न्यायाधीशों के पास अपने पक्ष में जनमत बनाने के लिए मीडिया के माध्यम से जनता तक जाने की स्वतंत्रता नहीं है, जो विधायिका, कार्यपालिका तथा एक सामान्य नागरिक को आसानी से सुलभ है। ऐसा पहली बार हुआ है कि, सुप्रीम कोर्ट ने, अपने कॉलेजियम प्रस्तावों के माध्यम से, तीन प्रमुख नामों- सौरभ किरपाल, सोमशेखर सुंदरेसन, और आर जॉन सत्यन को क्रमशः दिल्ली उच्च न्यायालय, बॉम्बे उच्च न्यायालय और मद्रास उच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिए पुन: सिफारिश करते हुए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समलैंगिक अधिकारों पर सरकार को, कानून की नई व्याख्या से, प्रशिक्षित किया। और यह सब भी किसी सीलबंद लिफाफे में नहीं बल्कि अपनी वेबसाइट पर, तर्कों और तथ्यपूर्ण व्याख्या सहित किया गया।
दिनांक 20 जनवरी को, सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश, डीवाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय किशन कौल और केएम. जोसेफ भी शामिल थे, की बैठक हुई। उनपर, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्त के लिए, उपयुक्त नामों की सिफारिश करने का दायित्व था। कॉलेजियम की इस बैठक के बाद, पहले सुझाए गए कुछ नामों को, दुबारा सरकार को, विभिन्न उच्च न्यायालयों में नियुक्ति के लिए भेजा गया। कॉलेजियम द्वारा की गई किसी सिफारिश को दुबारा भेजे जाने का अर्थ है कि, कार्यपालिका (सरकार) द्वारा व्यक्त की गई आपत्तियों के आलोक में, पिछली सिफारिश पर पुनर्विचार करने के बाद, कॉलेजियम को उन आपत्तियों में कोई ऐसा तथ्य नहीं मिला, जिसे कॉलेजियम निरस्त कर दे। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार, जजों की नियुक्ति के लिए, कॉलेजियम द्वारा दुबारा भेजी गई सिफारिश, कार्यपालिका के लिए बाध्यकारी है।
पिछले कई महीनों से सरकार के विभिन्न मंत्री तथा उपराष्ट्रपति द्वारा जिस तरह से न्यायपालिका पर सार्वजनिक रूप से हमले हो रहे हैं, उसे देखते हुए, यह साफ कहा जा सकता है कि, सरकार और न्यायपालिका के बीच सबकुछ सहज नहीं चल रहा है। उपराष्ट्रपति ने तो सुप्रीम कोर्ट के, कार्यपालिका के फैसलों की न्यायिक समीक्षा के अधिकार और शक्तियों पर ही सवाल उठा दिया जबकि सुप्रीम कोर्ट, संविधान के कस्टोडियन के रूप में कार्यपालिका ही नहीं, संसद यानी विधायिका द्वारा पारित किसी भी कानून, यहां तक कि संवैधानिक संशोधनो की भी न्यायिक समीक्षा करने के लिए संविधान द्वारा शक्ति संपन्न और अधिकृत है। केशवानंद भारती के मामले में 13 जजों की बेंच ने तो, संसद की सर्वोच्चता के बावजूद, यह व्यवस्था दी है कि, संसद, संविधान के मूल ढांचे में कोई परिवर्तन या संशोधन करने के लिए सक्षम नहीं है।
अक्सर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया जिसे कॉलेजियम सिस्टम कहा जाता है, पर पारदर्शिता के अभाव के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन, सरकार द्वारा, पहली बार की गई सिफारिशों के वापस लौटा देने के बाद, कुछ जजों के नाम की सिफारिश, दुबारा क्यों की जा रही है, इसके कारणों को या यूं कहें कि, कॉलेजियम के मीटिंग के मिनिट्स, इस बार सुप्रीम कोर्ट ने अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक कर दिए गए हैं। कोई भी व्यक्ति, उन कारणों को देख और पढ़ सकता है। यह एक अभूतपूर्व और समयानुकूल निर्णय है। हालांकि, पहले की गई, किसी सिफारिश की पुनरावृत्ति, उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया का, केवल एक हिस्सा है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने दूसरे न्यायाधीशों के मामले (1993) में परिकल्पित किया था। लेकिन इस बार की पुनरावृत्ति, कई मामलों में महत्वपूर्ण है कि, पहली बार, कॉलेजियम ने सार्वजनिक डोमेन में सिफारिशों के तर्कपूर्ण पुनरावृत्तियों को अपलोड करना उचित समझा है। न्यायपालिका के अनुसार, इसका उद्देश्य कार्यपालिका को किसी खराब रोशनी में दिखाना नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य, कार्यपालिका की पिछली प्रवृत्ति के आलोक में कॉलेजियम के दोहराव की खूबियों की व्याख्या करना और उसे पारदर्शी बनाना है।
स्पष्ट है कॉलेजियम, अपनी स्थिति जनता के सामने साफ करना चाहता है ताकि पारदर्शिता के अभाव का जो आरोप इधर, अक्सर कॉलेजियम पर, लगाया जा रहा है, उसे सुप्रीम कोर्ट, तथ्यों और तर्कों द्वारा, विधिक रूप से, स्पष्ट कर सके। पहले जो कॉलेजियम थे, उन्होंने, दुबारा सिफारिशें कम की और यदि सरकार ने कोई सिफारिश वापस कर भी दी, या उसे लंबित रखी, तो उस पर बहुत अधिक दबाव नहीं दिया। यह एक प्रकार से सरकार के अघोषित वीटो को स्वीकार करना था। हो सकता है, तब के सीजेआई और कॉलेजियम, सरकार से कोई विवाद नहीं चाहते हों। तब सरकार की तरफ से कॉलेजियम की कोई मुखर आलोचना भी नहीं की जाती थी। नए सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में, मौजूदा कॉलेजियम, अब इस आरोप, कि, सारा कार्य व्यापार, अपारदर्शी तरह से हो रहा है, की छाया से बाहर आ गया है और उसने, जो जैसी स्थिति है, उसे वैसे ही सार्वजनिक पटल पर रखने का स्वागतयोग्य कार्य किया है।
ऐसा करने में कॉलेजियम की कोई हानि भी नहीं है, बल्कि इस पारदर्शिता से, उनकी विश्वसनीयता ही बढ़ेगी। यदि कार्यपालिका, कॉलेजियम द्वारा दुबारा भेजे गए सिफारिशों का अनुपालन नहीं करती है, तो, लोगों की राय, कार्यपालिका के प्रति विपरीत तो होगी है, और यह सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना भी होगी, क्योंकि, कॉलेजियम द्वारा दुबारा भेजी गई सिफारिश, सरकार के लिये बाध्यकारी है। तब अनावश्यक रूप से न्यायपालिका और कार्यपालिका का विवाद सार्वजनिक पटल पर आयेगा, जो किसी के लिए भी भला नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय, जनमत के बढ़ते प्रभाव का परिणाम है। तेजी से आगे बढ़ती और बदलती दुनिया में पारदर्शिता का, अपना एक अलग महत्व है।
जिन कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशों को, दुबारा भेजा गया है उनके बारे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये कारण और तर्क, को पढ़ा जाना चाहिये। वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ किरपाल को दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत करने की सिफारिश की पुनरावृत्ति का एक कारण यह है कि, “किसी के यौन पसंदगी या आदत के आधार पर, क्या उसके साथ कोई भेदभाव हो सकता है।”
दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सौरभ कृपाल की पदोन्नति का महत्व इसलिए भी है कि, यह एक अभूतपूर्व परिस्थितियों और उनकी निजी यौनरुचि पर आधारित निर्णय है। हालांकि, इस नियुक्ति को, दक्षिण अफ्रीका के संवैधानिक न्यायालय के न्यायमूर्ति एडविन कैमरन की नियुक्ति के समानांतर भी देखा जा रहा है। उल्लेखनीय है कि, इस सिफारिश से पहले सौरभ किरपाल ने खुद को, खुले तौर पर समलैंगिक घोषित किया है। इस विंदु पर, कॉलेजियम यह सवाल उठाता है कि, “संविधान के अनुच्छेद 15(1) के तहत भारत का समृद्ध न्यायशास्त्र इस बात का एक अतिरिक्त कारक है कि, किरपाल की नियुक्ति सिफारिश को मानने में सरकार द्वारा की गई, अत्यधिक देरी अनुचित क्यों है?”
अनुच्छेद 15(1) के शब्द – कि ‘राज्य किसी भी नागरिक के खिलाफ केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा, के आधार पर, कॉलेजियम ने, किरपाल की नियुक्ति की दुबारा सिफारिश की है। कॉलेजियम का कहना है कि, “लिंग या यौनरुचि के आधार पर, इस तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। यह संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा।”
न्यायशास्त्र और संविधान पर, कल्पना कन्नबीरन ने एक बेहद महत्वपूर्ण और सारगर्भित पुस्तक लिखी है, ‘टूल्स ऑफ जस्टिस: गैर-भेदभाव और भारतीय संविधान’। यह किताब साल, 2012 में, प्रकाशित हुई है। कल्पना के अनुसार, “मौलिक अधिकार से सम्बंधित, अनुच्छेद 15 (1) में प्रयुक्त वाक्यांश, ‘या उनमें से कोई’ – का अर्थ ‘केवल’ से अलग है।” कल्पना ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि, “वाक्यांश ‘या उनमें से ‘कोई’ स्पष्ट रूप से निहित है कि, राज्य केवल सूचीबद्ध आधारों पर और, किसी भी सूचीबद्ध आधारों पर – एकवचन या बहुवचन में, और कारकों के साथ किसी भी सूचीबद्ध सूचकांक के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। यानी जो विंदु सूची में शामिल नहीं हैं, और वे जो बड़े संदर्भ की ओर इशारा करते हैं, उन्हें भी इस विंदु में शामिल किया जा सकेगा।”
हालांकि 2018 में नवतेज सिंह जौहर मामले में अपना फैसला सुनाए जाने तक, सुप्रीम कोर्ट ने कल्पना कन्नाबिरन की न्यायशास्त्र की इस थीसिस को शामिल नहीं किया था। अब जाकर छह साल बाद, सुप्रीम कोर्ट ने इस व्याख्या को, अपनी पुनः सिफारिश का आधार बनाया है।
हालांकि, सरकार ने, कॉलेजियम द्वारा की गई, किरपाल की नियुक्त सिफारिश न मानने और नियुक्त करने से इनकार करने पर, नवतेज सिंह जोहर के मामले का उल्लेख करते हुए अपनी बात रखी थी। कॉलेजियम द्वारा दुबारा की गई इस सिफारिश में, यह स्पष्ट किया गया है कि, किरपाल को दोहरी अयोग्यता का सामना करना पड़ा, एक लिंग (यहां समलैंगिक यौनरुचि) के आधार पर भेदभाव और दूसरे अन्य आधार। यह ‘दूसरा’ आधार, फिर अनुच्छेद 15 के तहत सूचीबद्ध नहीं था, लेकिन, उसके मूल में निहित है। दूसरा विंदु जो सरकार ने उठाया, वह है, किरपाल का एक, विदेशी नागरिक को अपने साथी के रूप में रखना। नवतेज सिंह जौहर मामले में, अदालत ने इस विवाद को जोरदार तरीके से खारिज कर दिया, क्योंकि अदालत के विचार में, “लिंग के आधार पर भेदभाव, स्वभाव से, अंतर्विरोधी है, और इसलिए, उसे अन्य भेदभावपूर्ण विशेषताओं से अलग नहीं किया जा सकता है। जब यौनरूचि में भेदभाव, कानूनन रद्द मान लिया गया है तो फिर साथी चुनने के अधिकार पर किसी प्रतिबंध को कैसे माना जा सकता है।”
शब्द लिंग केवल जेंडर का ही बोध नहीं कराता है। इसकी व्याख्या, जेंडर से भी व्यापक है। बोस्टॉक बनाम क्लेटन काउंटी के मुकदमे में 2020 में, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के 6:3 के फैसले से पता चलता है कि शब्द “लिंग”, “यौन अभिविन्यास” या यौनरुचि और “ट्रांसजेंडर स्थिति” एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, जिससे यौन अभिविन्यास या ट्रांसजेंडर स्थिति के आधार पर भेदभाव करना असंभव हो जाता है। यह सामान्य सेक्स से अलग है, और इस तरह सेक्स के आधार पर किये जाने वाले भेदभाव को कानूनी सुरक्षा से, वंचित नहीं किया जा सकता है। बोस्टॉक मामले की ही तरह, यूएस सुप्रीम कोर्ट ने दो अन्य मामलों पर भी विचार किया, जिनमें से प्रत्येक जज ने समान भेदभावपूर्ण व्यवहार पर चिंता जताई। बोस्टॉक मामले में, गेराल्ड बोस्टॉक को समलैंगिक सॉफ्टबॉल लीग में भाग लेने के बाद, उसकी नौकरी से निकाल दिया गया था। इसी तरह, एल्टीट्यूड एक्सप्रेस, इंक. बनाम ज़र्दा के मामले में, डोनाल्ड ज़र्दा को, एक ग्राहक के सामने अपने समलैंगिक होने का खुलासा करने के तुरंत बाद, नौकरी से निकाल दिया गया था। एक अन्य मामला, आरजी एंड जीआर हैरिस फ्यूनरल होम्स बनाम समान रोजगार अवसर आयोग में, एक कर्मचारी जिसने, पहले खुद को पुरुष के रूप में प्रस्तुत किया था, को उसके नियोक्ता को सूचित करने के बाद निकाल दिया गया था कि, उसने लिंग परिवर्तन सर्जरी से गुजरने की प्रत्याशा में, महिला के रूप में खुद को प्रस्तुत करना शुरू करने की, योजना बनाई थी। यह तीन मामले अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के, महत्वपूर्ण मामले है, जिनका आधार कॉलेजियम ने, किरपाल की पुनः सिफारिश करते समय लिया है।
बोस्टॉक मामले में, न्यायालय ने 1964 के नागरिक अधिकार अधिनियम के शीर्षक VII का आधार लिया और उसकी व्याख्या की, जो किसी कर्मचारी की जाति, रंग, धर्म, लिंग या राष्ट्रीय मूल के कारण होने वाले रोजगार के भेदभाव को रोकता है। कंजरवेटिव न्यायाधीश, न्यायमूर्ति नील गोरसच द्वारा लिखे गए बहुमत के फैसले ने 1964 में सांसदों के इरादों पर विचार करने से इनकार कर दिया, जो शायद अलग हो सकता था। शीर्षक VII का पाठ यौन अभिविन्यास या लिंग पहचान के आधार पर रोजगार भेदभाव को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित करता है, यह निष्कर्ष, जस्टिस गोरसच ने निकाला। बोस्टॉक मामले में यूएस सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस दृष्टिकोण को पुष्ट करता है कि, किसी मामले के तथ्यों पर विचार करते समय न्यायाधीशों के पक्षपाती होने की संभावना नहीं होती है।
किरपाल की पदोन्नति पर, कॉलेजियम के प्रस्ताव में, केंद्रीय कानून मंत्री को उनके 1 अप्रैल, 2021 के पत्र के हवाले से उद्धृत किया गया है: “हालांकि भारत में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है, फिर भी समान-लिंग विवाह अभी भी या तो संहिताबद्ध वैधानिक कानून या असंहिताबद्ध व्यक्तिगत कानून में मान्यता से वंचित है।”
प्रस्ताव में आगे कानून मंत्री के हवाले से कहा गया है कि, “उम्मीदवार की “समलैंगिक अधिकारों के लिए उत्साही भागीदारी और भावुक लगाव” पूर्वाग्रह और पूर्वाग्रह की संभावना से इंकार नहीं करेगा।”
इस पर कॉलेजियम, ने यूएस सुप्रीम कोर्ट का उल्लेख किया, जहां न्यायाधीश, अपने राजनीतिक दलीय झुकाव के लिये जाने जाते हैं और अमेरिका में, यह उनकी नियुक्ति का आधार भी होता है, और कहा, “यह बताने की जरूरत है क्या, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में, जहां नौ न्यायाधीशों में से प्रत्येक की राजनीतिक निष्ठा अच्छी तरह से जानी जाती है, जिसके आधार पर राष्ट्रपति ने उन्हें नियुक्त किया था, दो कंजरवेटिव न्यायाधीश (जस्टिस गोरसच और मुख्य न्यायाधीश जॉन रॉबर्ट्स) जिनके राजनीतिक आकाओं ने अतीत में LGBTQI अधिकारों के लिए कोई स्पष्ट सहानुभूति नहीं दिखाई थी, भी बोस्टॉक मामले में एक निष्पक्ष दृष्टिकोण ले सकते हैं। क्या कानून मंत्री की आशंका का कोई औचित्य है कि, किरपाल के न्यायिक फैसले (जज के रूप में यदि वे नियुक्त हो जाते हैं तो) पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो सकते हैं?”
कॉलेजियम ने किरपाल के संवैधानिक रूप से प्राप्त अधिकारों की ओर ध्यान आकर्षित किया, और यह माना कि, उनकी नियुक्ति समावेश और विविधता प्रदान करेगी।
इसी तरह के दो और, दुबारा भेजे जाने वाले मानले हैं, सोमशेखर सुंदरेसन, आरजॉन सथ्यन के। सोमशेखर सुंदरेसन को बॉम्बे हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत करने की अपनी सिफारिश को कोलेजियम द्वारा दुबारा भेजे जाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि “सोशल मीडिया पर, किये गए उनके पोस्ट्स के लिए, वे जिम्मेदार तो हैं, पर यह उनकी अयोग्यता का कारण नहीं है। सोशल मीडिया पर की गई उनकी गतिविधियां, यह अनुमान लगाने का कोई आधार प्रस्तुत नहीं करती हैं कि, वह पक्षपाती होंगे।”
सरकार के न्याय विभाग का यह विचार कि, “वह सरकार की महत्वपूर्ण नीतियों, फैसलों और निर्देशों पर, सोशल मीडिया पर चुनिंदा रूप से आलोचनात्मक रहते हैं,” कॉलेजियम द्वारा, उचित ही, इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि, “किसी के द्वारा विचारों की अभिव्यक्ति, उसे संवैधानिक पद पर, नियुक्ति के लिए अयोग्य नहीं बनाती है।” कॉलेजियम ने इस तथ्य पर ध्यान आकर्षित किया कि, “सुंदरसन के विचार मजबूत वैचारिक झुकाव वाले किसी भी राजनीतिक दल के साथ किसी भी तरह के संबंध की ओर झुकाव का संकेत नहीं देते हैं।”
एक अन्य एडवोकेट, आर. जॉन सत्यन की सिफारिश, सरकार ने इस लिये लौटा दी थी कि, इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) ने उनके विरुद्ध प्रतिकूल रिपोर्ट दी थी। केंद्र सरकार ने, उसी इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए, उनका नाम खारिज कर दिया था। जिस आईबी रिपोर्ट का हवाला देते हुए केंद्र सरकार ने, उनका नाम खारिज कर दिया था, में अंकित है कि, “आर जॉन सत्यन ने, क्विंट वेबसाइट में प्रकाशित एक लेख साझा किया था, जो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के संबंध में लिखा गया था। उन्होंने ने द क्विंट में प्रकाशित इस तरह के एक लेख के साथ-साथ, 2017 में एक मेडिकल आकांक्षी की आत्महत्या को ‘राजनीतिक विश्वासघात’ और ‘भारत की शर्म’ के रूप में चित्रित करने वाली एक अन्य पोस्ट भी साझा की थी।”
इस पर, कॉलेजियम ने अपने ताजा बयान में कहा, “आईबी की रिपोर्ट में कहा गया है कि, उनका कोई राजनीतिक झुकाव नहीं है। इस पृष्ठभूमि में, आईबी की प्रतिकूल टिप्पणियां उनके द्वारा किए गए, सोशल मीडिया पोस्ट से, निकाली गई हैं। वेबसाइट, ‘द क्विंट’ में प्रकाशित एक लेख को, उनके द्वारा साझा करना और एक अन्य पोस्ट से उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता समझ लेना, उचित नहीं है। 2017 में एक मेडिकल आकांक्षी उम्मीदवार द्वारा आत्महत्या करने से श्री सत्यन की उपयुक्तता, चरित्र या अखंडता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।”
16 फरवरी, 2022 को, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम ने छह वकीलों – निदुमोलू माला, सुंदर मोहन, कबाली कुमारेश बाबू, एस सौंथर, अब्दुल गनी अब्दुल हमीद, और आर जॉन सत्यन के नामों की सिफारिश की थी। यह, मद्रास हाईकोर्ट कॉलेजियम द्वारा 2021 में शीर्ष अदालत से सिफारिश करने के बाद किया गया। जबकि अन्य नामों को मंजूरी दे दी गई थी और उन्हें उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त भी किया जा चुका था, सत्यन और हमीद के नाम वापस भेज दिए गए थे। कॉलेजियम ने खुलासा किया कि, “उस समय के परामर्शदाता जजों – जस्टिस संजय किशन कौल, इंदिरा बनर्जी, वी रामासुब्रमण्यम और एमएम सुंदरेश – ने सत्यन को पदोन्नति के लिए उपयुक्त पाया था।”
इसने आगे कहा कि “उनकी एक अच्छी व्यक्तिगत और पेशेवर छवि है, और उनकी ईमानदारी के खिलाफ कुछ भी प्रतिकूल नहीं है।”
कोलेजियम ने सत्यन के हाईकोर्ट नियुक्ति प्रस्ताव को दुबारा भेजा है,
“कॉलेजियम आगे अनुशंसा करता है कि उन्हें मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में नियुक्ति के लिए इस कॉलेजियम द्वारा आज अलग से अनुशंसित कुछ नामों पर न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के मामले में वरीयता दी जाए।”
क्या एक लेख जो पीएम के बारे में किसी वेबसाइट पर छपा हो को, यदि कोई एडवोकेट साझा कर देता है और एक लेख जो एक मेडिकल आकांक्षी छात्रा की खुदकुशी पर, उसे राजनीतिक विश्वासघात और भारत के लिए शर्म की बात कह कर अपनी भावना जाहिर करता हो तो क्या उसका यह आचरण, हाईकोर्ट के न्यायाधीश के लिए अनुपयुक्त माना जाएगा ? सरकार ने आईबी रिपोर्ट के साफ साफ यह लिखने के बावजूद कि सत्यम का कोई राजनैतिक झुकाव नहीं है, केवल दो लेख साझा करने पर, (यह लेख किसी अन्य लेखक ने लिखे हैं) कॉलेजियम की सिफारिश को, 2017 से ही, रोक रखा है। कॉलेजियम के प्रस्तावों के माध्यम से सार्वजनिक डोमेन में सरकार या इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) इनपुट की आपत्तियों को उजागर करना कॉलेजियम के लिए अभूतपूर्व है। अब यह सिफारिश दूसरी बार की गई है, और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार, यह अनुशंसा सरकार के लिए बाध्यकारी होगी।
जजों की नियुक्ति के इतिहास में सन 1973 में जस्टिस कृष्णा अय्यर की नियुक्ति और उसके विरोध का एक रोचक मामला भी है। जस्टिस कृष्णा अय्यर को, 1973 में, सरकार, न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करना चाहती थी, और उनकी नियुक्ति हुई भी, पर उनका विरोध इस आधार पर हुआ कि वे घोषित वामपंथी थे, और मुकदमो की सुनवाई के दौरान, उनकी राजनीतिक विचारधारा, उन्हें पक्षपातरहित निर्णय देने के दायित्व को प्रभावित कर सकती है। जस्टिस कृष्णा अय्यर के खुले वामपंथी झुकाव को उनकी पदोन्नति पर, किसी अन्य ने नहीं, बल्कि प्रसिद्ध एडवोकेट, सोली जे सोराबजी ने आपत्ति की थी। सोराबजी, ने, हालांकि, बाद में यह स्वीकार किया कि, उनकी यह धारणा गलत साबित हुई कि, जस्टिस अय्यर पक्षपाती होंगे।
कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में अमितेश बनर्जी और शाक्य सेन को पदोन्नत करने की अपनी सिफारिशों को दोहराते हुए, कॉलेजियम ने रेखांकित किया है कि, “सरकार का न्याय विभाग, एक ही प्रस्ताव को बार-बार वापस भेजने के लिए नहीं गठित है, विशेषकर उस प्रस्ताव को, जिसे, कॉलेजियम ने विधिवत विचार करने के बाद दुबारा सरकार को भेज दिया है। सरकार की आपत्तियों पर, कॉलेजियम ने सरकार को बार-बार, की गई सिफारिशों की स्थिति के संबंध में, सही कानूनी स्थिति को स्पष्ट कर एक अच्छा कदम उठाया है। यहां यह भी याद दिलाना उचित है, कि, दुबारा भेजी गईं सिफारिशें, सरकार के लिए बाध्यकारी हैं। यह तथ्य कि भारत के महान्यायवादी को, इस संदर्भ के आलोक में अलग तरीके से सोचने की कोई गुंजाइश नहीं है।” एडवोकेट एसोसिएशन ऑफ बैंगलोर द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस कौल की अध्यक्षता वाली पीठ को आर. वेंकटरमणी ने सुझाव दिया था।