आजकल जोशीमठ की धंसती जमीन चीख रही है उसकी चीख भीषण दरारों के रूप में सामने आई है।जैसा कि हम सब जानते ही हैं कि हिमालय जैसी विशाल पर्वत श्रृंखला धरती में होने वाले भूगर्भिक परिवर्तन की सबसे नई घटना है।धरती के इतिहास में इसे तकरीबन एक करोड़ साल पुराना माना जाता है। जिसमें आज दीर्घ,लघु हिमालय , शिवालिक श्रेणियां , ब्रह्म पुत्र, सिंधु और गंगा यमुना के दोआब हैं वहां पहिले विशाल टेथिस महासागर लहराता था। इसके उत्तर में जहां आज पश्चिमी यूरोप,रुस और उससे अलग कई देश हैं वह अंगारा लैंड कहलाता था। टेथिस महासागर के दक्षिण में गौड़वाना लैंड था जिसमें भारत का गंगा,जमुना और ब्रह्म पुत्र के नीचे वाला हिस्सा था। इसमें अफ्रीका महाद्वीप और आस्ट्रेलिया महाद्वीप जुड़ा था। अंगारा लैंड और गौड़वाना लैंड में बहने वाली नदियों का सारा जल और अवसाद टेथिस महासागर में पहुंचता था।
एक बड़ी भूगर्भीय हलचल के बाद टेथिस महासागर के गर्भ से विशाल पर्वत श्रृंखला निकली जिसे हिमालय कहते हैं।अभी हिमालय की ऊंचाई निरंतर बढ़ रही है । हिमालय में भूकंप प्राय:इसका अहसास कराते रहते हैं कि हिमालय अभी निर्माण प्रक्रिया में है। इसीलिए दीर्घ हिमालय जिसमें सर्वाधिक ऊंचाई है उसमें मानव बसाहट ना के बराबर है।दूसरा लघु हिमालय का क्षेत्र है जिसमें हमारे प्रमुख तीर्थ अमरनाथ, बद्रीनाथ, केदारनाथ वगैरह हैं। बद्रीनाथ के रास्ते में ही जोशीमठ स्थित है। तीर्थ स्थानों पर लगने वाली भारी भीड़,उनकी व्यवस्था हेतु जो विकास हुआ है। खासकर होटलों और सड़कों का उससे पहाड़ दरकते हैं और गिरते भी रहते हैं लेकिन इसकी अनदेखी कर सड़कों का चौड़ीकरण लाखों लोगों की आवाजाही एक बड़ी कमाई का ज़रिया बन गया है इसने पहाड़ों में तबाही मचाई है। केदारनाथ त्रासदी से भी कोई सबक नहीं सीखा गया।
वास्तविकता यह है कि जिन पर्वत श्रृंखलाओं को हम मज़बूत मानकर उन पर तकनीकी प्रहार कर रहे हैं वो टेथिस महासागर का ऊपरी हिस्सा है जिसमें नदियों की रेत मिट्टी बड़े रुप में मौजूद है।ऊपर भले वह कुछ सख्त हो गई हो। इसलिए वहां के वाशिंदे लकड़ियों के हल्के मकान बनाकर रहते रहे हैं वे भी कोणधारी वनों की तरह बर्फबारी से सुरक्षित। लेकिन अधुनातन विकास ने बड़ी बड़ी इमारतें इन पर्वतों पर बना डाली हैं। ग़लत विकास आज दुखदाई हो रहा है। दूसरे यहां बहने वाली नदियां अंत: प्रवाहित भी हैं वे कब किस ओर चल दें पता ही नहीं चलता।तीसरे हिमालय में जब कहीं हलचल होती है तो इसका असर अंत: स्थिति पर पड़ता है जिससे ऊपर के तमाम समीकरण बदल जाते हैं।ऐसी स्थिति में जोशीमठ की यह स्थिति अप्रत्याशित नहीं है।
ऐसे संवेदनशील क्षेत्र में बांधों का निर्माण भी संतुलन को काफी हद तक प्रभावित करता है टिहरी बांध निर्माण के समय इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद हुई लेकिन उसे दबा दिया गया इससे पूर्व जब 1999 में विष्णु प्रयाग में अलकनंदा नदी पर बांध बनने का काम शुरू हुआ था, तब ज्योतिर्मठ और द्वारका शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी ने जनता से अनुरोध किया था कि इस बांध के खिलाफ प्रबल आंदोलन छेड़ा जाए।अगर ये बांध बन गया तो जोशीमठ को निगल जाएगा।तब शंकराचार्य के अनुयायियों ने एक आंदोलन की शुरुआत की भी थी, उस आंदोलन को कमजोर करने के लिए एक सांस्कृतिक संगठन आगे आया, उसके स्वयंसेवक घर घर गए। जनता को समझाया कि विकास के लिए बांध जरूरी है। जनता की समझ में बात आ गई। आंदोलन खत्म हो गया। विकास इतनी तेजी से शुरू हुआ कि नदियों की धाराओं को मोड़ने के लिए सुरंगें तक बना दी गईं। जिस सुरंग ने काम नहीं किया, उसे वैसा का वैसा छोड़ दिया गया, अधबना। जोशीमठ के नीचे ऐसी सुरंगें हैं। यहां पर्यटन बढ़ाकर कमाई का जरिया देकर लोगों को खुश किया गया। ऐसा ही प्रत्येक पर्वतीय तीर्थ का हाल है।
जोशीमठ सिर्फ़ पर्यटन और आध्यात्मिक केंद्र नहीं है वह बद्रीनाथ पहुंचने का महत्वपूर्ण रास्ता भी है यहां चीन की सीमा लगी हुई है जहां हमारी सेना चाक चौबंद पहरा देती हैं उनकी तमाम रसद जोशीमठ होकर ही पहुंचती है। ज़मीदोज़ होते जोशीमठ पर्वत के सामने दीवार बनाकर उसे कदापि नहीं बचाया जा सकता आवश्यकता इस बात की उस संवेदनशील क्षेत्र से तमाम पर्वतीय भार अविलंब हटाया जाए उसका दोहन रोका जाए और खोखले क्षेत्र को मज़बूत किया जाए ताकि इस क्षेत्र की सांसें बेखौफ चलती रहें। यदि इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो जोशीमठ शीघ्र ही ज़मीदोज़ हो जायेगा। जोशीमठ की गहरी दरारें और केदारनाथ त्रासदी बड़े संकट का इशारा कर रही है इसकी उपेक्षा भारी पड़ सकती है। वैसे भी पर्वत धीरे धीरे विखंडित होते हैं यह दीर्घकालिक स्वरूप में होता है। पर्वतों की बनावट जाने बिना इस पर विकास की बाढ़ विनाशक होगी।यह बहुत पहले कहा जा चुका है।