एक सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार बिहार के पश्चिमी चम्पारण जिले में आठ अक्टूबर को मारे गए बाघ के बारे में किए गए फैसले के मुताबिक उसे मार गिराना बहुत जरूरी हो गया था। सात अक्टूबर को उसे देखते ही मार गिराने का आदेश पारित हुआ और आठ अक्टूबर को उसे वन विभाग का कर्मियों एवं अन्य शूटर्स ने मार गिराया। बाघ उनके हिसाब से आदमखोर था और उसने पिछले 26 दिनों में नौ लोगों की जानें ली थीं। राज्य के वरिष्ठ वन अधिकारी और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने संयुक्त रूप से बाघ को मारने का आदेश दिया था। बाद में जारी एक विडियो में आस पास के ग्रामीणों को बाघ की त्वचा को, उसकी मूछों को नोचते हुए दिखाया गया है। साफ़ दिख रहा है कि पुलिस ने मृत बाघ के शव को एक तमाशा बना दे रहे हैं और उसकी ठीक से हिफाज़त नहीं कर पा रहे हैं। अभी तीन-चार दिन पहले केरल के मुन्नार से एक बाघिन को पेरियार के घने जंगलों में छोड़ा गया है। उसने करीब दस मवेशियों को मार डाला था। उसे ट्रांस्लोकेट करने से पहले उसे बेहोश किया गया था और उसकी मेडिकल जांच भी हुई थी। उसकी बाईं आँख में मोतियाबिंद था।
सवाल उठता है कि क्या बिहार के चम्पारण में मारे गए बाघ को भी बेहोश करके किसी घने जंगल या चिड़ियाघर में नहीं छोड़ा जा सकता था? इस बारे में वन विभाग और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण को विस्तृत रिपोर्ट सार्वजनिक करनी चाहिए। बाघ की पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट के बारे में भी विस्तार से बताया जाना चाहिए। क्या बाघ को मारने वाले शूटर्स सरकारी थे या निजी? बाघ का अंतिम संस्कार होने से पहले क्या उसके अंगों की जांच हुईं, और इस बारे में कोई रिपोर्ट और तस्वीरें, विडियो वगैरह जारी किए गए?
पिछले साल सितम्बर अक्टूबर के महीने में ही उत्तराखंड में एक बाघिन को मारा गया था क्योंकि वह ‘आदमखोर’ हो चुकी थी। गौरतलब है कि बाघ को रहने के लिए करीब तीस से साठ वर्गमील का इलाका चाहिए। साइबेरिया के बाघ को तो 100 वर्ग मील के क्षेत्र में रहते हुए देखा गया है। बाघ अक्सर अकेला रहता है; सिंह की तरह परिवार में नहीं रहता। प्रजनन की ऋतु के समय बाघ अपनी संगिनी के साथ अपने विराट घर में उसे टहलते हुए देखा जा सकता है। शेर, तेंदुए और लकड़बग्घे की तरह बाघ इंसानी बस्तियों में घुस कर सोते हुए लोगों और नीरीह मवेशियों को नहीं मारता। बाघ की गरिमा के खिलाफ है यह। बाघ उन लोगों पर हमला करता है जो उसके इलाके में बिन बुलाये घुस जाते हैं। बाघ रात के अँधेरे में नहीं, बल्कि दिन दहाड़े हमले करता है। इंसान पर बाघ के हमले आम तौर पर तभी होते हैं जब वह घायल होता है या जब बाघिन गर्भिणी होती है और शिकार पकड़ने के लिए लम्बी दौड़ नहीं लगा पाती। बाघ बाघ होता है। बीमार होने के कारण भी बाघ आक्रामक होता है। जैसे मुन्नार की बाघिन मोतियाबिंद की वजह से साफ़ देख नहीं पाती थी। बाघ के कई सवाल हैं और वह अपने सवाल पूछते-पूछते कभी केदार नाथ और कभी विलियम ब्लेक, रुडयर्ड किप्लिंग की कविताओं में बैठ कर दुबक जाता है, इंसानियत को उपेक्षा के साथ ताकता है या फिर गुर्रा कर अपना गुस्सा व्यक्त करता है।
बाघ को आदमखोर घोषित करके उसे मारने का आदेश देना अक्सर इंसानी ताकत के दुरुपयोग का प्रतीक है। यह कई सवाल उठाता है। हमारी हिंसा और पशुओं की हिंसा के बीच बहुत फर्क है। बाघ अपने भौतिक अस्तित्व को बचाने के लिए शिकार करता है। किसी विचारधारा या किसी धर्म के असर में आकर नहीं। क्या पिछले साल उत्तराखंड में मारी गयी बाघिन और हाल ही में बिहार में मरे गए बाघ को नशीली दवाओं का इंजेक्शन देकर बेहोश नहीं किया जा सकता था? उसे मारने के लिए कितने रूपये, किस तरह खर्च हुए? क्यों उसे बेहोश करके किसी चिड़ियाघर में नहीं ले जाया जा सका? आखिरकार चिड़ियाघरों का यही तो एक सही उपयोग है जहाँ कुछ खतरनाक समझे जाने वाले वन्य जीवों को पुनर्स्थापित किया जा सके। ऐसा पहले भी किया जा चुका है। बस अपने नए माहौल में ‘आदमखोर’ पशु को अडजस्ट करने में थोडा समय लगता है पर अंततः वह खुद को स्थापित कर लेता है।
फ़रवरी 2015 में केरल और तमिलनाडु की स्पेशल टास्क फ़ोर्स ने एक ‘आदमखोर’ बाघ को मारा और इस बात पर कई सवाल उठे क्योंकि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के नियमों का इसमें उल्लंघन हुआ था। इससे पहले दिसम्बर 2012 में वायनाड में कॉफ़ी के बाग़ में एक बाघ को मारा गया था और मेनका गाँधी ने कहा था कि यह बाघ ‘आदमखोर’ नहीं था और अब वन्य जीवन विभाग को ही बंद कर देना चाहिए। नवम्बर 2018 में भी महाराष्ट्र के यवतमाल में अवनी नाम की एक ‘आदमखोर’ बाघिन को मार गिराया गया था और मेनका गाँधी ने इसे लेकर खूब शोर मचाया था। उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि इस बाघिन को मारने में निजी शिकारी की मदद ली गई थी, जो कि गैर कानूनी है।
अगस्त 2013 में हिमाचल प्रदेश के थुनाग में दो तेंदुओं और तेंदुए के एक बच्चे को आदमखोर होने के संदेह में मारा गया था। बाद में साबित हुआ कि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के नियमों का इसमें साफ़ उल्लंघन किया गया था। देश के जाने माने वन्य जीवन विशेषज्ञ पद्मश्री विजेता उल्लास कारंथ ने भी उस दौरान इस कदम की आलोचना की थी। इन नियमों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी बाघ या तेंदुए को मार डालना ‘अंतिम उपाय’ माना जाना चाहिए। यह काम किसी निजी शिकारी को नहीं सौंपा जाना चाहिए क्योंकि उसके अपने निहित स्वार्थ हो सकते हैं। सही बोर वाली बन्दूक से ही शिकार किया जाना चाहिए। पशु को मारने के लिए कोई पुरस्कार घोषित नहीं किया जाना चाहिए। सबसे पहले इस बात की पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि बाघ को बेहोश किया जाए और ऐसी जगह ले जाया जाए जहाँ उसका पुनर्स्थापन हो सके। नियमों में यह भी कहा गया है कि आदमखोर पशु की पहचान कैमरों, पंजों के निशान और डी एन ए परीक्षण के द्वारा की जानी चाहिए। पहले उसे पकड़ने और बेहोश करने के उपाय ढूंढें जाने चाहिए और हर कोशिश के बाद, उनकी पहचान निसंदेह रूप से स्थापित किये जाने के बाद ही उसे मारने के आदेश दिए जाने चाहिए। जिस देश में इंसान की जान कौड़ियों में बिकती हो, क्या आप मानेंगें कि किसी बाघ को मारने के आदेश में इतनी सतर्कता बरती जाती होगी। व्यक्तिगत तौर पर मुझे इसमें गंभीर संदेह हैं। आदमखोर बाघ या तेंदुए को मारने के मामले में अक्सर स्थानीय लोगों का दबाव भी बहुत काम करता है। बिहार के बाघ को मारने के समूचे मामले की गंभीरता से जांच होनी चाहिए।
गौरतलब है कि बाघों की संख्या घटती जा रही है और अब इस देश में करीब तीन हजार बाघ ही बचे हैं। ऐसे में एक बाघ की मौत या उसे मारे जाने के आदेश को एक असाधारण मुद्दा समझ कर उस पर बातचीत होनी चाहिए, इसमें पूरी पारदर्शिता बरती जानी चाहिए। अखबारों में बिहार के मारे जाने के जो समाचार मिले उनमे तो सिर्फ बाघ के शव के साथ छेड़-छाड़ करने की भी ख़बरें थीं। इन ख़बरों में न कोई संवेदना थी, न कोई समझ।
बाघों के बारे में दो गंभीर अध्ययन हुए हैं और वे दोनों पश्चिमी वैज्ञानिकों ने किये हैं। जॉर्ज शालेर ने पंद्रह महीने का एक प्रोजेक्ट हाथ में लिया और उन्होंने कान्हा नेशनल पार्क में हिरन और उसके शिकारियों का अध्ययन किया। उसने बाघों को देखने में 120 घंटे बिताये और उनके शिकार के तौर तरीकों का बारीकी से अध्ययन किया, उनकी आवाजें सुनीं, उनके हाव भाव देखे-समझे और फिर एक मशहूर किताब लिखी ‘द डियर एंड द टाइगर’। दूसरा बड़ा अध्ययन हुआ स्मिथसोनियन इंस्टीट्युशन ऑफ़ द वर्ल्ड वाइल्डलाइफ की ओर से। इसके दौरान वैज्ञानिकों ने बाघों को रेडियो कॉलर लगाने और इनकी गतिविधियों पर नज़र रखने के उपाय सीखे। सुंदरवन के बाघों की आक्रामकता का जब अध्ययन किया गया तो पाया गया कि वहां का नमकीन पानी पीकर वह बेचैन और आक्रामक हो उठा है, क्योंकि उसे हमेशा से स्वच्छ झरने या तालाब का पानी पीने की आदत रही है!
जंगल कटे जा रहे हैं। बाघ जैसे जीवों के रहने की जगह कम होती जा रही है। उन्हें लोभ के लिए मारा जा रहा है। बाघ के अवैध शिकार के बाद उसके टुकड़े-टुकड़े बेचे जाते हैं। भू-माफिया पहाड़ों पर फैले समूचे जंगलों को ही जला कर राख कर देते हैं। वन्य जीव बेघर हो जाते हैं। लोग उनके इलाकों में जाते हैं और पहले से ही असुरक्षित जीव उन पर हमला कर बैठता है। उसे कोई शौक नहीं होता इंसानों को मारने का। उसे तो यह भी नहीं मालूम कि जिसे वह मार रहा है, वह इंसान है और वह धरती का सबसे खतरनाक पशु भी है। आदमखोर शब्द तो हमारा इजाद किया हुआ है। कई अध्ययनों के बावजूद लोग बाघों के बारे में बहुत कम जानते हैं। जंगल में अकेला टहलता बाघ या रात के अँधेरे में जलती हुए आँखे लिए शून्य में घूरता हुआ बाघ आखिरकार एक पहेली ही है—सुन्दर, अद्भुत, असाधारण। बाघ के शिकार हुए इंसानों के प्रति गहरी सहानुभूति होनी चाहिए पर किसी भी कीमत पर बाघ को भी बचाना चाहिए।