इस हफ्ते की कई खबरों में एक खबर थी, चुनाव आयोग चाहता है कि पार्टियां चुनावी वायदों का विवरण दें। वैसे तो यह कोई बड़ा मामला नहीं है और प्रधानमंत्री ने रेवड़ी को मुद्दा नहीं बनाया होता तो इस खबर की कोई खास अहमियत नहीं थी। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 16 जुलाई को उत्तर प्रदेश के जालौन में फोर-लेन बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे का उद्घाटन किया। इसके बाद अपने संबोधन में उन सियासी दलों पर निशाना साधा जिन्होंने मुफ्त की रेवड़ियों का एलान कर वोट लेने का सहारा लिया। पीएम मोदी ने कहा, मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का अभ्यास देश के विकास के लिए हानिकारक है। बेशक, यह प्रधानमंत्री की राय है और हो सकता है वे सही भी हों पर यह देश की चिन्ता कैसे हो गई?
आप कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री की चिन्ता देश की चिन्ता क्यों नहीं होनी चाहिए। आखिर वे देश के चुने हुए प्रधानमंत्री हैं। मेरा एतराज इसी बात पर है कि वे चुने हुए प्रधानमंत्री हैं। चुना हुआ प्रधानमंत्री चुनने की प्रक्रिया को लेकर क्यों परेशान है? खासकर तब जब वह उसी प्रक्रिया से चुन का आया है और एक प्रधानमंत्री के रूप में उनकी नैतिक जिम्मेदारी है कि वे दूसरे दलों को वही स्थितियां मुहैया करवाएं। इसमें आवश्यक छूट भी है और वे उसका प्रयोग भी करते हैं। फिर क्यों चाहते हैं कि चुनाव वैसे ही हो जैसे वे चाहते हैं। मुफ्त रेवड़ी इसी चिन्ता का हिस्सा है जो खुलकर तो सामने आ गया है पर मीडिया इसे वैसे नहीं बता रहा है जैसे बताना चाहिए या जैसा यह मुद्दा है।
प्रधानमंत्री 16 जुलाई को यह मुद्दा उठाते हैं और 5 अक्तूबर के अखबारों में यह चुनाव आयोग की चिन्ता के रूप में छप जाता है। बात इतनी ही नहीं है। अगले ही दिन खबर छपती है कि चुनाव कानूनों में सुधार के लिए सरकार चुनाव आयोग से चर्चा में है। चुनाव आयोग को इसपर सरकार से चर्चा क्यों करनी चाहिए और समय बता रहा है कि चुनाव आयोग इस मामले को लेकर क्यों जल्दबाजी में है। यह सही है कि प्रधानमंत्री की चिन्ता देश की चिन्ता हो सकती है। लेकिन आठ साल के उनके शासन और काम काज ने यह साबित कर दिया है कि प्रधानमंत्री वैसे हैं नहीं जैसा बताया जाता है या वे दिखने की कोशिश करते हैं।
अब तो सबको पता है कि वे चुनाव में वोट लेने के लिए कुछ भी (लगभग) कर सकते हैं और किया है। इसमें झूठ बोलना शामिल है। ऐसे में रेवड़ी पर वे और उनके समर्थक जो बोल रहे हैं उसपर विचार किए जाने की जरूरत है। चुनाव आयोग को यह बात जरूरी लगती है तो वह सभी राजनीतिक दलों, दूसरे स्टेकधारकों आदि से बात करे। जल्दबाजी में नहीं, आराम से। सरकार को भी चुनाव कानून में जरूरी सुधार करना ही है तो दिखाने के लिए ही सही निष्पक्ष तो होना ही चाहिए। पर नहीं, ऐसा कुछ नहीं किया गया है। सरकार अपने तईं, चुनाव आयोग के साथ मिलकर कानून बदलना चाहती है। बदल पाएगी या नहीं वह तो बाद की बात है अभी वह इसे बदलने को लेकर क्यों परेशान है।
प्रधानमंत्री ने रेवड़ी से अपनी परेशानी बताई है। चुनाव लड़ने वालों की परेशानी चुनाव करवाने वाले की परेशानी नहीं हो सकती है। खास कर तब जब और कोई ऐसी मांग नहीं कर रहा है और जो सत्ता में है वही ऐसी मांग करे तो निश्चित रूप से यह सत्ता में होने का गलत लाभ उठाना है। इसलिए, ना सरकार को ऐसी कोई कोशिश करनी चाहिए ना चुनाव आयोग को ऐसे झांसे में आना चाहिए। दोनों हो रहा है। ऐसे में मीडिया का काम था कि वह सबको यह बात बताता पर मीडिया अपने इस काम से काफी समय से अलग चल रहा है और ऐसा वह सरकारी विज्ञापनों के लिए कर रहा है। आम तौर पर इस तरह के आरोप नहीं लगाए जाने चाहिए पर इस सरकार के मामले में सब खुल्लम-खुल्ला है इसलिए कहा जा रहा है और ना सरकार को शर्म है ना मीडिया को।
दिलचस्प यह है सरकार जिस काम का विरोध करती है, जिसे गलत बता रही है, चुनाव जीतने के लिए खुद वही करती आई है। सरकारी पार्टी की पुरानी घोषणाएं हों या चुनाव आयोग के पुराने फैसले – कई उदाहरण मिल जाएंगे। फिर भी चुनाव आयोग का ऐसा कहना और सरकार का ऐसा करना दोनों गलत हैं और जब दोनों गलत हैं तो मीडिया का काम है कि सरकार की मनमानी जनता को बताए ताकि जनता वोट देने के समय सरकार की इन मनमानियों का ख्याल रखे पर वह भी नहीं। कहने की जरूरत नहीं है कि मामला दिल्ली में मुफ्त बिजली और पानी देने के वायदे ही नहीं, सचमुच मुफ्त बिजली देने से जुड़ा हुआ है। इसलिए सरकार दिल्ली में दोबारा चुनाव नहीं जीत पाई तो वह इसे मुद्दा बनाना चाहती है।
इसलिए नहीं कि अब ऐसे वादे नहीं किए जा सकें या जनता को रेवड़ी न मिले। अगर सरकार जरूरतमंद को मुफ्त बिजली पानी दे सकती है तो देना ही चाहिए और देना है तो बोलने में क्या दिक्कत होनी चाहिए। लेकिन यह हमारी राय है, हो सकता है कुछ और लोगों की राय अलग हो और हम गलत हों। पर यहां मामला सही गलत होने का तो है ही नहीं। यहां तो चुनाव आयोग का उपयोग करके दूसरों को प्रचार करने से रोकना है क्योंकि सरकारी पार्टी को मालूम है कि नोटबंदी और उसके बाद की स्थितियों में अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण नहीं रह गया है और देर सबेर जनता को मुफ्त पैसे बांटने ही पड़ेंगे। अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस फायदे में रहेगी।
आपको याद होगा कि पिछले चुनाव में कांग्रेस ने हर जरूरतमंद परिवार को 7,000 रुपए महीने देने की एक योजना की घोषणा की थी। लोगों ने उसे पसंद नहीं किया और कांग्रेस चुनाव नहीं जीत पाई। पांच साल में यह साबित होता लग रहा है कि नरेन्द्र मोदी के पास अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने का कोई तरीका नहीं है और नोटबंदी के जो फायदे बताए गए थे वो तो नहीं ही हुए, नुकसान ऊपर से हुआ है। ऐसे में अगर जनता को यह बात समझ में आ गई और चुनाव में कांग्रेस ने अपने पुराने मुद्दे या घोषणा को बनाए रखा तो भाजपा को अच्छी टक्कर मिलेगी। जानकार बताते हैं कि ऐसा करना संभव है और इसका एक ही नुकसान है कि महंगाई बढ़ेगी पर वो तो इस सरकार में वैसे ही बहुत बढ़ गई है। इसलिए सरकार परेशान है और नहीं चाहती है कि कांग्रेस कोई ऐसी व्यावहारिक रेवड़ी योजना लाए कि वह चुनाव जीत जाए।
यहां एक मुद्दा और है, बात कांग्रेस के चुनाव जीतने से ज्यादा भाजपा के हारने की है। साफ है कि राहुल गांधी ना कांग्रेस अध्यक्ष बनने के इच्छुक है ना प्रधानमंत्री बनने की जल्दबाजी में हैं और ना ही यह कोशिश कर रहे हैं कि किसी भी तरह भाजपा हारे और कांग्रेस सत्ता में आए। वे आरएसएस औऱ भाजपा द्वारा किए गए नुकसान की चर्चा करके देश को जागरूक बनाना चाहते हैं और कोशिश कर रहे हैं कि लोग भाजपा का सच जानें उसका समर्थन छोड़ें। भाजपा सत्ता में नहीं रहेगी तो कांग्रेस सत्ता में आए या नहीं उन मामलों की जांच हो पाएगी जो भाजपा के सरकार रहने के कारण नहीं हो पा रही है। इनमें जज लोया की हत्या से लेकर रफाल और पेगासस की खरीद जैसे कई मामले हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि इन मामलों की जांच से सरकार के बड़े लोगों को खतरा है और वे नहीं चाहते हैं कि किसी भी तरह वे सत्ता से हटें और उन मामलों की जांच हो जिनके लिए राहुल गांधी ने कहा था कि चौकीदार चोर है। अब बहुत सारे मामले हैं, सरकार के पास जवाब नहीं है और जनता ने जो उम्मीद की थी वह सब नहीं हुआ। ऐसे में सत्तारूढ़ दल का परेशान होना स्वाभाविक है और वह हर संवैधानिक संस्था को अपने नियंत्रण में लेना चाहती है। राजनीति के लिहाज से आप इसे जायज मानें या जरूरी मीडिया का काम है जनता को सच बताना पर मीडिया वह काम भी नहीं कर रहा है। क्या आपको लगता है कि रेवड़ी मामले में चुनाव आयोग की फुर्ती पर अखबारों का रुख अपेक्षा अनुकूल रहा है?
वैसे भी, बहुमत के नाम पर सरकार संविधान नहीं बदल सकती है और ना चुनाव से संबंधित कायदे कानून। पर इस सरकार के हाल निराले हैं। पहले यह ईवीएम के खिलाफ थी, पार्टी के नेता किताबें लिख रहे थे अब वह मुद्दा ही नहीं है। सरकार के प्रभाव से सुप्रीम कोर्ट भी अछूता नहीं लग रहा है। उसके फैसलों के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है।
अगर आप नजर रखते हैं तो समझ भी रहे होंगे पर क्या मीडिया वैसे बता रहा है जैसे बताना चाहिए। उदाहरण के लिए, इंडियन एक्सप्रेस में शनिवार को खबर छपी है कि विधि मंत्री ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर कहा है कि वे अपने उत्तराधिकारी का नाम बताएं। अखबार ने लिखा है और यह उपशीर्षक है कि अगर वे प्रक्रिया के अनुसार सिफारिश करते हैं तो सबसे सीनियर जज न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ को दो साल का कार्यकाल मिलेगा। खबर पढ़ने से लगता है कि भले सब नियमानुसार है पर मामला बिल्कुल सीधा भी नहीं है।
कुछ तो पक रहा है। आखिर इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर छह कॉलम में लीड है और बाकी अखबारों के पहले पन्ने से गायब – तो कुछ कारण जरूर होगा। हो सकता है समझ में आए या नहीं समझ में आए। पर अखबार क्या करते हैं यह मैं जरूर बताउंगा। अगले हफ्ते नहीं तो फिर कभी। पर ऐसी ही खबरों के लिए पढ़ते रहिए – पहला पन्ना।