एक लोकतांत्रिक गणराज्य की मजबूती के लिए स्वतंत्र प्रेस का होना जरूरी: सुप्रीम कोर्ट

डंडे वालों को दंड से डर लगता है!
चाहे मामला राफेल में अनिल अंबानी को, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, एचएएल से तयशुदा ठेका रद्द कर, सौंप देने का मामला हो, या पेगासस जासूसी उपकरण की खरीद का, या सत्ता विरोधी मीडिया चैनेल का की जुबां बंदी क, अदालतों में, सरकार ने अपने बचाव में, दो तर्क ज़रूर रखे, एक राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा और दूसरा, अदालत में, अपने तर्क, सीलबंद लिफाफे में रखने की रणनीति। राफेल घोटाला बिना जांच पड़ताल के ही पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई, सदस्य राज्यसभा, द्वारा, सीलबंद लिफाफे के आधार पर ही, यह निर्णीत कर दिया गया कि, राफेल की खरीद में कोई प्रक्रियागत त्रुटि नहीं है। पर राफेल मामले में असल सवाल, कि किन परिस्थितियों में एचएएल से ठेका वापस  लेकर, ब्रिटेन की अदालत में स्वतः दिवालिया घोषित, अनिल अंबानी को यह ठेका दे दिया गया, जिनके पास खिलौने वाले हवाई जहाज बनाने का भी अनुभव नहीं था। यह सवाल अब भी अनुत्तरित है। यह एक बड़ा घोटाला भी है।

इसी प्रकार आज तक सरकार यह नहीं बता पाई कि, पेगासस मालवेयर क्यों और किस उद्देश्य से खरीदा गया, और उस मालवेयर से उस महिला कर्मचारी की भी जासूसी क्यों की गई, जिसके यौन शोषण का आरोप तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई पर लगा था। जैसे ही यह मुकदमे निर्णीत हुए, रंजन गोगोई, इस पाश से मुक्त भी हो गए। पेगासस मामले में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जांच कमेटी से, सरकार ने कोई सहयोग नहीं किया और एक सीलबंद लिफाफा इस मुकदमे में भी दिया गया था। पेगासस का रहस्य अब भी अनसुलझा है। इधर, एक खबर यह भी आ रही है कि, पेगासस से भी अधिक आधुनिक और तकनीकी रूप से उन्नत जासूसी उपकरण खरीदने की बात, सरकार कहीं चला रही है।

इसी तरह, मलयालम के एक मीडिया चैनेल का, सुरक्षा कारणों से हवाला देते हुए, सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने, लाइसेंस रद्द कर दिया। वह मीडिया चैनेल, सरकार की इस कार्यवाही के खिलाफ, केरल हाईकोर्ट गया लेकिन वहां भी सरकार ने सुरक्षा का हवाला देते हुये, बंद लिफाफा में अपनी बात रखी और सरकार, केरल हाईकोर्ट में अपना मुकदमा जीत गई। इसकी अपील उक्त मीडिया चैनेल ने, सुप्रीम कोर्ट में की और सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया चैनेल की अपील स्वीकार कर के, सूचना और प्रसारण मंत्रालय को, चार सप्ताह में लाइसेंस जारी करने का निर्देश दिया।

स्वतंत्र पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़े इस महत्वपूर्ण मुकदमे के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने, 5 अप्रैल को मलयालम समाचार चैनल मीडिया वन (MediaOne) पर केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए टेलीकास्ट प्रतिबंध के खिलाफ फैसला सुनाया है। प्रेस पर सरकारी दखलंदाजी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला, न्यायिक इतिहास में, एक अहम स्थान रखता है। शीर्ष अदालत ने चैनल चलाने वाली कंपनी माध्यमम ब्रॉडकास्टिंग लिमिटेड (एमबीएल) द्वारा दायर एक विशेष अनुमति याचिका के निस्तारण में यह फैसला सुनाया है, जिसमें सूचना और प्रसारण मंत्रालय (IB minisrtry) द्वारा, एमबीएल के प्रसारण लाइसेंस को नवीनीकृत नहीं करने के फैसले को बरकरार रखने के, केरल उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी गई थी। गृह मंत्रालय द्वारा, सुरक्षा मंजूरी के अभाव में चैनल का लाइसेंस नवीनीकृत नहीं किया जा रहा था। चैनल के संपादक प्रमोद रमन और, पत्रकारों के संगठन, केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स ने भी, केरल हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए, दो अलग-अलग याचिकाएं दायर की थीं।सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे और अधिवक्ता हरीस बीरन ने, चैनल का पक्ष अदालत में रखा।

लम्बे समय से चली आ रही, सरकार द्वारा अपने पक्ष में, सीलबंद लिफाफे में दिए गए दस्तावेजों पर इस मुकदमे में भी, सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाए। यह सील बंद लिफाफा सिस्टम, पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई के समय, राफेल मामले में सुनवाई के समय से शुरू हुई थी, और इसकी बराबर आलोचना भी होती रही है। इस मामले में भी सरकार ने सीलबंद लिफाफे में अपनी बात कह कर देने की परंपरा, जारी रखी तो, सुप्रीम कोर्ट ने सीलबंद कवर प्रक्रिया की सख्त आलोचना की। सुप्रीम कोर्ट ने गृह मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत सीलबंद कवर दस्तावेजों के आधार पर केंद्र के फैसले को बरकरार रखने के उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण की भी भारी आलोचना की है।

अदालत ने कहा, “उच्च न्यायालय ने सुरक्षा मंजूरी से, इनकार करने के कारणों का खुलासा नहीं किया। इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है कि उच्च न्यायालय के दिमाग में क्या था, जिससे यह माना जा सके कि मंजूरी से इनकार उचित था या नहीं। यह देखने के बावजूद कि, मामले की प्रकृति और गंभीरता कितनी है, फाइलों से, सब कुछ स्पष्ट नहीं है। सील कवर प्रक्रिया, जिसके बाद एकल न्यायाधीश और डिवीजन बेंच ने, अपीलकर्ता के उपचार के अधिकार को आवश्यक रूप से प्रदान किया है, जिसे संविधान के दिल और आत्मा के रूप में वर्णित किया गया है और यह संविधान की एक बुनियादी विशेषता है। सुरक्षा मंजूरी से इनकार (लाइसेंस नवीनीकरण से इंकार) करने के कारणों का, गैर-प्रकटीकरण, जो लाइसेंस को नवीनीकृत करने की अनुमति से इनकार करने का एकमात्र आधार बताया गया है, और केवल एक सील कवर में अदालत को प्रासंगिक सामग्री का खुलासा, प्रदान किया गया है। यह अपीलकर्ता की संविधान के तहत प्रक्रियात्मक गारंटी नहीं है। अपीलकर्ताओं को उपचार तक पहुंचने का अधिकार, उच्च न्यायालय द्वारा एक औपचारिक आदेश के माध्यम से, इस मामले में अस्वीकार कर दिया गया है।”
यह कहना है, भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ का।

एमबीएल का लाइसेंस नवीनीकरण, सिर्फ इस लिए रोका गया कि, उसका प्रसारण, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। लेकिन यह खतरा क्या है और किस प्रकार का है, इस पर गृह मंत्रालय ने कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं कहा है। अदालत ने कहा, “केवल राष्ट्रीय सुरक्षा की दलील देने से ही, राज्य के अन्य कर्तव्य को निष्पक्ष रूप से कार्य करने से नहीं रोका जा सकता है।”
यानी सुरक्षा की आड़ में लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार कम नहीं किए जा सकते हैं। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा लिखे गए फैसले में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि, “राज्य केवल राष्ट्रीय सुरक्षा की दलील देकर नागरिकों के अधिकारों को प्रदान करने से इनकार नहीं कर सकता है।”

आगे वे कहते हैं, “यदि राज्य निष्पक्ष रूप से कार्य करने के अपने कर्तव्य का परित्याग करता है, तो इसे न्यायालय के समक्ष, तथ्यों और तर्कों सहित, उचित ठहराया जाना चाहिए। सबसे पहले, राज्य को, खुद ही संतुष्ट होना चाहिए।”
अदालत ने आगे कहा कि “राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताएं वाजिब हैं। राज्य नागरिकों के अधिकार से वंचित करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा की दलील का उपयोग कर रहा है। सीबीआई और आईबी जैसी जांच एजेंसियों की रिपोर्ट को, गोपनीयता के नाम पर, खुलासे से पूरी छूट नहीं दी जा सकती।”

फैसले में विशेष रूप से “भारतीय संघ द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा के दावे को उठाए जाने वाले जिद भरे तरीके” के बारे में भी टिप्पणी की गई है। अदालत आगे कहती है, “केवल यह दावा करने के अलावा कि उच्च न्यायालय के समक्ष दायर हलफनामे और हमारे समक्ष प्रस्तुतियाँ दोनों में राष्ट्रीय सुरक्षा का तत्व शामिल है, भारत संघ ने यह समझाने का कोई प्रयास नहीं किया कि गैर-प्रकटीकरण, राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में कैसे होगा? इस अदालत द्वारा दोहराए जाने के बावजूद भारत संघ ने इस दृष्टिकोण को अपनाया है। उस न्यायिक समीक्षा को केवल राष्ट्रीय सुरक्षा वाक्यांश के उल्लेख के कारण,  बाहर नहीं किया जा सकता है। राज्य, राष्ट्रीय सुरक्षा का उपयोग एक उपकरण के रूप में, नागरिकों को प्रदान किए जाने वाले, नागरिक अधिकारों और अन्य उपायों से इनकार करने के लिए कर रहा है।  कानून के तहत, यह कानून के शासन के अनुकूल नहीं है “

गौरतलब है कि गृह मंत्रालय ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी), न्यायपालिका, राज्य आदि की आलोचना पर चैनल की रिपोर्टों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि “यह पत्रकारिता प्रतिष्ठान विरोधी है।”
इस पर, शीर्ष अदालत ने कहा कि “प्रसारण लाइसेंस के नवीनीकरण को मना करने के लिए यह कोई उचित आधार नहीं हैं। एक लोकतांत्रिक गणराज्य की मजबूती के लिए स्वतंत्र प्रेस का होना, महत्वपूर्ण है। लोकतांत्रिक समाज में स्वतंत्र प्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह राज्य के कामकाज पर प्रकाश डालता और नज़र रखता है। प्रेस का कर्तव्य है कि वह सच बोलें और नागरिकों के समक्ष, कठिन तथ्यों को रखे।”
अदालत की यह टिप्पणी, सुसंगत है कि, “लोकतंत्र को सही दिशा में तैयार करने वाले विकल्पों को चुनने में, एक स्वतंत्र प्रेस उन्हें सक्षम बनाता है। प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध नागरिकों को उनके नागरिक और मौलिक अधिकारों से वंचित कर सकता है। प्रेस पर प्रतिबंध, सामाजिक आर्थिक राजनीति से लेकर राजनीतिक विचारधाराओं तक के मुद्दों पर एक समरूप दृष्टिकोण लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा पैदा करेगा।”

शीर्ष अदालत ने साफ शब्दों में कहा कि, “चैनल को केवल इसलिए “सत्ता विरोधी” नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसने सरकार की नीतियों की आलोचना की थी। मीडिया चैनल के आलोचनात्मक विचारों, और सरकार की नीतियों पर उनके दृष्टिकोण को, स्थापना विरोधी नहीं कहा जा सकता है। इस तरह की शब्दावली का उपयोग अपने आप में ही, एक अपेक्षा का प्रतिनिधित्व करता है, कि, सत्ता को पक्षपाती प्रेस चाहिए न कि सत्ता प्रतिष्ठान का आलोचक प्रेस। सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा की गई, लाइसेंस नवीनीकरण न करने की कार्रवाई, मीडिया चैनल के साथ साथ, अपने स्वतंत्र विचारों के आधार पर एक मीडिया चैनल के संवैधानिक रूप से बोलने का अधिकार का उल्लंघन  है और यह कृत्य, विशेष रूप से प्रेस की स्वतंत्रता पर विपरीत प्रभाव पैदा करता है।”
सुप्रीम कोर्ट की पीठ  ने कहा कि “किसी चैनल के लाइसेंस का नवीनीकरण न करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंध है और इसे केवल अनुच्छेद 19(2) के आधार पर ही लगाया जा सकता है।”

चैनल पर यह भी आरोप था कि, उसके जमात ए इस्लामी से संबंध रहे हैं। इस पर पीठ का कहना है कि, “चैनल के शेयरधारकों का जमात-ए-इस्लामी हिंद से कथित जुड़ाव चैनल के अधिकारों को प्रतिबंधित करने का कोई वैध आधार नहीं है।  किसी भी सूरत में इस तरह के लिंक को दिखाने के लिए कोई सामग्री अदालत के समक्ष सरकार द्वारा नहीं रखी गयी है।  साथ ही, जब जमात ए इस्लामी हिंद, एक प्रतिबंधित संगठन नहीं है, तो यह तर्क नहीं दिया जा सकता है कि संगठन के साथ संबंध राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, या सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित करेगा।”

अदालत ने जमात ए इस्लामी हिन्द जेआइएच से संबंधों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि, “एमबीएल को जेआईएच से जोड़ने के लिए फ़ाइल में सबूत का एकमात्र टुकड़ा एमबीएल के शेयरों में कथित निवेश का है। इसके समर्थन में, आईबी ने शेयरधारकों की एक सूची प्रस्तुत की है। हालांकि, उन्हें जेआईएच से जोड़ने वाले रिकॉर्ड पर कोई सबूत नहीं मिला है।  इस प्रकार, यह आरोप कि, एमबीएल, जेआइएच से जुड़ा हुआ है, एक भ्रामक आरोप है। क्योंकि, जेआइएच, (JeIH) एक प्रतिबंधित संगठन नहीं है और यह निष्कर्ष निकालने के लिए, अदालत के समक्ष कोई ऐसी सामग्री नहीं है कि जेआइएच के हमदर्दों द्वारा, मीडिया चैनल में किया गया, निवेश भारत की सुरक्षा को प्रभावित करेगा। और दूसरी बात, भले ही यह स्वीकार कर लिया जाए कि  जेईआईएच के समर्थकों द्वारा निवेश राज्य की सुरक्षा को प्रभावित करेगा, यह साबित करने के लिए कोई सामग्री नहीं है कि शेयरधारक जेआईएच के हमदर्द हैं। ऊपर की चर्चा के मद्देनजर, सुरक्षा मंजूरी से इनकार करने के उद्देश्य का कोई वैध लक्ष्य या उचित उद्देश्य नहीं है।”.

शीर्ष अदालत ने यह भी आगाह किया है कि “राष्ट्रीय सुरक्षा के दावे हवा में नहीं किए जा सकते हैं और इसके समर्थन में भौतिक तथ्य होने चाहिए।  इसमें कहा गया है कि, यदि कम प्रतिबंधात्मक साधन उपलब्ध हैं और अपनाए जा सकते हैं तो सीलबंद कवर प्रक्रिया नहीं अपनाई जानी चाहिए।”

इस प्रकार, कोर्ट ने मध्यमम ब्रॉडकास्टिंग और अन्य अपीलकर्ताओं की अपीलों को स्वीकार कर लिया और सूचना प्रसारण मंत्रालय को चार सप्ताह के भीतर लाइसेंस का नवीनीकरण करने का निर्देश दिया।  15 मार्च, 2022 को, न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश पारित किया था, जिसमें चैनल को अपना संचालन जारी रखने की अनुमति दी गई थी, जब तक कि अंतिम निर्णय नहीं हो गया था, जिसे आज समाप्त कर दिया गया।

Disclaimer: यह लेख मूल रूप से विजय शंकर सिंह के ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है। इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। 

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Vijay Shanker Singh X-IPS
लेखक रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं।