बीबीसी की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि हिन्दुस्तानी शहरों में लड़कियों और महिलाओं का घर से निकलना लडक़ों और आदमियों के मुकाबले कितना कम होता है। इनमें अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग तबकों की लड़कियां और महिलाएं हैं, और उनमें से अधिकतर का यह मानना है कि वे सार्वजनिक जगहों पर सुरक्षित महसूस नहीं करतीं। कुछ तो हिन्दुस्तानी समाज में लडक़े और मर्द अपने गैरबराबरी के सामाजिक दर्जे की वजह से भी मनमाने बाहर रह सकते हैं, दूसरा यह कि सेक्स-अपराधों का खतरा भी उन पर नहीं के बराबर रहता है, इसलिए भी वे किसी भी इलाके में, किसी भी वक्त, अकेले भी आ-जा सकते हैं जो कि महिलाओं और लड़कियों के लिए मुमकिन नहीं है। बीबीसी ने यह रिपोर्ट सामाजिक अध्ययन करने वाले कुछ लोगों के निष्कर्षों पर बनाई है, और इसके मुताबिक गोवा ऐसा राज्य है जहां घर से बाहर निकलने वाले महिला और पुरूष बराबर हैं। तमिलनाडु की महिलाएं कारखानों में खूब काम करती हैं, और देश भर में फैक्ट्रियों में काम करने वाली 16 लाख महिलाओं में से तकरीबन आधी तमिलनाडु की हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि कुछ राज्यों में सरकारी योजनाओं के तहत मुफ्त साइकिल मिलने से भी लड़कियों का घर से निकलना बढ़ा है। दुनिया के बाकी बहुत से देशों में कराए गए ऐसे सर्वे में हिन्दुस्तान ही सबसे पिछड़ा हुआ निकला है, और यहां पर घर से बाहर निकलने वाली महिलाओं का अनुपात सबसे ही कम है।
ऐसे सर्वे और इस रिपोर्ट से परे भी बहुत सी ऐसी बातें हम अपने आसपास देखते हैं जिसकी वजह से लड़कियां और महिलाएं सार्वजनिक जगहों पर अपने को दिक्कत या खतरे में पाती हैं। मर्द तो किसी भी दीवार के किनारे खड़े होकर हल्के हो लेते हैं, और अब तो अंतरराष्ट्रीय विमानों में भी वे साथ के दूसरे पैसेंजरों पर पेशाब करने लगे हैं, इसलिए उन्हें तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन हिन्दुस्तानी शहरों में आमतौर पर कई-कई किलोमीटर तक चले जाने पर भी महिलाओं के लिए कोई पखाने या पेशाबघर नहीं रहते, और रहते भी होंगे तो उनके साफ न रहने गारंटी की जा सकती है। यह हाल सार्वजनिक जगहों से परे स्कूल-कॉलेज और दफ्तर-दुकान का भी रहता है, जिनमें से किसी को महिला या लडक़ी के लायक नहीं बनाया जाता है। हिन्दुस्तानी आमतौर पर गंदे रहते हैं, किसी भी सार्वजनिक जगह को अधिक से अधिक बुरी तरह से गंदा करना वे अपना बुनियादी अधिकार समझते हैं, और यहीं से लड़कियों और महिलाओं के लिए दिक्कत शुरू हो जाती है।
दूसरा मामला गुंडे और मुजरिम किस्म के लडक़ों का रहता है जिनकी छेडख़ानी से बचने में लड़कियों को खुद ही जूझना पड़ता है क्योंकि न तो आम हिन्दुस्तानी मुसीबत में पड़ी लडक़ी की मदद में आगे आते, और न ही अधिकतर प्रदेशों में पुलिस ही सार्वजनिक जगहों पर मददगार रहती है। हाल के बरसों में ऐसा कोई दिन नहीं गया जब किसी न किसी शहर से यह खबर नहीं आई कि छेडख़ानी या बलात्कार की शिकायत करने वाली लडक़ी की पुलिस ने कोई मदद नहीं की, और वे ही मुजरिम दुबारा धमकाने पर उतारू हो गए, और बहुत सी लड़कियां और महिलाएं ऐसे में आत्महत्या करती हुई खबरों में आती हैं। डरे-सहमे परिवार मवालियों की राजनीतिक ताकत और उनके बाहुबल के मुकाबले घर पर रहना ठीक समझते हैं, और कम से कम लड़कियों और महिलाओं को तो बिना किसी जरूरी काम के बाहर न निकलने की सलाह देते हैं। योरप तो योरप, अफ्रीका तक के देश हिन्दुस्तान के मुकाबले कई गुना बेहतर हैं जहां महिलाएं पुरूषों की बराबरी से ही बाहर निकलती हैं।
यह भी समझने की जरूरत है कि किसी महिला के बाहर निकलने से उसकी पढ़ाई-लिखाई, ट्रेनिंग, काम करने के दूसरे मौके, आर्थिक आत्मनिर्भरता, और जिंदगी में कामयाबी, ये सब जुड़े रहते हैं। जब किसी के घर की दीवारें ही उसके लिए पूरा आसमान बता दिया जाए, तो उसकी उड़ान आखिर कितनी ऊंची और कितने दूर तक हो सकती है? कोई भी देश अपनी आधी आबादी की संभावनाओं का फायदा उठाए बिना आगे नहीं बढ़ सकता। भारत में महिलाओं को आमतौर पर घरेलू कामकाज में ही झोंक दिया जाता है, और उनकी क्षमताओं का उससे अधिक कोई इस्तेमाल नहीं होता। देश भर के कामगारों में महिलाओं का अनुपात बहुत ही कम है, और जहां पर महिलाएं बराबरी से मेहनत का काम करती हैं, वहां भी उन्हें मर्दों के मुकाबले कम मजदूरी मिलती है।
जो संगठित क्षेत्र के नियमित रोजगार की जगहें हैं, वहां भी महिलाओं को लेकर मैनेजमेंट के मन में हिचक बनी रहती है क्योंकि उन्हें कई महीने का प्रसूति-अवकाश देना पड़ता है, और अब माहवारी के दिनों में भी किसी तरह की रियायत की मांग उठ रही है। चूंकि घर से काम की जगह तक आना-जाना भी रात के वक्त सुरक्षित नहीं रहता, इसलिए महिलाओं से रात की शिफ्ट में काम नहीं लिया जा सकता, और यह भी एक वजह है कि लोग उन्हें काम पर रखना नहीं चाहते हैं। इसके अलावा उन पर पारिवारिक जिम्मेदारियां इतनी अधिक रहती हैं कि बाहर काम करने पर भी हर पारिवारिक दिक्कत का बोझ उन्हीं पर आता है, और मैनेजमेंट यह सोचता है कि महिला कर्मचारी को ऐसी तमाम नौबतों पर अधिक छुट्टी देनी पड़ेगी। इन सब बातों को लेकर लोग महिलाओं को काम पर तब तक नहीं रखते, जब तक कि उन कामों के लिए महिला ही सबसे माकूल न हो।
महिलाओं को आगे बढ़ाने में परिवार से लेकर समाज तक, गांव या शहर-कस्बे के माहौल तक, और हिफाजत की जिम्मेदारी वाली पुलिस तक सबको बहुत काम करना होगा, तब लड़कियां और महिलाएं आत्मविश्वास के साथ बाहर निकलकर अर्थव्यवस्था में बराबरी का योगदान कर पाएंगी। शहरों को अपने सार्वजनिक परिवहन से लेकर ट्रैफिक तक, और सडक़ों की गुंडागर्दी तक सबको देखना होगा, तभी परिवार हिम्मत के साथ अपनी लड़कियों और महिलाओं को बाहर जाने देंगे। पढ़ाई और खेलकूद के संस्थानों को भी यह देखना होगा कि लड़कियों के शोषण के मामले न हों, क्योंकि जुर्म किसी एक लडक़ी के साथ होता है, और उसकी खबरों से हजारों दूसरी लड़कियों का बाहर निकलकर पढऩा या काम करना थम जाता है। समाज के अलग-अलग मंचों पर इस मुद्दे पर बातचीत की जरूरत है ताकि हर इलाके में इससे जुड़ी हुई दिक्कतों और खतरों की शिनाख्त हो सके, उन्हें दूर करने के रास्ते निकाले जा सकें, और देश को लड़कियों के लिए एक अधिक सुरक्षित जगह बनाया जा सके।