
दरभंगा : सुहाग का अनोखा लोक पर्व मधुश्रावणी व्रत श्रावण कृष्ण पंचमी आज बुधवार से शुरू हो रहा है । सावन का महीना आते ही मिथिला संस्कृति से ओत-प्रोत मधुश्रावणी की गीत गूंजने लगे हैं । लोक पर्व मधुश्रावणी की तैयारियों में नव विवाहिताएं जुट गई हैं । पति की लंबी आयु की कामना के लिए चौदह दिवसीय यह पूजा सिर्फ मिथिला वासियों के बीच हीं होता है । यह पावन पर्व मिथिला की नवविवाहिता बहुत ही धूम-धाम के साथ दुल्हन के रूप में सजधज कर मनाती है ।
कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा वेद विभाग के विभागाध्यक्ष (हेड ऑफ द डिपार्टमेंट) डॉक्टर बिदेश्वर झा –
मधुश्रावणी पर्व की महत्ता और पूजा संबंधित विधि विधान पर प्रकाश डालते हुए संस्कृत साहित्य के विद्वान और कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा वेद विभाग के विभागाध्यक्ष (हेड ऑफ द डिपार्टमेंट) डॉक्टर बिदेश्वर झा ने कहा कि कि मौना पंचमी पर नाग देवता की पूजा के बाद शाम में धान का लावा व मिट्टी को मिलाकर इसे अभिमंत्रित कर घर व दरवाजे के विभिन्न कोने में छिड़काव किया जाता है । ऐसी मान्यताएं है कि इससे घर में लोगों को सर्प का किसी तरह का भय नहीं होता है । सावन शुक्लपक्ष तृतीया को मधुश्रावणी एवं शुक्लपक्ष पंचमी को नाग पंचमी सनातन काल से ही मनाने की परंपरा है । इस वर्ष 11 अगस्त को मधुश्रावणी तथा 13 अगस्त को नाग पंचमी है । जबकि मौना पंचमी प्रतिवर्ष श्रावण कृष्णपक्ष पंचमी को मनायी जाती है मौना पंचमी के दिन से ही मिथिलांचल में मधुश्रावणी पूजा की शुरुआत होती है ।
गौरी पूजा से पहले फूल लोरही के दौरान मधुबनी जिले के मधेपुर गांव की “नेहा” और उनकी नवविवाहित सहेलियां – कहा कि मैथिल संस्कृति के अनुसार शादी के पहले साल के सावन माह में नव विवाहिताएं मधुश्रावणी का व्रत करती हैं । सावन के कृष्ण पक्ष के पंचमी के दिन यानि 28 जुलाई से मधुश्रावणी व्रत की शुरुआत हुई और पांच अगस्त को इसका समापन होगा इस वर्ष यह पर्व 15 दिनों का होग । मैथिल समाज की नव विवाहितों के घर मधुश्रावणी का पर्व विधि-विधान से होता है । इस पर्व में मिट्टी की मूर्तियां, विषहरा, शिव-पार्वती बनाया जाता है ।
मधुबनी जिले के मधेपुर गांव काली मंदिर में फूलों की डलियां के साथ “लाली” और अन्य नवविवाहिता-
उन्होंने कहा कि मधुश्रावणी जीवन में सिर्फ एक बार शादी के पहले सावन को किया जाता है । यह पूजा लगातार 14 दिनों तक चलते हुए श्रावण मास के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को विशेष पूजा-अर्चना के साथ व्रत की समाप्ति होती है । इन दिनों नवविवाहिता व्रत रखकर गणेश, चनाई, मिट्टी एवं गोबर से बने विषहारा एवं गौरी-शंकर का विशेष पूजा कर महिला पुरोहिताईन से कथा सुनती है। कथा का प्रारम्भ विषहरा के जन्म एवं राजा श्रीकर से होता है । इस व्रत के द्वारा स्त्रियाँ अखण्ड सौभाग्यवती के साथ पति की दीर्घायु होने की कामना करती है । व्रत के प्रारम्भ दिनों में ही नवविवाहिता के ससुराल से पूरे 14 दिनों के व्रत के सामग्री तथा सूर्यास्त से पूर्व प्रतिदिन होने वाली भोजन सामग्री भी वहीं से आती है । शुरु व अन्तिम दिनों में व्रतियों द्वारा समाज व परिवार के लोगों में अंकुरी बाँटने की भी प्रथा देखने को मिलती है ।
मधुबनी जिले के तढिया गांव में “ऋतु” और उनकी नवविवाहित सहेलियां –
प्रतिदिन पूजन के उपरान्त नवविवाहिता अपने सहेलियों के साथ गाँव के आसपास के मन्दिरों एवं बगीचों में फूल और पत्ते तोडती हुई व्रत का भरपूर आनन्द भी लेती है । इस पूजन में संध्या के समय तोडे गए फूल जो सूबह पूजन के कार्य में लिया जाता है इसका विशेष महत्व है । इसलिए संध्या के समय नवविवाहिता अपने सखी सहेलियों के साथ एक समूह बनाकर पूजन हेतु बांस के डाली में फूल तोड़ती हैं । साथ में महिलाएं गीत गातीं हैं। इस बार 24 जूलाई को पूजा प्रारंभ हुआ है और 5 अगस्त तक चलेगी । लगातार तेरह दिनों तक नवविवाहिता अपने ससुराल का अरवा भोजन प्राप्त करती हैं। तपस्या के समान यह पर्व पति की दीर्घायु के लिये हैं ।
उन्होंने कहा कि ससुराल पक्ष से विधि विधान में कोई कसर नहीं होने देती हैं। पूजा के अंतिम दिन नवविवाहिता के ससुराल पक्ष से काफी मात्रा में पूजन की सामग्री, कई प्रकार के मिष्ठान ,नए वस्त्र के साथ पांच बुजुर्ग लोग आशीर्वाद देने के लिए पहुँचते हैं । नवविवाहिता ससुराल पक्ष के बुजुर्ग लोगों से आशीर्वाद पाकर हीं पूजा समाप्त करती हैं । मधुश्रावणी पूजा के अंतिम दिन कई विधि विधान तरीके से पूजन का कार्य किया जाता हैं। सुबह शाम महिलाएं समूह बनाकर घंटों गीत गाती है । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लगातार तेरह दिनों तक पूजा स्थल पर नवविवाहिता की देख रेख में अखंड दीप प्रज्वलित रहती हैं । कथा वाचिका प्रत्येक दिन नवविवाहिता को मधुश्रावणी व्रत कथा सुनाती हैं । पूजा के समय नवविवाहिता नए वस्त्र में आभूषण से सुसज्जित होकर कथा श्रवण के साथ पूजा ,अर्चना करती हैं ।
मधुश्रावणी पर्व कठिन तपस्या से कम नहीं है । मैथिल समुदाय की नवविवाहिता अमर सुहाग के लिए मधुश्रावणी करती हैं । मिथिला की पारंपरिक रीति-रिवाज के अनुसार चलने वाले लोग देश-विदेश में इस व्रत को करते है । नेपाल में इस पर्व को बड़े ही पावन तरीके से मनाया जाता है । पूजन स्थल पर मैनी (पुरइन, कमल का पत्ता) के पत्ते पर विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनायी जाती है । महादेव, गौरी, नाग-नागिन की प्रतिमा स्थापित कर व विभिन्न प्रकार के नैवेद्य चढ़ा कर पूजन प्रारंभ होती है इस व्रत में विशेष रूप से महादेव, गौरी, विषहरी व नाग देवता की पूजा की जाती है ।
प्रत्येक दिन अलग-अलग कथाओं में मैना पंचमी, विषहरी, बिहुला, मनसा, मंगला गौरी, पृथ्वी जन्म, समुद्र मंथन, सती की कथा व्रती को सुनायी जाती है । प्रात:काल की पूजा में गोसांई गीत व पावनी गीत गाये जाती है तथा संध्या की पूजा में कोहबर तथा संझौती गीत गाये जाती है । व्रत के अंतिम दिन व्रती के ससुराल से मिठाई, कपड़े, गहने सहित अन्य सौगात भेजे जाते हैं। अंतिम दिन टेमी दागने की भी परंपरा है । मधुश्रावणी के दिन जलते दीप के बाती से शरीर कुछ स्थानों पर (घुटने और पैर के पंजे)दागने की परम्परा भी वर्षों से चली आ रही हैं। इसे ही टेमी दागना कहते हैं ।
कल से फूल लोरही की प्रक्रिया शुरू होने के साथ मधुश्रावणी पर्व को लेकर मिथिला के सभी जिलों की नवविवाहिता काफी उत्साहित दिखी । इस पर्व में मिथिला की नवविवाहिता अपने पति की दीर्घायु के लिए माता गौरी की पूजा बासी फूल से करती हैं। एक दिन पहले संध्या काल में पुष्प, पत्र की व्यवस्था कर ली जाती है और उसी से माता पार्वती के साथ भगवान भोलेनाथ तथा विषहरी नागिन की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है । पूरे अनुष्ठान के दौरान बिना नमक का भोजन ग्रहण करती हैं। इस पूजा में पुरोहित की भूमिका में भी महिलाएं ही रहती हैं। इस अनुष्ठान के पहले और अंतिम दिन विधि-विधान से पूजा होती है | इस पूजा में पुरोहित की भूमिका में भी महिलाएं ही रहती हैं। इस अनुष्ठान के पहले और अंतिम दिन विधि-विधान से पूजा होती है ।
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