तकनीकी प्रगति में कुछ भी सीधा-सरल नहीं होता। कोई भी नई प्रौद्योगिकी जो हमारे जीवन को आसान बनाने वाली चीज़ें लेकर आती हैं तो वह हम से बहुत सी चीजें छीन भी ले जाती है। यह इतना सहज से होता है कि हमें इसका तत्काल पता नहीं चल पाता। डिजिटल तथा अंतर्जाल (इंटरनेट) की प्रौद्योगिकी ने हमारे जीवन को जितना आसान बना दिया है उसकी पहले कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। डिजिटल तकनीक और इंटरनेट ने हमारी पहुंच को अकल्पनीय हद तक बढ़ा दिया है; हमारे लिए लिए सूचना के द्वार और मनोरंजन के नये वितान खोल दिए हैं। नई प्रौद्योगिकी से बनी आभासी दुनिया हमें मौजूद समय में आपस में जोड़ भी रही है। हम नई-नई खोजों का आनंद ले रहे हैं। बहुत से लोगों के लिए यह नयी डिजिटल व्यवस्था धन कमाने का जरिया भी बनी है। इससे हमने बहुत कुछ पाया है, मगर इसने हमसे बहुत सी चीजें छीन भी ली है जिसके लिए उम्रदराज हो रही पीढ़ी अनेक बार नोस्टेल्जिक हो उठती है। जैसे, फोटो एलबम को ही लें जिनमें हम बड़े जतन से अपनी, अपने परिजनों व मित्रों की, पारिवारिक एवं अन्य समारोहों की श्वेत श्याम और फिर रंगीन फोटुएं चिपकाते थे। उन्हें एल्बम की शीट पर लगाने के लिए चिपकने वाले कोनों का उपयोग करते थे। अब उन एल्बमों की जरूरत नहीं रही। अब डिजिटल स्टोरेज ने उन्हें हम से छीन लिया। अब फोटो खींचने वाले घरेलू गैर पेशेवराना कैमरे भी नई डिजिटल तकनीक ने हम से छीन लिए हैं। अब कैमरे के अपरचर व टाइमर का हिसाब भी नहीं सीखना पड़ता और न यह पता करने के लिए कि फ़ोटो साफ आई है या नहीं फिल्म के धुल कर आने का इंतज़ार करना पड़ता है। नये डिजिटल कैमरे और स्मार्टफोन हमारे लिए सभी काम खुद ही कर लेते हैं। ली गई तस्वीरों को इंटरनेट पर उपलब्ध मुफ़्त सुविधाओं से उन्हें न केवल सुधार ही सकते हैं बल्कि परिचितों से तुरंत साझा भी कर सकते हैं। कैमरे के ऑटो क्लिक को सेल्फ़ी ने छीन लिया है। सर्च इंजिन ‘गूगल’ से पहले हम किसी किताब का पता करने तथा उसे खरीदने के लिए शहर की किताबों की दुकानों के चक्कर लगाते थे और दुकानदारों की मिन्नतें करते थे कि अमुक किताब वह हमारे लिए मंगवा दे। नेट ने यह काम उनसे छीन कर अमेज़न और प्रकाशकों की वेब साइटों को दे दिया है। किताबें ही क्यों अन्य सामान, यहां तक कि भोजन की थाली भी, ऑनलाइन ऑर्डर दे कर मंगा सकने के नये जमाने में पुरानी चीजों का खो जाना किसी को अखरता नहीं। अब हम शहर के बाज़ार की जगह अधिकतर इंस्टाग्राम पर मौजूद खिड़कियों में विंडो शॉपिंग करते हैं, जहां लक्षित विज्ञापन होते हैं और जिनके प्रायोजक जानते हैं कि हमारी रुचियां क्या हैं। नई तकनीक ने विंडो शॉपिंग के आश्चर्य और लालसा के भाव और दूकान के अंदर की मनोरम झलक पाने का आनंद छीन लिया है। जब हम स्कूल या कॉलेज में पढ़ते थे तब हमारे लिए जो सबसे महत्वपूर्ण चीज होती थी वह थी डिक्शनरी। पढाकुओं के पास अंग्रेजी से अंग्रेजी, अंग्रेजी से हिन्दी और हिन्दी से हिन्दी की तीन-तीन डिक्शनरियां होती थी। अंग्रेजी की कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड दोनों डिक्शनरियां घर में होनी लाज़मी थी। अंग्रेजी से हिन्दी के लिए फादर कामिल बुल्के और हिन्दी की भार्गव की डिक्शनरियों का अपना रुतबा हुआ करता था। इंटरनेट ने हमारे बचपन और किशोर वय की साथी रही उन डिक्शनरियों को हमसे छीन लिया। ऐसे ही 12 खंडों वाले एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में कुछ खोजने के लिए कॉलेज की लाइब्रेरी जाना होता था क्योंकि यह भारी भरकम कोश खरीदना हर एक के बूते की बात नहीं होती थी। थोड़े ऊंचे पढ़ाकू थैसारस रख कर गर्व अनुभव करते थे। अब उनके लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं होती, सभी इंटरनेट पर मौजूद है।
डिजिटल क्रांति ने हमसे फुटकर नकदी भी छीन ली है। आज भारत के दूर-दराज के कोनों में रहने वाले लोग भी रोज़मर्रा का बहुत से सामान बिना नक़दी के ख़रीद रहे हैं। यहां तक कि एक पैकेट ब्रेड या बिस्किट ख़रीदने के लिए क्यूआर कोड स्कैन करके दस-बीस रुपये जैसी मामूली रक़म का भी भुगतान ऑनलाइन ही किया जाता है। नकद पैसा जेब में रखने की जरूरत अब नहीं रही है। दुनिया के किसी कोने से पेन-फ्रेंड की डाक से चिट्ठी मिलना छिन गया है। डायल करने वाले फोन, सीडी और डीवीडी प्लेयर जैसे यंत्र अब यादों में सिमट गये हैं। कभी हम छत पर एरियल लगा कर रेडियो सेट पर बड़ी सावधानी से ट्यून करके शॉर्टवेव पर रेडियो सिलोन, बीबीसी या दूर दराज के दूसरे देशों के प्रसारण सुनते थे। इंटरनेट ने इन सब को छीनते हुए उनके विकल्प स्मार्टफोन में दे दिए हैं। रेडियो के समाचारों से घड़ियां मिलाना भी हमसे छिन गया है। कुछ भी हो जाए आकाशवाणी पर समाचार ठीक निर्धारित क्षण पर शुरू होते थे न एक सेकेंड आगे न एक सेकेंड पीछे। रेडियो से घड़ी मिलाने का आनंद हमसे छिन गया। अब तो इंटरनेट से जुड़े स्मार्टफोन अपनी घड़ी अंतर्राष्ट्रीय और स्थानीय समय के अनुसार अपने आप सेट कर लेते हैं। नेट पर ही अब सारे रेडियो तथा टीवी स्टेशन मौजूद हैं जिनका जीवंत प्रसारण इंटरनेट की बदौलत डिजिटल दुनिया में उपलब्ध है। गत्ते के कागज पर छपा रेल का छोटा सा टिकट यात्रा पूरी होने तक अब जेब में संभाल कर रखने का अनुभव हमसे छिन गया है। उसे खरीदने के लिए रेलवे स्टेशन जाकर लंबी लाइन में लगना अब पुरानी बात हो गई है। इंटरनेट पर ऑनलाइन खरीदा गया टिकट हमारे फोन में रहता है और उसे स्क्रीन पर ही टीटी को जरूरत पड़ने पर दिखाया जा सकता है। इंटरनेट निर्विवाद रूप से एक प्रकार का जादू है, मगर उसने हमारे जीवन के कुछ पुराने जादू पर पोंछा फेर दिया है। हमारे दैनिक अस्तित्व पर इंटरनेट ने कैसा प्रभाव डाला है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सुबह आंख खुलते ही सबसे पहला काम स्मार्टफोन की स्क्रीन पर टैप करना तो अब लोगों की आदत बन चला है। हम ऑनलाइन दुनिया में अधिक से अधिक समय बिताने लगे हैं। इंटरनेट से पहले का जीवन अब गुदगुदाती सुखद स्मृति बन कर रह गया है जिसे वापस नहीं पाया जा सकता।
अब हमें कहीं पहुँचने के लिए किसी से रास्ता पूछने की जरूरत नहीं रही। कभी वे ड्राइवर अधिक सफल होते थे जिन्हें शहर के रास्ते हाथ की हथेली की तरह मालूम होते थे। अब उनकी जरूरत नहीं रही है। अब हम गूगल मैप से अपने गंतव्य तक पहुंचते हैं। टैक्सी वाले, जो अब कैब वाले कहलाते हैं, भी आपसे पता पूछ कर इंटरनेट से जुड़े अपने स्मार्टफोन में फ़ीड करते हैं और गूगल के निर्देशों के अनुसार रास्ता चुनते हैं और गंतव्य तक पहुंचते हैं। टैक्सी बुलाने के लिए भी उसी फोन का इस्तेमाल होता है जो हमारे हाथ में होता है। वास्तव में वह हमारी हथेली में पूरा कंप्यूटर है। इस पर छोटे संदेश या बड़े आलेख लिख कर भेज सकते हैं। इससे भी आगे बढ़ कर दुनिया के किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति से रीयल टाइम में संदेशों का आदान प्रदान ही नहीं कर सकते हैं बल्कि वीडियो चैट भी जब चाहें कर सकते हैं। फोन तो हम पहले भी करते थे और उस पर लंबी-लंबी बातें भी होती थी। अपने बचपन को याद कीजिए जब यह उलाहना सुनते थे कि अरे वह तो एक घंटे से फोन पर ही चिपका या चिपकी हुई बैठी है। अब जब कोई फोन पर गेम खेलने में व्यस्त हो तब भी कोई ऐसी शिकायत नहीं करता। अब तो किसी को फोन करने से पहले भी संदेश भेज कर पूछा जाता है कि क्या मैं आपको कॉल कर सकता हूं? यह नये शिष्टाचार ने पुराने बेतकल्लुफ़ शिष्टाचार को छीन लिया है। अनौपचारिक रिश्ते हम से छिन गए हैं। इंटरनेट के इस युग में क्या हममें से किसी को सचमुच दूसरों के जन्मदिन याद रहते हैं? यदि नजदीकी रिश्तेदारों या प्रतिदिन ऑफिस में बगल में बैठने वालों के जन्मदिन कोई हम से पूछ ले तो हम बगलें झांकने लगते हैं। इन तारीखों तथा फोन नंबरों को सलीके से लिखी छोटी डायरियां हमसे छिन गई हैं। चिंता किस बात की; इंटरनेट मौजूद है ना। जन्मदिन की शुभकामनाएं देने के लिए इमोजी के साथ इंटरनेट पूरी तरह तैयार रहता है। मगर जो इंटरनेट पर नहीं हैं उनका क्या? इंटरनेट का एक विरोधाभास यह है कि जहां इसने जिस दुनिया को हमारे लिए खोल दिया है, वहीं इसने उस दुनिया को छोटा भी महसूस कराया है। हम नदी, पहाड़, बागानों तथा स्मारकों के शानदार दृश्य असल में नहीं डेस्कटॉप पृष्ठभूमि में देखते हैं। ऑनलाइन सर्फिंग में कुछ घंटे बिताने के बाद हमें दुनिया छोटी, दोहरावदार और सपाट दिखने लगती है। शायद हम अपना बोरडम मिटाने के लिए स्मार्टफोन पर उंगलियां फिराते है। पहले लोग जीवन के उबाऊ पलों को सहज स्वीकार करते थे। भाषा विज्ञानी बताते हैं कि “बोरडम” शब्द आंशिक रूप से उन्नीसवीं सदी के मध्य तक सामने नहीं आया था। घर में मन नहीं लगा तो हम अवकाश में खाली फुटपाथों पर या आबादी से दूर लक्ष्यहीन सैर पर चले जाते थे। मोबाइल फोन और डिजिटल डाटा ने हमसे यह आनंद भी छीन लिया है।