो वह कहीं अभयारण्य में पर्यटन के नाम पर तो कभी उद्योग धंधों के नाम वहां की खनिज सम्पदा का दोहन कर रही है। निष्कासित हो जाने पर नाम मात्र का मुआवजा उन्हें मिलता है जिससे वे ना घर बना पाते हैं और ना ही भोजन जुटा पाते हैं ऐसे आदिवासी मज़बूरी में कहीं रिश्ते खींचते नज़र आते हैं या कहीं चंद पैसों के लिए अपने स्वाभिमान को गिरवी रख देते हैं। झारखंड में तो सैकड़ों महिलाएं अपने तन को बेचकर भोजन जुटा पाती हैं।  शुद्ध हवा और जल से वंचित होने के साथ ही वे पोष्टिक आहार भी नहीं पाते।   लगता है,आहिस्ता आहिस्ता उनकी आदिवासियत उनसे छिन जाएगी और वे एक दलित की भांति हमारे समाज में शामिल हो जाएंगे।

सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जब यह सिद्ध हो चुका कि वे कतई हिंदू नहीं हैं तो सरकार उन्हें हिंदू क्यों मान रही है। पूर्वांचल में नागालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम में वे चर्च ज़रुर जाते हैं पर जब धर्म की बात आती है तो वे प्राकृतिक धर्म के तहत वृक्षों, जानवरों, पक्षियों विविध जीव-जंतुओं जल स्त्रोतों आदि की ही पूजा करते हैं। आज भी शहरों , महानगरों में रहने के बावजूद वे शिव के सिवाय किसी की आराधना नहीं करते। शिव पर्वतीय हैं उनका आचार विचार रहन सहन आदिवासियों सा है संभवतः इसी लिए वे उनसे जुड़ गए होंगे।  उनकी आदिम संस्कृति को छेड़कर उन्हें कपोल कल्पित विचार देकर हम उनके सर्वनाश में जुटे हैं।

उन्हें एस टी का दर्जा देकर सरकार ने उनके लिए शिक्षा और रोजगार के दरवाजे खोले हैं किंतु उनकी तरक्की से क्या वे खुश हैं यह गंभीर चिंतन का विषय है वे आज भी सम्मानित नहीं है।  निरंतर अपमान सहन रहे हैं सीधी का पेशाब कांड इस सत्य को हाल ही में  सामने लाया है। पढ़े लिखे बच्चों को रोज़गार के नाम हजारों हजार वाहन  दिलाया गया ये सरकार कहती है किंतु पड़ताल करने पर पता चलता है उनके नाम का उपयोग कर सब्सिडी का फायदा लेकर वाहन लिया ज़रुर गया पर वह वाहन किसी और के पास है जिसने कुछ रुपए देकर उसे चुप करा दिया है। यह हकीकत है। आदिवासी कल्याण के नाम पर जो कुछ हो रहा है उस पर आदिवासियों को एकजुटता से समाधान ढूंढना चाहिए।

 

संघ की ओर से आदिवासियत को समाप्त करने की एक और मुहिम बड़े शालीन तरीके से चलाई जा रही है उन्हें ‘वनवासी ‘कहा जा रहा है जो उनकी पहचान को ख़त्म करने का उपक्रम है।  आज मणिपुर में संघ के प्रवेश के बाद आदिवासी समाज की महिलाओं के साथ जो घिनौनी हरकत हुई है वह शर्मनाक है। कूकी समाज यहां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।  इससे पहले त्रिपुरा में संघ की घुसपैठ वहां भी जो किया वह हमने देखा है।  कश्मीर फाईल्स बनाकर जो परोसा गया वह संघी विचारधारा का प्रतीक है जिसे प्रमोट करने वाले देश के मुखिया थे जो शर्मनाक है। यह उनके मन की बात बताता हूं।

खुशी की बात है कि  मध्यप्रदेश के आदिवासी  नेता हीरालाल अलावा ने घोषणा की है कि वे धार,  झाबुआ,  बड़वानी, खरगौन और रतलाम जिलों में निवेश क्षेत्र के नाम पर आदिवासियों की एक इंच भी ज़मीन नहीं देंगे आज आदिवासी समाज जागृत हुआ है वे अपने संसाधनों पर हो रहे हमलों से नागालैण्ड , मणिपुर,  छत्तीसगढ़ में जूझ रहे हैं। उनकी हिफाजत हम सबकी जिम्मेदारी है वे हमारी आदिम संस्कृति की ना केवल पहचान है बल्कि उनसे हम सब बहुत कुछ ज्ञानार्जन कर सकते हैं। जब आज हम पर्यावरण संकट के दौर से गुज़र रहे है,स्त्री के प्रति नफ़रत चरम पर है, पूंजीवादी कारपोरेट व्यवस्था का शोषण निरंतर उफान पर है तब उनके आदिम संस्कार हमारे मार्गदर्शक बन सकते हैं। आदिवासियत ही हमें  प्राकृतिक प्रकोपों से बचा सकती है। कायनात वे ही बचाए हुए हैं। उन्हें हर हाल में बचाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।

हमें सोचना होगा। आदिवासियों के प्रति जो रवैया हमने अख़्तियार किया है उसे बदलना होगा है।  जिन्हें हम असभ्य कह कर उनकी उपेक्षा कर रहे हैं उन्हें जानिए वे बहुत सभ्य और सुसंस्कृत हैं हुज़ूर।

We are a non-profit organization, please Support us to keep our journalism pressure free. With your financial support, we can work more effectively and independently.
₹20
₹200
₹2400
Susanskriti parihar
लेखिका स्वतंत्र लेखक एवं टिप्पणीकार है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।