नेतृत्व के अभाव में पिछड़ता मुसलमान

नेतृत्व के अभाव में पिछड़ता मुसलमान

हुमायूँ चौधरी : यह सच है कि अगर भारतीय मुसलमान हर क्षेत्र में दिन पर दिन पिछड़ता जा रहा है तो उसका मुख्य कारण है कि इस समुदाय में मज़बूत नेतृत्व की कमी होना । यहाँ पर यह कहना ग़लत न होगा कि आज अपनी इस दुर्दशा का बहुत हद तक मुसलमान स्वम् ज़िम्मेदार है ।  क्योंकि इस क़ौम ने कभी अपनी महत्ता समझने की कोशिश नहीं की या यूँ कहा जाए कि आज के मुस्लिम रहनुमाओं ने काफ़ी हद्द तक अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ा । जिसके चलते आज यह नौबत आ गई कि मुसलमान सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से बेहद पिछड़ा हुआ है ।

हमारे देश को आज़ाद हुए 7 दशक बीत चुके हैं इस दौरान बहुत कुछ बदला पर कहीं कुछ नहीं बदला तो वह है देश के मुसलमानों के हालात, इसका दोष किसी पर मढ़ने से बेहतर है कि अपने गिरेबाँ में झांक लिया जाए तो ज़्यादा अच्छा होगा । मुसलमानों के पिछड़ेपन का मुख्य कारण तलाशा जाए तो वह है शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ापन जब नीव ही खोखली होगी तो उस पर बनने वाली इमारत कितनी मज़बूत होगी इसका अंदाज़ा बख़ूबी लगाया जा सकता है ।

दूसरा जो सबसे बड़ा कारण है वह मुस्लिम समुदाय का अनगिनत वर्गों (शिया, सुन्नी, देवबंदी, बरेलवी, सलफ़ी, हनफ़ी इत्यादि) में विभाजित होना । जिसका फ़ायदा राजनीतिक दल समय-समय पर उठाते आये हैं वो भी क़ौम के मोलवी नुमा लोगों के ज़रिए । अपने राजनीतिक फायदे के लिए यह सियासी दल इनको आपस में एक न होने का भी समय-समय पर भरसक प्रयास करते रहे हैं और इस काम को अंजाम देने में तथाकथित धर्मगुरुओं को उनकी सुविधाओं में तौल कर उनका इस्तेमाल भी ख़ूब किया जाता है ।

जिसके बाद वही तथाकथित धर्मगुरु सियासी मंच से अपने समुदाय को उज्ज्वल भविष्य के रंगीन सपने दिखाते नज़र आते हैं । यह वही लोग होते हैं जो एयर कंडीशंड कमरों में बैठ कर गरम मुद्दों पर सौदा करने के बाद बाहर निकल कर उनको हवा देने के उपरांत वापस अपने-अपने ठिकानों पर अवाम को बेसहारा छोड़ अपनी अगली बोली तक सुकून करते मिलते हैं ।

अपनों को ही ठगने वाले मुस्लिम छाप लिए कुछ सियासी दल ऐसे भी हैं जो इस समुदाय का चुनाव के समय दम भरने के साथ मुसलमानों का सबसे बड़ा हिमायती बनने का दावा पेश करते हैं पर वोट काटने के बाद झाँकने नही आते । इसीलिए मुसलमान अधिकतर का मुलायम चारा बनकर रह गया ।

चलिए थोड़ा सा माज़ी की तरफ़ नज़र डालते कि तब और अब के इस समुदाय के नेताओं की कथनी और करनी में क्या अंतर रहा ।

11 नवम्बर यानी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जन्मदिन ‘राष्ट्रीय शिक्षा दिवस’ के रूप में इसलिए मनाया जाता है क्योंकि मौलाना आज़ाद ने हर भारतीय को शिक्षा के क्षेत्र में आगे आने के लिए प्रेरित किया । उनके जीवन का मक़सद ही हर व्यक्ति के लिए ज़रूरी शिक्षा था ।

नेतृत्व के अभाव में पिछड़ता मुसलमान

लेहाज़ा उन्होंने समाज का स्तर ऊपर लाने के लिए हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया कि हर व्यक्ति को कम से कम बुनियादी शिक्षा तो ग्रहण करनी ही चाहिए । मौलाना आज़ाद के द्वारा यूनिवर्सिटी ग्रांडस कमीशन की नींव रखने का लक्ष्य ही यही था कि लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा उच्च शिक्षा भी मिल सके ।

ऐसे बहुत से उदाहरण मिलेंगे जिनमें आप जान सकेंगे कि मौलाना अबुल कलाम आजाद का शिक्षा के क्षेत्र में क्या-क्या योगदान रहा ।

आधुनिक शिक्षा आंदोलन को गति देने वाले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैय्यद अहमद खां का भी जीवन शिक्षा को लेकर कई उदाहरणों से भरा है ।

नेतृत्व के अभाव में पिछड़ता मुसलमान

सर सैय्यद अहमद खां जिन्होंने अपने जीवन में इस उद्देश्य को प्राप्त करने में लगा दिया कि सभी भारतवासी चाहे वह हिंदू हों या मुसलमान आधुनिक शिक्षा प्राप्त करें और दुनिया को दिखा सकें कि हम भी किसी से कम नहीं ।

सर सैय्यद हों या अबुल कलाम इन लोगों ने मुस्लिम समुदाय की महिलाओं को भी हमेशा शिक्षा के क्षेत्र में आगे आकर बढ़चढ़कर हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया ।

बुनियादी तालीम के साथ-साथ सर सैय्यद ने अंग्रेजी शिक्षा पर ज़ोर दिया । तो वहीं मौलाना आज़ाद ने उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा पर ।

आज जो ‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ’ जैसे नारों पर विज्ञापन के रूप में लाखों ख़र्च कर भी परिणाम लगभग शून्य दिखता है , यही तहरीक तब सर सैय्यद अहमद खां और अबुल कलाम आज़ाद ने बिना किसी विज्ञापन के घर-घर चला कर लोगों को जागरूक किया था । यह वो जज़्बा था जो हर समय केवल और केवल हर एक को आगे बढ़ते देखना चाहता था ।

बावजूद इसके मुस्लिम समुदाय इससे दूर होता चला गया या किया जाता रहा । क्योंकि एक बात पर ग़ौर किया जाय तो यह एक कड़वी सच्चाई है कि किसी को निचले पायदान तक लाकर खड़ा करना हो तो सबसे पहले उससे उसकी शिक्षा छीन लो या उसको वहाँ तक जाने ही न दो ।

दूसरी ओर देखा जाए तो नेतृत्व विहीन होने के कारण मुस्लिम समुदाय को हर राजनीतिक दल ने केवल वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल किया । बची कसर क़ौम के उन तथाकथित रहनुमाओं ने अपने निजी फायदे के लिए क़दम-क़दम पर क़ौम का सौदा कर पूरी कर दी । तभी कहा जाता है जैसी नियत वैसी बरकत ।

सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में मुस्लिम समुदाय तक़रीबन 23 फीसदी होने के बावजूद आज अगर अलग थलग है तो उसका कारण उसको सही दिशा न मिलना उसके अपने ही उसके दमनकारी साबित होते नज़र आते हैं ।

जबकि 1947 में दिल्ली की जामा मस्जिद से मौलाना आज़ाद ने जो भाषण दिया था उसमें बहुत अहम चार लाइन उस समय इसी समुदाय से कहीं थीं कि “आओ अहद (क़सम) करो कि ये मुल्क हमारा है। हम इसी के लिए हैं और उसकी तक़दीर के बुनियादी फैसले हमारी आवाज़ के बगैर अधूरे ही रहेंगे ।

पर अफ़सोस की आज हमारी रहनुमाई वाला ऐसा कोई नहीं जो अपने व्यक्तिगत फ़ायदे छोड़कर मज़बूती के साथ पूरी क़ौम के लिए आगे आये ।

ज़ाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद मुसलमानों ने सही मायने में अपने आखिरी नेता को खो दिया था। देखा जाए तो तभी से इस समुदाय ने अपने आपको राजनीतिक और सामाजिक रूप से अनाथ महसूस किया ।

नेतृत्व के अभाव में पिछड़ता मुसलमान

ज़ाकिर हुसैन भारत के तीसरे राष्ट्रपति और जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापक होने के साथ-साथ एक राष्ट्रवादी थे। यहाँ पर यह बताना भी बहुत आवश्यक है कि इन तीनों नेताओं के बाद जो भी मुस्लिम नेता का चेहरा बनकर सामने आए वह या तो धार्मिक या फिर क्षेत्रीय रहे लेकिन सर सैय्यद, मौलाना आज़ाद और ज़ाकिर हुसैन के क़द को आज तक कोई भी न छू सका । जिसका नतीजा आज सामने है कि मुसलमान अपनी ढपली अपना राग अलापता ही नज़र आता है । और राजनीतिक दलों के हाँथों कठपुतली बना हुआ है ।

राजनीति में मुस्लिम प्रतिनिधित्व का कम भागीदार होना भी मुसलमानों की बदतर हालत का एक बड़ा कारण है । क्योंकि मुसलमानों की आबादी के लिहाज़ से सियासत में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है। न ही कोई ऐसा सियासी दल है जिसमें मुस्लिम प्रतिनिधि खुलकर अपनी बात रख सके । कुछ एक ऐसे दल हैं जिन्होंने ऐसे मुस्लिम नेताओं को उच्च स्थान दिया जो अपने मे खुद ही बेचारे हैं । तो ऐसे बेचारों का होना न होना भी एक समान ।

इसी तरह सेना, पुलिस से लेकर किसी भी क्षेत्र के आंकड़े बताते हैं कि अल्पसंख्यक की भागीदारी न के बराबर है । सच्चर कमेटी हो रंगनाथन मिश्र आयोग किसी की सिफारिश को भी लागू करने में हर सरकार बचती नज़र आई ।

जिसका नतीजा देखा गया पिछले कुछ सालों में हज़ारों की तादाद में देश की जेलों में ऐसे बेगुनाह मुसलमान बंद हैं जिनके मामले विचाराधीन रहे और लचर कानून व्यवस्था के चलते उनकी पूरी उम्र जेलों में ही गुज़र जाने के बाद जब वह बाइज़्ज़त बरी हुए तो जेल के बाहर उनके लिए कुछ नहीं बचा ।

आज मुसलमानों की हालत को देखते यह दावा करना कि भारत का मुसलमान दुनिया की तुलना में सबसे ज्यादा खुश है, इस समुदाय के साथ एक भद्दा मज़ाक है ।

वह सब इसलिए कि इसका मज़बूती के साथ कोई कठोर फ़ैसला न लिया जाना इसके लिए भारी पड़ता नज़र आ रहा । इसके नेतृत्व के लिए ज़रूरी नहीं कि कोई धार्मिक गुरु ही आगे आये बल्कि समुदाय में मौजूद बहुत से ऐसे लोग हैं जो बुद्धजीवी होने के साथ हर तरह से सम्पन्न हैं उनको अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए आगे आकर पहले तो इस समाज को शिक्षा के साथ-साथ उनके रोज़गार को कैसे बढ़ाया जाए इस पर गंभीरता से ध्यान देना होगा । फिर जो भी सरकार हो उससे अपनी माँगों को रखते हुए सरकारी नौकरियों में अपनी हिस्सेदारी पर मज़बूती से बात करनी होगी । राजनीति में गंभीरता से भागीदारी करनी होगी लेकिन उससे पहले अपने को पूरी तरह अस्तित्व में मज़बूती से लाना होगा ताकि समाज आपकी बात को गंभीरता से ले और उस पर अमल करे। देश हित में जो भी काम हो उसमें बढ़चढ़कर आगे आना होगा तभी अपना भी हित होगा । इसको एक आंदोलन के रूप में चलाना होगा तब कुछ हासिल होगा । वरना तो खेल के मैदान में वह किसी फुटबॉल से कम नहीं ।

शेष अगले संस्करण में ।

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हुमायूँ चौधरी
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