कमल शुक्ला : रायपुर। जी हां, यह केवल हमारे विचार नहीं हैं, छत्तीसगढ़ के हज़ारों लाखों लोग यह सोचने पर मजबूर हो गए हैं कि क्या ये वही भूपेश बघेल हैं जो अपने मधुर व्यवहार के कारण भैया जी, दाऊजी आदि संबोधनों से जाने जाते थे। जिन्होंने कांग्रेस संगठन को मज़बूत बनाने के लिए बहुत कुछ किया था।
जिन्होंने मध्य प्रदेश के समय में बदनाम राज्य परिवहन को सहस्राब्दि बसों तथा बोनस योजना के द्वारा संजीवनी दे दी थी। जिनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं होता था लेकिन आज के भूपेश बघेल हैं जो राज्य का सबसे बड़ा पाॅवर लिए बैठे हैं। उनकी कथनी और करनी में तो ज़मीन आसमान का अंतर दिखाई देता है। ऐसा क्या हो गया कि सत्ता में आते ही 3 वर्षों में भूपेश इतने अधिक बदल गए हैं ? जवाब ये है कि लगता तो यही है कि भाजपा को उसके शासन काल में फटकारने गरियाने तथा उसके भ्रष्टाचारों की पोल खोलने वाले भूपेश आज स्वयं भाजपा वालों के नज़दीकी बन चुके हैं, इतने अधिक नज़दीकी कि बच्चों को भी समझ में आ रहा है।
चाहे बस्तर के आदिवासियों के साथ उनकी सरकार का बेरहमी से भरा बर्ताव हो,अथवा भ्रष्टाचार के मामले हों। काँग्रेस जैसी गांधीवादी पार्टी में भारी संख्या में गोडसेवादी भाजपा से आयातित लोग भरे जा रहे हैं। सच पूछा जाए तो ये लोग कांग्रेस में आकर छुपे तौर पर भाजपा को ही मजबूत बनाने का काम कर रहे हैं। सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि 15 साल तक भाजपा सरकार की चाटुकारिता करने वाले बड़े बड़े अफ़सरों को भी भूपेश बघेल अपने गले लगाए हुए हैं। जबकि कोई दूसरा मुख्यमंत्री होता तो भाजपा माइंडेड ऐसे अफ़सरों को सन् 2018 में सत्ता में आते ही बाहर का दरवाज़ा दिखा देता। ये सभी कांग्रेस विरोधी तानाशाह किस्म के अधिकारी न केवल कांग्रेस राज में भाजपा शासन से भी कहीं अधिक निडरता से भ्रष्टाचार कर रहे हैं बल्कि प्रमोशन भी पा रहे हैं।
भाजपा के बड़े सेठ बृजमोहन अग्रवाल से सीधे-साधे सरल मुख्यमंत्री महोदय की मित्रता किसी से छुपी हुई नहीं है !! जिस व्यक्ति से सत्ता में आने के बाद पूरे छत्तीसगढ़ में अलग-अलग स्थानों पर किए गए हजारों एकड़ अवैध कब्जा हटाने की जवाबदारी इस सरकार की थी , उसने उन्हें भाजपा शासन में मिले सरकारी बंगला ही नहीं खाली कराया, भले ही अपने खुद के मंत्रिमंडल के कई सदस्यों के पास बंगला अब तक नहीं है । अभी बृजमोहन अग्रवाल और भूपेश बघेल के बीच या कांग्रेस और भाजपा के बीच क्या तालमेल है जिसके तहत यह संधि बनी हुई है यह तो वही लोग बता सकते हैं !!
भूपेश बघेल के शासन में हद तो यह हो गई है कि ऐसे भ्रष्ट लोग रिटायर होने के बाद भी किसी न किसी पद पर संविदा नियुक्ति पा लेते हैं और भ्रष्टाचार की रबड़ी मलाई खाते रहते हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के पर्यटन मण्डल में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित पर्यटन अथिकारी के पद पर प्रतिनियुक्ति दे जिस महिला को 06 – 07 साल तक मौज करने दिया गया, और गलती का भान होते ही पूर्व मुख्यमंत्री डाॅ रमन सिंह के हस्तक्षेप उपरांत उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था, उसी बर्खास्त महिला को पद रिक्त नहीं होने व निर्धारित योग्यता ना होने के बाद भी भूपेश सरकार की पूरी कैबिनेट ने विशेष प्रकरण बता पर्यटन मण्डल में ही जनसंपर्क अधिकारी का नया पद सृजित कर नियुक्ति देने की विधि विरूद्ध अनुशंसा कर दी, इस प्रकरण की राष्ट्र स्तर पर चर्चा है। इस मुद्दे को उठाने वाले बस्तर बन्धु के संपादक सुशील शर्मा जिन्होंने बस्तर बन्धु अखबार को एक तरह से कांग्रेस पार्टी के मुख पत्र की निकाला और उनकी पार्टी को अपनी वन मैन आर्मी के रूप में बहुमूल्य सेवा दी, उन्हें ही डराने धमकाने तरह – तरह से पुलिस के माध्यम से प्रताड़ित किया गया ।
राज्य महिला आयोग आदि के माध्यम से उन्हें प्रताड़ित किया गया, नहीं बन सकने वाले मामले अधिकारों का दुरूपयोग कर बना बना कर उनकी गिरफ्तारी की गयी, जेल भेजा गया, यह तो इस 60 वर्षिय वरिष्ठ पत्रकार जो अपने युवा पुत्र के दुर्घटना जन्य मृत्यु के कारण पुत्र वियोग में होने के बाद भी अपने दायित्वों का पूर्ण संजीदगी के साथ आज भी बेखौफ़ निर्वहन कर रहे हैं। इस प्रकार के अप्रिय दृश्य देखकर प्रदेश व देश की पब्लिक बाद में क्या नहीं सोचती होगी कि भूपेश बघेल भाजपा सरकार के समय उनके साथ रहने वाले राजेश दुबे जैसों के परिवार को ही उपकृत कर रहे हैं इसके लिए पूरी कैबिनेट को झोंक दे रहे हैं। क्या वे इन जैसों व सब अवसरवादियों, अरबपति/करोड़पति अधिकारियों से डरते हैं?
या फिर भाजपा से नज़दीकी बढ़ाने के लिए इन शुद्ध भाजपाई अफ़सरों/मतलब परस्तों पर मनमानी कृपा बरसा रहे हैं। कोई तीसरी बात तो हो ही नहीं सकती। मुख्यमंत्री की करनी और कथनी में भारी अंतर जो है, वह अभी हाल ही में ज्वलंत उदाहरण के रूप में सामने आया जब उनके पिताजी के खिलाफ़ थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज हुई । तब मुख्यमंत्री जी ने बड़े मासूम अंदाज़ में बयान प्रसारित कर दिया कि क़ानून से बड़ा कोई नहीं है । मेरे पिता भी नहीं हैं। ऐसे बयान से कुछ लोगों पर थोड़ा बहुत असर पड़ा भी होगा तो भी वह असर उनके पिताजी के जमानत आवेदन नहीं देने के बाद भी ज़मानत हो जाने के साथ ही समाप्त भी हो गया। खैर हमें खुशी है कि पुत्र ने पिता के प्रति अपना फर्ज निभाया, आपके पिताश्री जो मुझ पर हमला करने वाले रिकार्डेड गणेश तिवारी जैसे फर्जी पत्रकार को अपनी गोद में बिठाल कर उस जैसे दैत्य को एक सही पद दैत्य गुरु से विभूषित कर लिए घूम रहे हैं।
खैर ये तो वे बातें हो गयीं जो लोगों को समझनी चाहिए, आपके उस बयान पर कि कानून अपना काम करेगा पर अब सवाल उठता है कि क्या डीजीपी क़ानून से ऊपर हैं ? मुख्य मंत्री के पिताजी से भी बड़े हैं ? क़ानून अपना काम करे न करे, एक लोक कल्याणकारी सरकार तो कम से कम अपना काम करे और आरोपी डीजीपी समेत अन्य आरोपित अधिकारियों को हटाये।
बात यह चल रही थी कि जब मुख्यमंत्री स्वयं कह रहे हैं कि क़ानून से ऊपर उनके 86 वर्षीय पिता भी नहीं हैं। तो फिर डीजीपी अर्थात छत्तीसगढ़ राज्य पुलिस के सर्वेसर्वा, दुर्गेश माधव अवस्थी कैसे क़ानून से ऊपर हो गए ? जिनसे एक साधारण सा एक्सप्लेनेशन कॉल भी नहीं किया गया। महिला आरक्षक का (माना, रायपुर ) प्रशिक्षण केन्द्र में यौन शोषण, नीली फिल्में दिखा कर वैसा ही करने का दबाव बनाने का गंभीर नामजद आरोप लगने के बाद भी कोई एक्शन क्यों नहीं हुआ। क्या यह मान लिया जाए कि छत्तीसगढ़ का क़ानून, उस छत्तीसगढ़ का जिसके मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जैसा तथाकथित बाटी, भौंरा, गेड़ी, हरेली, तीजा, पोरा को मानने- जानने वाला है और उनके कैबिनेट मंत्री एक से एक बढ़कर क़ानूनबाज़ हैं। यह क़ानून अब मुर्दा हो गया है अथवा पक्षपातपूर्ण एकतरफ़ा कार्यवाही में व्यस्त है।
पिछले कुछ ही दिनों के अख़बार जिन्होंने पढ़े होंगे, वे जानते होंगे कि किस तरह एक महिला पुलिस ने (जो वृंदावन जाकर फूल माला बेच रही है), छत्तीसगढ़ की पुलिस पर उसके मुख्यालय पर और पुलिस के सबसे बड़े अधिकारी पर भी सनसनीखेज़ आरोप लगाए हैं । यही नहीं एक अन्य पुलिस आरक्षक भी अपनी करुण कहानी सुनाते- सुनाते अचानक ग़ायब हो गया है अथवा ग़ायब कर दिया गया है। पुलिस के मुखिया इन मामलों में अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के बदले चुपचाप मिटकाये बैठे हैं। पुलिस मुख्यालय में बहुत कुछ भ्रष्टाचार होता है। महिला आरक्षक हो या पुरुष सभी का शारीरिक तथा मानसिक शोषण भी होता है लेकिन मुख्यमंत्री जी की हिम्मत नहीं है कि पुलिस प्रमुख को एक साधारण नोटिस भी देकर जवाब तलब कर लें अथवा जवाब तलब करने का ढोंग ही कर लें। छत्तीसगढ़ की जनता सीधी सादी भोली भाली है। वह आपके ढोंग को भी सुनकर यकीन कर लेगी लेकिन आपके पास तो इतना भी करने का साहस नहीं बचा है। आपको सिर्फ अपनी कुर्सी बचाने की पड़ी है।
पुलिस प्रमुख पर तो जैसे इतने ही आरोप काफी नहीं हैं। इन पर लगा हुआ सबसे बड़ा आरोप तो पिछले विधानसभा चुनाव का है जिस पर राज्य चुनाव आयोग यदि रुपए में एक पैसे भी गंभीरता दिखाता तो तो बाबा की वर्दी उतर जाती या डिमोशन तो हो ही जाता लेकिन भाजपा के 15 वर्षीय शासन में जमकर खेले – खाए पुलिस के बबा का जादू चुनाव आयोग पर ही नहीं बल्कि नए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पर भी चल गया और कार्यवाही के नाम पर एक बड़ा भारी 0 का गोला आज भी दिखाई दे रहा है और बता रहा है कि भूपेश भैया का यह कहना कि कोई क़ानून से ऊपर नहीं है, मेरे 86 वर्षीय पिता भी नहीं। अब तो मानना पड़ेगा कि पुलिस के बाबा तो अवश्य ही क़ानून से ऊपर हैं और यह तो सभी जानते होंगे कि पिता के पिता को ही दादा या बाबा कहा जाता है। आप लाख कहिए कि मुख्यमंत्री का कथन खोखला है लेकिन सच्चाई तो आपके सामने ही है कि हम बाप को तो जेल भेज सकते हैं लेकिन बाप के बाप यानी बाबा को कैसे भेजें ? चाहे वह मामला चुनाव के समय लगी हुई आचार संहिता के खुल्लम खुल्ला उल्लंघन का ही क्यों ना हो ? और यह उल्लंघन भाजपा सरकार के समय भाजपा को लाभ पहुंचाने के लिए ही किया गया था, यह सर्वविदित है।
इस संबंध में संविधान कुछ कहता है और पुलिस तथा प्रशासन का रवैया कुछ और रहता है। संविधान का कथन है कि जब आचार संहिता लग जाती है तब देश या प्रदेश के (जहां चुनाव हो रहे हों, वहां के) किसी भी मंत्री या अफ़सर के आदेश को संदेह के आधार पर भी चुनाव आयोग रोक सकता है या रद्द भी कर सकता है, मंत्रिमंडल के फैसले पर भी आपत्ति लगाकर उसे बदलने को मजबूर कर सकता है। आचार संहिता अवधि में चुनाव आयोग के मुख्य आयुक्त ही सर्वेसर्वा होते हैं और आवश्यक से आवश्यक निर्णय के क्रियान्वयन हेतु मंत्रियों तथा अधिकारियों को चुनाव आयोग की पूर्व अनुमति की आवश्यकता होती है। लेकिन वर्तमान पुलिस प्रमुख ने विगत विधान सभा चुनाव में आचार संहिता को ठेंगा दिखाते हुए उसकी अवधि के अंदर ही 30 नवंबर 2018 को एक पोस्टिंग ट्रांसफर लिस्ट पर दस्तख़त किए जिसमें 13 पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षु के रूप में विभिन्न ज़िलों में तत्काल प्रभाव से जाने का आदेश दिया गया था और उन्हें जाना ही पड़ा।
इतनी भारी अनियमितता जिसे ज़बरदस्ती की धांधली कहना चाहिए, राज्य चुनाव आयोग की आंखों के सामने होती रही और चुनाव आयुक्त महोदय तमाशा देखते रहे। किया कुछ नहीं। जिस अधिकारी को चुनाव के समय आचार संहिता अवधि में मंत्रिमंडल के फैसलों को भी बदल देने का अधिकार है, उस आदमी को पुलिस के बबा से न जाने कौन सा डर था ? छत्तीसगढ़ की पब्लिक ने सोचा कोई बात नहीं, जब नया मुख्यमंत्री शपथ ग्रहण कर लेगा, तो वह पहली कार्यवाही पुलिस के बबा की मनमानी पर अवश्य करेगा लेकिन यह आशा भी दुराशा साबित हुई और आज 3 वर्ष बीत चुके हैं, भूपेश बघेल ने पुलिस के इस अधिकारी से कोई सवाल ही नहीं पूछा और उसे डी जी पी की कुर्सी देकर पुलिस का बड़े बबा बना दिया। ना राज्य चुनाव आयोग के तत्कालीन चेयरमैन से ही उन्होंने कोई बात ही की। ऐसा आदमी जब कहता है कि क़ानून से ऊपर कोई नहीं है तो उस पर हंसने के अलावा हम लोग और क्या कर सकते हैं ?