डॉ. बी एन सिंह : इस पर विचार करने के लिये पहले हमे इस देश के हजारों वर्ष पहले की सामाजिक , राजनैतिक , आर्थिक संरचना को समझना होगा। हम कबीलों मे रहते थे, ‘कबीला’ कहते किसे हैं? इस शब्द की अब तक दी गई परिभाषओं के अनुसार कबीला निश्चित भौगोलिक सीमा के भीतर वास करनेवाला ऐसा अंतर्विवाही सामाजिक समूह होता है जो अन्य कबीलों और जातियों से सामाजिक दूरी मानता है किंतु जातिव्यवस्था की भाँति सामाजिक द्वेष जैसी भावना से अछूता है। कबीले को अपनी परंपराएँ, विश्वास एवं रीतियाँ होती हैं और प्रजातीय तथा भागौलिक संग्रथन से उद्भूत सजातीयता की भावना कबीले के सदस्यों में बाह्य प्रभावों से प्रतिरक्षा को जन्म देती है।
सांस्कृतिक पदानुसार कबीलों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है :
(1) सांस्कृतिक दृष्टि से ग्राम्य व नगरसमूहों से दूर कबीले, अर्थात् वे जो प्राय: संपर्कविहीन हैं,
(2) नगरसंस्कृति से प्रभावित वे कबीले जिनमें संपर्कों के फलस्वरूप समस्याओं का बीजारोपण हुआ है और
(3) ग्राम्य तथा नगरसमूहों के संपर्क में आए वे कबीले जिनमें ऐसी समस्याएँ या तो उठी ही नहीं, अथवा सफल पर-संस्कृति-धरण (अकल्चरेशन) के कारण अब नहीं रहीं।
कबीलों के संचालन के लिये प्रत्येक कबीला का एक मुखिया होता था, वह युद्ध मे नेतृत्व करता था, आपसी मतभेदों में पंचका कार्य करता था और कबीलों के पवित्र प्रतीक चिन्हों का संरक्छक था । कोई आम न्यायलय नही था , न्यायिक शांति के अभाव में अंतर समूह नियंत्रण को आपसी खूनी रिश्तों के सिद्धांत के आधार पर कायम किया जाता था । किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा कबीले के किसी सदस्य के उपर किये गये अत्याचार को पूरे कबीले पर अत्याचार माना जाता था तथा दुश्मनी उस पूरे कबीले के साथ मानी जाती थी जिस कबीले का वह विरोधी सदस्य होता था। आँख के बदले आँख , जीवन के बदले जीवन का सिद्धांत था।
सभी कबीले बराबर नहीं थे, असमानता व दासता वहां भी था, कबीलों मे माल असबाब लूटने के लिये एक दूसरे से संघर्ष आम बात थी।कमजोर कबीलों को मजबूत कबीले लूट कर दास बना लेते थे। इस प्रकार एक एक परिवार दूसरे परिवार से , एक वंश दूसरे वंश से लड़ता है और यह कबीला स्तर तक चलता रहता था।
आगे चलकर कबिलाई समाज मे सामाजिक – सांस्कृतिक विकास की प्रक्रिया द्वारा बहुत से परिवर्तन होकर हम एक सभ्य मानव समाज बनाने मे सफल हुये।
संस्कृति के चार अध्याय राष्ट्रकवि स्वर्गीय रामधारी सिंह दिनकर की एक बहुचर्चित पुस्तक है जिसे साहित्य अकादमी ने सन् १९५६ में न केवल पहली बार प्रकाशित किया अपितु आगे चलकर उसे पुरस्कृत भी किया। इस पुस्तक में दिनकर जी ने भारत के संस्कृतिक इतिहास को चार भागों में बाँटकर उसे लिखने का प्रयत्न किया है। वे यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि भारत का आधुनिक साहित्य प्राचीन साहित्य से किन-किन बातों में भिन्न है और इस भिन्नता का कारण क्या है ? उनका विश्वास है कि भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रान्तियाँ हुई हैं और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रान्तियों का इतिहास है।
पहली क्रान्ति तब हुई, जब आर्य भारतवर्ष में आये अथवा जब भारतवर्ष में उनका आर्येतर जातियों से सम्पर्क हुआ। आर्यों ने आर्येतर जातियों से मिलकर जिस समाज की रचना की, वही आर्यों अथवा हिन्दुओं का बुनियादी समाज हुआ और आर्य तथा आर्येतर संस्कृतियों के मिलन से जो संस्कृति उत्पन्न हुई, वही भारत की बुनियादी संस्कृति बनी। इस बुनियादी भारतीय संस्कृति के लगभग आधे उपकरण आर्यों के दिए हुए हैं। और उसका दूसरा आधा आर्येतर जातियों का अंशदान है।
दूसरी क्रान्ति तब हुई, जब महावीर और गौतम बुद्ध ने इस स्थापित धर्म या संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिन्ताधारा को खींच कर वे अपनी मनोवांक्षित दिशा की ओर ले गये। इस क्रान्ति ने भारतीय संस्कृति की अपूर्व सेवा की, अन्त में, इसी क्रान्ति के सरोकार में शैवाल भी उत्पन्न हुए और भारतीय धर्म तथा संस्कृति में जो गँदलापन आया वह काफी दूर तक, उन्हीं शैवालों का परिणाम था।
तीसरी क्रान्ति उस समय हुई जब इस्लाम, के विजेताओं के धर्म के रूप में, भारत पहुँचा और देश में हिन्दुत्व के साथ उसका सम्पर्क हुआ।
चौथी क्रान्ति हमारे अपने समय में हुई, जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ तथा उसके सम्पर्क में आकर हिन्दुत्व एवं इस्लाम दोनों ने नव-जीवन का सम्भव किया।
आगे रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं, ” उत्तर-दक्षिण पूर्व पश्चिम देश में जहां भी जो हिन्दू बसते है। उनकी संस्कृति एक है एवं भारत की प्रत्येक क्षेत्रीय विशेषता हमारी इसी सामासिक संस्कृति की विशेषता है। तब हिन्दू एवं मुसलमान हैं, जो देखने में अब भी दो लगते हैं। किन्तु उनके बीच भी सांस्कृतिक एकता विद्यमान है जो उनकी भिन्नता को कम करती है। दुर्भाग्य की बात है कि हम इस एकता को पूर्ण रूप से समझने में असमर्थ रहे है। यह कार्य राजनीति नहीं, शिक्षा और साहित्य के द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए , न कि राजनिती के द्वारा।
कांग्रेस की विचारधारा
महात्मा गांधी के बाद कांग्रेस के पास ऐसा कोई नेता नहीं रहा जो कि कांग्रेस संगठन और कांग्रेस की विचारधारा पर गहराई से मनन-चिंतन करके उसे अमली जामा पहना सके। भारत का सौभाग्य था और महात्मा गांधी की अचूक निगाह थी कि उन्होंने देश निर्माण के लिए जवाहरलाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी बहुत पहले ही चुन लिया था। नेहरू ने 200 साल के उपनिवेशवाद से मुक्त हुए एक नए देश को अपने पैरों पर खड़ा करने का संकल्प लिया और भारत की एक मज़बूत नीव बनाई। नेहरू और कांग्रेस की सबसे ख़ास बात यह थी कि उन्होंने भारत का निर्माण लोकतंत्र की बुनियाद पर किया। अगर नेहरू और कांग्रेस की सोच संकीर्ण होती तो वह भारत को तानाशाही की ओर भी ले जा सकने में पूरे सक्षम थे और उनके पास इसके लिए पर्याप्त ताकत भी थी। लेकिन जिस एक मोर्चे पर नेहरू की कांग्रेस ध्यान नहीं दे पाई, वह कांग्रेस का सांगठनिक और वैचारिक कार्यभार था। सच पूछिए तो नेहरू ने व्यक्तिगत रूप से इस दिशा में भी बहुत से प्रयास किए और नेहरू के यह प्रयास अभिलेखीय प्रमाणों के रूप में उपलब्ध भी हैं, लेकिन नेहरू को इस बड़े काम के लिए ज़रूरी साथ नहीं मिला। किस तरह से 1948 के बाद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के कुछ बड़े नेताओं में अपने-अपने रास्ते अलग कर लेने की प्रतिस्पर्धा और कांग्रेस पर आक्रमण करके ख़ुश हो लेने की प्रवृत्ति रही, यह अलग लेख का विषय है। फिलहाल इतना कहना पर्याप्त है कि इन नेताओं में राजनीतिक अधीरता बढ़ती चली गई और कांग्रेस का विरोध करने के लिए इन्होंने समाज के अवांछनीय दलों को भी अपने में जोड़ लिया। राम मनोहर लोहिया इस अंध कांग्रेस विरोध के सबसे बड़े पैरोकार बनते हैं और उनके बाद में 1972 से जे0पी0 खुद को दूसरा गांधी समझ कर जाने-अंजाने उन लोगों की गोद में जा बैठते हैं, जो कि न केवल भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का विरोधी रहा, बल्कि जिसने महात्मा गांधी की हत्या की ज़मीन बनाई और नेहरू जिनकी आंख में हमेशा खड़कते रहे।
फिलहाल, बात इस पर कि कांग्रेस की मूल विचारधारा क्या है?
विचारधारा कोई सुविधानुसार टुकड़े-टुकड़े जोड़कर बनाया गया लबादा नहीं होता। किसी दल की विचारधारा में बहुत से प्रत्यक्ष व सूक्ष्म वैचारिक तन्तु एकसाथ जुड़े रहते हैं। विचारधारा का निर्माण रातो-रात नहीं हो जाता, बल्कि इसमें लम्बा समय लगता है और विचार व कर्म दोनों में एक सतत् सम्बन्ध बनाना होता है। कांग्रेस की विचारधारा को समझने के लिए कुछ बिन्दुओं पर निगाह साफ़़ होना/करना बहुत ज़रूरी है।
1. अंग्रेज़ों की जो नीति उनके समय में ’फूट डालो और राज करो’ की थी, वही बाद में उनके जाने के बाद थोड़ा अलग शब्दावलियों के साथ आईडेंटिटी पॉलिटिक्स के रूप में है। कांग्रेस की विचारधारा का आईडेंटिटी पॉलिटिक्स से मूलभूत विरोध है।
2. कांग्रेस की विचारधारा की रीढ़ राष्ट्रवाद है। यह राष्ट्रवाद यूरोप के राष्ट्रवाद व वर्तमान में संघ के राष्ट्रवाद से अलग है। यह राष्ट्रवाद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ विकसित हुआ और इसकी अपनी विशिष्टताएं हैं। कांग्रेस के राष्ट्रवाद का मूल मंत्र देश की सारी जनता को एक सूत्र में किसी माला की तरह पिरोना है, जिसमें धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा या किसी तरह की बाध्यता नहीं है। भारत के राष्ट्रवाद की परिकल्पना और कांग्रेस के राष्ट्रवाद की परिकल्पना, दोनों समानार्थी हैं। जिस दिन देश से कांग्रेस के राष्ट्रवाद का पराभव हो जाएगा, उस दिन यह महान भारत भूमि आपसी गृह युद्धों का अखाड़ा बन जाएगी। भारत के अनगिनत टुकड़े हो जाएंगे और कोई देशभक्ति की भावना इसे रोक नहीं पाएगी।
3. कांग्रेस की सामाजिक और सांस्कृतिक विचारधारा का मूल यह है कि हमें एकजुट रहते हुए तमाम सामजिक बुराइयों से जूझना है और सबको साथ लेते हुए इस भारत को एक आधुनिक चेतना सम्पन्न राष्ट्र बनाने में लगना है। यहां पर आधुनिकता का मतलब पश्चिम का अंधा अनुकरण नहीं है, बल्कि भारत की ज़रूरत के हिसाब से एक विशिष्ट आधुनिक सर्व कल्याणकारी सोच से है। यह अतीतजीवी बिलकुल नहीं हैं। यह अपनी सोच में पोंगापंथी भी नहीं है।
4. कांग्रेस की विचारधारा का एक सबसे बुनियादी तत्व इसका ग़रीबों की पक्षधर होना है। जो कमज़ोर है, जो सताया हुआ है, जिस पर अत्याचार हुआ है, कांग्रेस उसके लिए हमेशा मौजूद है। समाज में हर तरह की ग़ैर बराबरी को मान्यता नहीं देनी है। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की बुनियादी सोच में यह चीज़ शुरू से घुली हुई है और यह कांग्रेस में भी है।
5. धर्मनिरपेक्षता के बिना कांग्रेस की विचारधारा की कल्पना नहीं की जा सकती। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के लगभग सभी बड़े नेताओं में इस बात पर लगभग एक राय थी कि धर्म को कभी राष्ट्र निर्माण का ज़रिया नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि यह हर तरह से उस देश की जनता के लिए आत्महत्या के समान होता है, जो धर्म और राजनीति के घालमेल में फंसती है। भारत के सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता क्या है, इसको समझने और महसूस करने के लिए महात्मा गांधी से बड़ा कोई उदाहरण नहीं है। यहां यह बात कहना ज़रूरी है कि भारत के लिए धर्मनिरपेक्षता कोई मजबूरी की चीज़ नहीं है बल्कि भारतीय समाज की प्राण वायु है। यह भारत की सभ्यता और संस्कृति में हवा की तरह घुली हुई चीज़ है।
अन्त में एक बात और, विचारधारा के प्रश्न को ढुलमुल तरीके से नहीं समझा जा सकता। विचारधारा किसी राजनीतिक पार्टी का ह्रदय स्थल है, उसमें मिलावट या हीला-हवाली की गुंजाइश नहीं होती। कांग्रेस पहले ही इन वैचारिक मिलावटों की वजह से बहुत नुकसान उठा चुकी है। कांग्रेस को दृढ़ता के साथ अपनी विचारधारा को जानना और रखना होगा और तभी कांग्रेस इस देश की सेवा और वर्तमान अंधे युग से रक्षा करने में सक्षम होगी।
Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं।