सुसंस्कृति परिहार : भारतीय संविधान के मुताबिक भारत निर्वाचन आयोग एक स्वायत्त संवैधानिक प्राधिकरण है जो भारत में संघ एवं राज्य निर्वाचन प्रक्रियाओं का संचालन करने के लिए उत्तरदायी है। यह निकाय भारत में लोक सभा, राज्य सभा, राज्य विधान सभाओं, देश में राष्ट्रपति एवं उप-राष्ट्रपति के पदों के लिए निर्वाचनों का संचालन करता है।उसे निष्पक्ष होना चाहिए। लेकिन उसकी गतिविधियां यदि संदिग्ध हों तो उसकी निगरानी कौन करेगा?
विगत 15 दिसंबर को चुनाव आयोग को कानून मंत्रालय (चुनाव आयोग का प्रशासनिक मंत्रालय) के एक अधिकारी से एक पत्र मिलता है, जिसमें कुछ ‘असामान्य’ शब्दों का इस्तेमाल किया गया था।इस पत्र में कहा गया था कि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव पी के मिश्रा आम मतदाता सूची को लेकर एक बैठक की अध्यक्षता करने वाले हैं और चाहते हैं कि इसमें ‘मुख्य चुनाव आयुक्त’ मौजूद रहें।यह पत्र ‘असामान्य’ इसलिए था, क्योंकि चुनाव आयोग आमतौर पर अपने कामकाज की स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए सरकार से दूरी बनाए रखता है। बीते साल इसी विषय पर 13 अगस्त और 03 सितंबर को हुई बैठकों में चुनाव आयोग केअधिकारियों ने हिस्सा लिया था न कि चुनाव आयुक्तों ने।इस घटनाक्रम के सामने आने के बाद प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए विपक्ष ने शुक्रवार को केंद्र की मोदी सरकार पर प्रहार किया और आरोप लगाया कि वह निर्वाचन आयोग से अपने मातहत जैसा व्यवहार कर रही है।
स्वतंत्र भारत में ऐसा कभी नहीं सुना गया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा मुख्य निर्वाचन आयुक्त को तलब किया गया हो। आखिरकार यह सब क्यों हुआ वह 9 जनवरी के चुनाव आयोग के रैलियों,रोड शो आदि के प्रतिबंधात्मक आदेश से जाहिर होता है।यह भी कहा गया कि अब डिजीटल तरीके से प्रचार होगा और उसका भी हिसाब किताब रखना होगा। इससे पहले 8 जनवरी को पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा हुई। आचार-संहिता के बाद अब विपक्ष प्रतिरोध भी खुलकर नहीं कर सकता। हालांकि सभी विपक्षी पार्टी के विरोध में बयान आए क्योंकि डिजीटल प्रचार की पूर्ववत तैयारी सिवाय भाजपा के किसी की नहीं थी।
यह तरीका था दूसरे दलों को प्रचार से रोकने का।इस परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो भाजपा के नेताओं मोदी,अमित शाह, राजनाथ सिंह तथा आदित्य नाथ योगी एक माह पूर्व यानि चुनाव घोषणा से पहले पूरे राज्यों में शासकीय खर्चे पर बेहिसाब रैलियां और लोक लुभावन घोषणाओं के साथ मुफ्त अनाज और उपहार बांट चुके थे।इन नेताओं को डर था यदि सरकारी संरक्षण नहीं रहा तो लोग उन्हें खदेड़ेंगे तथा वे सभाओं में भीड़ नहीं जुटा पायेंगे।इसके बरक्स अखिलेश और प्रियंका की रैलियां भी उन्हें डराने लगी थी।पी एम की फिरोजपुर की फ्लाप सभा की ख़बर ने उन्हें मानसिक तौर पर इतना उत्तेजित किया कि अपने कार्यकर्ताओं की जय-जयकार के बीच भी अपने को इतना असुरक्षित महसूस किए कि भटिंडा में ये कह दिए कि अपने मुख्यमंत्री से कहना कि मैं ज़िंदा बच गया हूं। बहरहाल डांवाडोल हालत में ऐसी मन:स्थिति स्वाभाविक है।
यहां इस बात को भी याद किया जाना चाहिए कि संघ ने राज्य के चुनावों में मोदीजी के जाने पर प्रतिबंध लगाया था । इसलिए उन्होंने पहले ही मन की कर ली।अब वहां कोई भाजपा नेता भी नहीं बोल पायेगा। यकीनन यह मोदी का संघ को उन पर लगाए प्रतिबंध का ही जवाब है। निर्वाचन आयोग इसमें शक नहीं मोदी के हाथ की कठपुतली बना हुआ है। विदित हो संघ हर हाल में योगी को जिताने के मूड में है और मोदी उस राह में कांटा बनकर खड़े हुए हैं।अब जब निर्वाचन आयोग भी साथ है मोदी के, तो योगी की हार बिल्कुल तय ही मानिए।जनता की रुझान भी यही बता रही है।
आईए एक और घटना से मोदी और चुनाव आयुक्त के मधुर रिश्ते को समझा जा सकता है जब कोर्ट ने केंद्र और चुनाव आयोग को नोटिस जारी किया और चार हफ्ते में जवाब देने को कहा। वह मामला है कि मतदाताओं से अनुचित राजनीतिक लाभ लेने के लिए इस प्रकार के लोकलुभावन कदम उठाने पर पूर्ण प्रतिबंध होना चाहिए क्योंकि यह संविधान का उल्लंघन है और निर्वाचन आयोग को इसके खिलाफ उचित कार्रवाई करनी चाहिए
कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि ये गंभीर मामला है। चुनाव को प्रभावित करता है, लेकिन अदालत के दखल का दायरा बहुत सीमित है। कोर्ट ने आगे कहा कि हमने चुनाव आयोग को इस पर गाइडलाइंस बनाने को कहा लेकिन इलेक्शन कमीशन ने महज एक मीटिंग की। उसका नतीजा क्या रहा, ये भी पता नहीं।
याचिका में राजनीतिक दलों के ऐसे फैसलों को संविधान के अनुच्छेद-14, 162, 266 (3) और 282 का उल्लंघन बताया गया है। याचिका में चुनाव आयोग को ऐसे राजनीतिक दलों का चुनाव चिन्ह को जब्त करने और पंजीकरण रद्द करने का निर्देश देने की मांग की है, जिन्होंने सार्वजनिक धन से तर्कहीन मुफ्त ‘उपहार’ वितरित करने का वादा किया था। याचिका में दावा किया गया है कि राजनीतिक दल गलत लाभ के लिए मनमाने ढंग से या तर्कहीन ‘उपहार’ का वादा करते हैं और मतदाताओं को अपने पक्ष में लुभाते हैं, जो रिश्वत और अनुचित प्रभाव के समान है। पांच राज्यों के चुनाव के मौके पर दायर याचिका में कहा गया है कि ऐसे वादों पर पूरी तरह पाबंदी लगना चाहिए, क्योंकि ऐसे लोकप्रिय वादों से वोटरों को लुभाकर अनुचित राजनीतिक लाभ प्राप्त किया जाता है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सीईसी) सुशील चंद्रा और चुनाव आयुक्तों-राजीव कुमार तथा अनूप चंद्र पांडे द्वारा प्रमुख चुनाव सुधारों को लेकर निर्वाचन आयोग एवं कानून मंत्रालय के बीच परस्पर समझ को समान बनाने के लिए हाल में प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के साथ एक अनौपचारिक बातचीत करने का मामला सामने आया है।
अदालतों को चुनाव आयोग की स्वतंत्रता पर 1995 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले और कार्यपालिका से चुनाव आयोग के अलगाव के महत्व को देखते हुए कदम उठाना चाहिए.’चुनाव आयोग और पीएमओ के बीच बैठक के ‘अनएडिटेड मिनट्स’ को सार्वजनिक जांच के लिए उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
पूर्व मुख्य निवार्चन आयुक्त एसवाई कुरैशी ने कहा, ‘यह बिल्कुल ही स्तब्ध कर देने वाला है।’ अपनी टिप्पणी को विस्तार से बताने का आग्रह किए जाने पर उन्होंने कहा कि उनके शब्दों में हर चीज का सार है।सरकार चुनाव आयोग को लिख सकती थी और प्रस्तावित सुधारों पर अपनी दलीलें दे सकती थी और चुनाव आयोग तब सर्वदलीय बैठक बुला सकता था।
कुल मिलाकर निर्वाचन आयोग की पी एम ओ की जी हुजूरी भारतीय संविधान की अवमानना और भारतीय जनता के साथ कपटपूर्ण व्यवहार है। इसमें लगाम लगाने की ज़रूरत है वरना निष्पक्ष चुनाव अर्थहीन हो जायेगा। यहां इस बात पर भी चुनाव आयोग का कभी ध्यान नहीं गया जब सभी विपक्षी दल एकमतेन ई वी एम हटाने की मांग किए लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा की इच्छा ही सर्वोपरि मानी गई।ऐसी गंभीर हालत में मतदाताओं की जागरूकता अपरिहार्य है।