मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में एक ऐसी सीट जहां भाजपा में आपस में महाभारत

मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में एक ऐसी सीट जहां भाजपा में आपस में महाभारत

नागदा। मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले में स्थित नागदा-खाचरौद विधानसभा क्षेत्र में तीन बार भाजपा टिकट से चुनावी समर में उतरे  पूर्व विधायक दिलीपसिंह शेखावत को अबकि बार टिकट से वंचित कर दिया। हाईकमान ने अब भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य डॉ.तेजबहादुर सिंह चौहान पर भरोसा किया है।  इस निर्णय से  खिलाफत कर भाजपा का एक खेमा विरोध में खड़ा हैं। टिकट बदलने की मांग पर डटा-अड़ा है। इस महाभारत के  दो मुख्य पात्र हैं। एक  खेमे का ध्वज  टिकट से वंचित दिलीपसिंह शेखावत थामे हैं। दूसरा खेमा डॉ.तेजबहादुर के साथ है। टिकट से वंचित व्यथित दिलीपसिंह ने इस निर्णय के बाद दो बार शक्ति प्रदर्शन कर अपनी ताकत को दिखाने का प्रयास किया। यहां तक अपने समर्थकों की हजारों की भीड़ के बीच  बीफार्म मिलने तक इस संघर्ष को जारी रखने का ऐलान कर दिया।  वे उचित प्लेटफार्म पर अपनी बात रखकर अभी भी टिकट पाने की आश लगाए बैंठे हैं।

शह और मात का खेल   

इस सूबे में अभी तक दिलीप सिंह शेखावत भाजपा के हर मामले में अगुवाई करते आए।  संगठन ने उन्हें तीन बार टिकट दिया। एक विजय 2013 में हाथ लगी। दो बार पराजय 2008 एवं 2018 में नसीब हुई। वे  2013 से 2018 तक एक संवैधानिक पद बतौर विधायक काबिज रहे हैं। 2018 का विधानसभा चुनाव पराजय  के बाद पार्टी की गाइड लाइन के मुताबिक वे बतौर एमएलए इस सूबे के सेनापति बने रहें। लेकिन इस सूबे में अब उनकी जगह डॉ. तेजबहादुरसिंह चौहान को प्रोजेक्ट कर देने से निः संदेह शेखावत की सियासत पर ग्रहण के बादल मंडरा गए।

डॉ.चौहान की उम्मीदवारी से यूं कहा जाए कि श्री शेखावत की कश्ती सियासत के सागर के भंवरजाल में लड़खड़ा गई। जैसा राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं श्री चौहान की जीत एवं पराजय  दोनों ही परिस्थतियों में दिलीपसिंह के इस सूबे में एकाधिकार की राजनीति को धक्का लग रहा है। डाक्टर चौहान यदि जीतेे तो वे सिकंदर, या पराजय के साथ  घर लौटे तो सूबे के सिरमोर की कमान उनके हाथ में होगी। भाजपा में परंपरा हैकि हारे उम्मीदवार कों एमएलए के किरदार में तवज्जो मिलती है।  इस समीकरण से  पहला पक्ष डाक्टर चौहान की जीत के आंकलन से समीक्षा की जाए तो जैसा तेजबहादुरसिंह के स्वभाव-मिजाज की तासिर नरेेंद्र मोदी की उस थीम से सामंजस्य करती हैकि-  ना खाउंगा ना खाने दूंगा। यह एक बहुत बड़ा फैक्टर  यहां की सरजमीं पर है। यह बड़ा फेेैक्टर भी इस महाभारत की बुनियाद में सुरंग बनाकर डॉ चौहान के खिलाफ कार्य कर रहा है। डाक्टर चौहान की ईमानदार कार्यशैली सेे  कई चेहरे विचलित हैं, घबराहट सें दिलों की धड़कन तेज है। इसलिए दूसरा पहलू यदि पराजय के साथ डॉ चौहान घर लौटे तो पार्टी गाइड लाइन के मुताबिक वे इस क्षेत्र में आगेवानी करेंगे। जैसा कि वर्तमान में पूर्व विधायक दिलीपसिंह के हाथों में यह जिम्म्मेदारी का ध्वज है। ऐसी स्थिति में दोनो पहलू से दिलीपसिंह की सियासत प्रभावित होगी। राजनीति का यह सर्वमान्य  सिद्धात हैकि जब किसी राजनेता का पावरगैम कमजोर पड़ता है, या  सत्ता से विमुख होकर लड़खड़ता तो उसमें छटपटाहट ,बैचेनी सार्वजनिक रूप से परिलक्षित होती है। यहंा जो समीकरण चल रहा है यह उसी और संकेत कर रहा है। अब शेखावत के सामने यह सवाल यह आरहा हैकि इस पूरे समीकरण से कैसे उभरा जाए। जिसके लिए भीड़तंत्र को बतौर हथियार बनाकर सियासत के सागर के  भंवरजाल में फसी अपनी कश्ती को किनारे लगाने की कवायद चल पड़ी है। बड़ी बात यह हैकि संगठन के निर्णय को चुनोैती देकर टिकट बदलने का मसला है। यह कार्य भाजपा की सनातन संस्कृति – संस्कार को चिढ़ा रहा है। अनुशासनहीनता की कार्यवाही के पायदानों के पेराकारों को एक आईना भी है।

1985 का इतिहास ताजा     

इस प्रकार के नजारे कांग्रेस संस्कति में तो आम थे, लेकिन अब कथित अनुशासित एवं संस्कार से सराबोर भाजपा संगठन में भी इस प्रकार का संक्रमण फैल रहा है । हालांकि इस दल में इस प्रकार की दूसरी बार  पुनरावृति हो रही है। वर्ष 1985 में तत्कालीन भाजपा जिला अध्यक्ष स्व मांगीलाल शर्मा को लालसिंह राणावत को टिकट देना रास नहीं आया था। श्री शर्मा ने  हाईकमान के निर्णय को चुनौती दे डाली थी। श्री शर्मा चुनाव चिन्ह शेर के साथ  निर्दलीय मैंदान में उतरे थे। उस समय  कार्यकर्ताओं के सामने इसी प्रकार का धर्मसंकट खड़ा हुआ था। शर्मा के समर्थक टिकट बदलने की मांग पर अड़े थे। लेकिन पार्टी टस से मस नही हई। श्री शर्मा का नाम उस युग में लोकप्रिय, जूझारू, मजदूर हितैषी  एक ईमानदार राजनेता की शोहरत में शुमार था। उस समय वे भाजपा के उज्जैन जिला अध्यक्ष पद पर काबिज थे।  उस जमाने के कदावर एवं लोकप्रिय राजनेता  श्री शर्मा महज 9800 मतों के आसपास सिमट गए । हालांकि भाजपा से प्रतिशोध की भावना में वे अवश्य सफल हुए। उस समय भाजपा प्रत्याशी लालसिंह राणावत को हराने में कामयाब हुए थे।  कांग्रेस के रणछोडलाल आंजना 3838 मतो चुनाव जीत गए । इस पराजय से ही तत्कालीन भाजपा का एक खेमा खुश हुआ ।  अब श्री शेखावत बार- बार अपने भाषण में कार्यकर्ताओं को तवज्जो दे रहे और कार्यकर्ताओं को सम्मान देने की बात कर रहे है। उधर,  कार्यकर्ता भी सोशल मीडिया पर जोश-खरोश में अपनी अभिव्यक्ति का इजहार इस प्रकार से कर रहे हैं-अब सघंर्ष नहीं रण होगा। मतलब कार्यकर्ता तो अपने नेता को संकेत चुनाव लड़ने का दे रहें ंहैं। कार्यकर्ताओं की इस भावना को कितना सम्मान होगा यह अभी भविष्य की गर्त में है। इस सूबे में  एक दूसरा उदाहरण इसी प्रकार का हैं। इसी प्रकार  2003 में इस सूबे में कांग्रेस में हुआ था। 1993 में विधायक रहे दिलीपसिंह गुर्जर को 2003 में टिकट नहीं मिला। श्री गुर्जर ने  कांग्रेस पार्टी के निर्णय से खफा होकर निर्दलीय चुनाव चिन्ह इंजिन से किस्मत आजमाई । वे 14,429 मतों से जीत गए। इस चुनाव में कांग्रेस उम्म्मीदवार को जमानत बचाने के लाले पड़ गए ।

प्रत्येक परिस्थति को परखे

वर्तमान में भाजपा में जो बखेड़ा खड़ा हुआ उससेे यह तो स्पष्ट हैकि अब संगठन पर व्यक्तिवाद हावी होने की कोशिश है। व्यक्तिगत सता सुख की महात्वकांक्षा की अंतिम पराकाष्ठा से एक गुट  हाईकमान के निर्णय को चुनौती देने की हिम्मत कर बैठा। यहां तक घोषित उम्मीदवार डॉ चौहान की शक्ति ,शोहरत की कमजोरी सामंतवादी सोच एवं सार्वजनिकता में गुमनामी के आरोप लगा दिए।   भाजपा संगठन इस प्रकार की दलील एवं प्रदर्शन के आगे नतमस्तक होगा या अनुशासन हीनता का डंडा चलाएगा, उसकी तस्वीर अभी धंूधली है। लेकिन फिलहाल तो इस महाभारत के संवेदनशील प्रकरण में भाजपा हाईकमान की खामोशी  ने धृतराष्ट युग की याद ताजा कर दी।  लेकिन यह तो संभव हैकि सियासत के इस मैंदान में तेजबहादुर के हाथ से बल्ला छिनना टेडीखीर होगा।

एक अनुशासित दल में हाईकमान की निर्णय को चुनौती देकर यह क्यों हो रहा है  उस पर विश्लेषण करना  आज सामयिक है। पहला कदम प्रेशर पोलिटिकस संभव है। जिसमें सियासत के सागर के भंवरजाल में डगमगाती कश्ती है। इसलिए टिकट बदलने का प्रदर्शन भीड़ के माध्यम से किया जा रहा है।  लेकिन विश्व का सबसे बड़ा दल कहे जाने वाले पार्टी के निर्णायक मंडल  इस प्रकार के प्रदर्शन को कितना तवज्जो देंगे और टिकट बदले उस पर फिलाहल तो संशय के बादल  है। दूसरी मंशा श्री शेखावत खेमे की यह मानी जा सकती हैकि बेहत्तर शक्ति प्रदर्शन के बाद मान-.मनुहार के बाद सम्मान जनक हल निकालने की तलाश संभव है । ताकि सांप भी ना मरे और लाठी भी ना टूटे। भविष्य में संवैधानिक  कोई पद का  नजराना भी मांगा जाए। लेकिन इस बिंदु में यह बाधा संभव हैकि यदि संयोग से काग्रेेस सरकार बनी तो इस नजराना के मार्ग में कांटे बिछ जाएंगे। दूसरी बात यदि भाजपा सरकार में आई तो शिवराज के हाथों में अब प्रदेश की बागडोर नहीं होगी। श्री शेखावत के आंगन की सियासत को धूप शिवराज की खिड़की से ही मिलने की जैसी चर्चा है। शिव को अब कुर्सी से दूर करने की रणनीति भाजपा हाईकमान ने स्वयं बनाई है। इसलिए यह हल भी संशय में है। फिर जिन 12 लोागों पर टिकट कटवाने  के आरोप लगा जा रहे वे अपने साथ  इस क्षेत्र में उपेक्षा के गहरे  जख्मों को दबाए बैठे हैं। ये भी अच्छे दिन आने पर इनाम मांगेंगे।ये लोग भी अपनी सरकार बनते ही  अपना- अपना  नजराना मंडल- कमंडल की और अपेक्षा रखेंगेें। पार्टी आखिर किस- किस को  खुश कर पाएगी। एक बड़ा  फैक्टर यह हैकि जिस प्रकार से श्री शेखावत खेमे से भीड़तंत्र को जुटाया जा रहा हैं और सोशल मीडिया पर समर्थकों  की मंशा चल रही हैकि- अब संघर्ष नहीं  रण होगा। यदि निर्णय मैंदान में जाने का हुआ तो  त्रिकोणीय मुकाबले के आसार संभव है। इस निर्णय से श्री शेखावत को उनकी तकदीर दो रास्ते की और ले जा सकती है। या तो सियासत की धार परवान चढेगी या अपने हाथों अपने पांव पर कुल्हाड़ी। विकल्प यह भी संभव  हैकि समय के साथ समझौता कर तेजबहादूर के संग जुट जाए।

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