बेहतर मतदाता ही बेहतर नेता का चुनाव कर सकता हैं

लोकतंत्र एक गतिशील अवधारणा हैं। बेहतर लोक तंत्र बनाने के लिए सबसे पहले बेहतर जनमानस बेहतर समाज और बेहतर जनप्रतिनिधि चुनने वाला बेहतर मतदाता बनाना होगा। इसलिए सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक और अन्य परिवर्तनों के अनुरूप लोकतंत्र का स्वरूप बनता-बिगडता रहा है। पाश्चात्य जगत में ज्ञान-विज्ञान के पालना के साथ-साथ लोकतंत्र की जन्मभूमि के रूप में विख्यात यूनान के एथेंस में दास प्रथा खुलेआम प्रचलित थी। इसको अनुचित गैर प्रजातांत्रिक नहीं माना जाता था। परन्तु आज वर्तमान लोकतंत्र में दास प्रथा, छूआ-छूत और अन्य सामाजिक भेदभाव की कुव्यवस्थाओं को लोकतंत्र के मस्तक पर कलंक माना जाता है। इतिहास में अनगिनत संघर्षों के उपरांत आज आधुनिक लोकतंत्र का जो सर्वमान्य और सर्वव्यापी स्वरूप उभर कर आया है वह कुछ बुनियादी स्तम्भों पर टिका होता हैं । वह बुनियादी स्तम्भ है सत्ता का विकेन्द्रीकरण, जनता में अंतिम रूप से सम्प्रभुता का निवास अर्थात लोक सम्प्रभुता, तार्किक और बौद्धिक बहस तथा अभिव्यक्ति की पर्याप्त आजादी, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद तथा सूचना- संचार के साधनों को पूरी स्वतंत्रता । लोकतंत्र की सकारात्मक गतिशीलता स्वस्थ , तार्किक और बौद्धिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुरूप जनमत निर्माण की परम्परा और प्रक्रिया निर्भर करती है। 

लोकतंत्र, जनतंत्र और प्रजातंत्र, इन तीनों शब्दों का निहितार्थ हैं जनता का राज। लोकतंत्र में आम जनमानस स्वतन्त्रता और समानता का एहसास करते हुए अपनी इच्छा के अनुरूप एक निश्चित अवधि के लिए अपना शासक चुनता है। देश के जनमानस की इच्छा, अभिव्यक्ति और अभिमत को ही राजनीति विज्ञान की भाषा में जनमत कहा जाता हैं। जनतंत्र की गुणवत्ता का आकलन जनमत से ही किया जाता  है। एक स्वस्थ लोकतंत्रिक देश में जनमत का निर्माण उस देश के नेताओं , समाचार पत्रों, पत्रिकाओं सहित सम्पूर्ण प्रिंट मीडिया , इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सहित सूचना संचार के साधनों , लोकतंत्र में आस्था रखने वाले बौद्धिक समुदाय द्वारा सम्पन्न गोष्ठियों ,न्यायिक निर्णयों और न्यायविदों की टिप्पणियों , राजनीतिक दलों के विभिन्न कार्यक्रमों तथा सम्मेलनों और जनमानस के बीच होने वाली चर्चा परिचर्चा और विचार- विमर्श द्वारा होता हैं । सचरित्र, ईमानदार, बचनबद्ध ,सच्ची जनसेवा की भावना रखने वाले  और पढें-लिखें नेता अपने भाषण और विचार द्वारा  तार्किक, बौद्धिक, विवेकसम्पन्न , जागरूक , वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण और सक्रिय जनमत का निर्माण करते हैं। इसके विपरीत चुनावी मौसम भाॅपकर गिरगिटों की तरह रंग बदलने वाले, बेईमान, धूर्त, आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे, घोर जातिवादी और साम्प्रदायिक मानसिकता से ग्रसित नेता कुंठित, संकीर्ण, उन्मादी , नकारात्मक और निष्क्रिय जनमत का निर्माण करते हैं। इसी तरह स्वतंत्र, निष्पक्ष और निर्भीक सूचना संचार के औजार स्वस्थ, सहिष्णु, सचेत और बौद्धिक  जनमत का निर्माण करते हैं। जबकि दिन-रात सत्ता की चौखटो का चालीसा गाने वाले तथा चाट-भारण परम्परा के सूचना संचार के औजार कूपमंडूक , अंधभक्ति से परिपूर्ण और भेंड चाल वाले जनमत का निर्माण करते हैं। देश के बौद्धिक समुदाय द्वारा भी जनमत का निर्माण किया जाता हैं। जब बौद्धिक समुदाय ईमानदारी, निष्पक्षता और निःस्वार्थ भावना से देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं पर अपना विचार प्रस्तुत करता है तो बौद्धिक, तार्किक और विवेक पूर्ण जनमत का निर्माण करते हैं। इसके विपरीत सत्ता सुख की चाहत रखने वाले तथा चाॅदी के सिक्कों पर बिकने वाले बुद्धिजीवी संकीर्ण, सतही और संकुचित सोच वाला जनमत तैयार करते हैं। जबतक स्वस्थ, स्वतंत्र, निर्भीक, बौद्धिक, जागरूक और सक्रिय जनमत नही होगा तब तक जनमानस को सुयोग्य, सचरित्र, ईमानदार और उर्जावान नेतृत्व नहीं मिल पाएगा।

स्वतंत्रता और समानता लोकतंत्र की प्राणशक्ति है। स्वतंत्रता का निहितार्थ हैं मनुष्य अपनी इच्छा और विवेक के अनुसार अपने जीवन का निर्धारण कर सकें। राजनीतिक दृष्टि से समानता का तात्पर्य है कि-प्रत्येक  व्यक्ति को बारी-बारी से शासन संचालन का अवसर मिलना चाहिए। प्रकारांतर से प्रजातंत्र में जनता को स्वयं अपने राजनीतिक भाग्य को निर्धारित और संचालित करने का पूरा अवसर मिलना चाहिए। जिस समाज में अंधविश्वास और भय मुक्त वातावरण में तर्क , वितर्क, चिंतन मनन करने की स्वतंत्रता रहती हैं निश्चित रूप से वहाँ स्वस्थ जनमत का निर्माण होता हैं। 

जनमत और नेतृत्व में गहरा संबंध पाया जाता हैं। कुशल, दूरदर्शी, प्रगतिशील और सर्वसमावेशी नेतृत्व द्वारा निर्भीक, निष्पक्ष और जागरूक जनमत का निर्माण किया जाता हैं। स्वाधीनता संग्राम के दौरान राजाराम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, केशव चन्द्र सेन, महर्षि दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, बाल गंगाधर तिलक तथा महात्मा गांधी ने निर्भीक, साहसी, अनुशासित और संघर्षशील जनमत का निर्माण किया। इन समस्त विभूतियों ने यथाशक्ति चिरपोषित असंगत धारणाओं , परस्पर व्याप्त दुराग्रहों, प्रचलित मिथकों और मताग्रहों, विभिन्न प्रकार की संकीर्णताओं, अंधविश्वासों, पाखंडो और बुद्धिहीनता का भण्डाफोड किया। इसके स्थान पर इन विभूतियों ने एक सभ्य लोकतंत्रिक समाज के लिए आवश्यक तार्किक, बौद्धिक और जागरूक जनमत तथा जन समुदाय का निर्माण किया । लोकतंत्र में लोकमत राजनीतिक मत की अपेक्षा व्यापक अवधारणा हैं। क्योंकि लोकमत में राजनीतिक मत के साथ- साथ सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक अभिमत भी समाहित रहता हैं। सार्वजनिक रूप से अभिवृत्तियों की स्पष्ट और औपचारिक अभिव्यक्ति को “मत ” अथवा अभिमत कहा जाता हैं। समाजशास्त्रियों का मानना है कि- मनुष्य के मन मस्तिष्क में संचरित  अभिवृत्तियों, प्रवृत्तियों, भावनाओं और विचारों का निरूपण सामाजिक और ऐतिहासिक वातावरण में होता हैं। इसलिए किसी देश में लोकमत के निर्धारण में लोक आस्थाओं, लोक मान्यताओं, लोक परंपराओं और रीति- रिवाजों की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। 

जनमत एक गतिशील अवधारणा हैं। जो समय, नेतृत्व, सामाजिक परिवर्तन और सांस्कृतिक परिवर्तन के लिहाज़ से बदलती रहती है। कभी-कभी सत्य की साधना में साधनारत दूरदर्शी व्यक्तियों द्वारा उद्घाटित विचारों से भी जनमत का निर्माण होता हैं। सुकरात, गैलीलियो, कोपरनिकस और दयानंद सरस्वती इस तरह के दूरदर्शी व्यक्तियों के रूप  में लोकमानास में स्वीकार किए जाते हैं। हालांकि जन समुदाय इन महापुरुषों के विचारों को तात्कालिक रूप से स्वीकार नहीं करता है। परन्तु जैसे-जैसे जन मानस की सामूहिक समझदारी बढती जाती हैं वैसे-वैसे इन सत्य के साधकों के विचार जन मानस में प्रचलित और प्रवाहमान होने लगते हैं। एक स्वस्थ लोकतंत्र में लोकमत नमनीय तथा परिवर्तनशील होता हैं। लोकहित में प्रकट किए गए नवीनतम  विचारों, संकल्पनाओ , अवधारणाओं और सिद्धांतों के अनुरूप लोकमत धीरे-धीरे परिवर्तित होता रहता हैं। एक सफल राजनेता वही होता हैं जो जनसमुदाय को नकारात्मक, विध्वंसक प्रवृत्तियों, निस्सारता तथा निराशा से बाहर निकाल कर उसमें  आशा और कर्मठ्ता का संचार करें। इसलिए संकीर्ण राजनीतिक  स्वार्थों की पूर्ति के लिए नेताओं को नकारात्मक, विध्वंसक और उन्मादी जनमत के निर्माण से परहेज करना चाहिए। प्रगतिशील तथा विकासोन्मुखी जनमत ही देश को शक्तिशाली और सामर्थ्यवान नेतृत्व प्रदान कर सकता हैं। जब देश की नेतृत्वकारी शक्तियां लोकतंत्र को महज एक शासन प्रणाली के रूप न स्वीकार कर लोकतंत्र को जीवन दर्शन कर लेती तो जनमत का निर्माण समझदारी, बुद्धिमत्ता पूर्ण और दूरदर्शिता पूर्ण तरीके से करना पड़ता हैं। जिससे लोकतंत्र महज राजनीतिक जीवन की चहारदीवारी से बाहर निकल कर हमारे नागरिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में स्थापित होने लगता है। 

बुनियादी मुद्दों और बुनियादी समस्याओं पर होने सच्चे, ईमानदार, अनुशासित और अहिंसक जन आन्दोलनो से भी जनमत का निर्माण होता हैं तथा जन समुदाय का शिक्षण- प्रशिक्षण होता हैं। पराधीनता काल में 1857 से लेकर 1947 तक होने वाले विभिन्न आन्दोलनों ने भारतीय जनमानस को राजनीतिक रूप से शिक्षित-प्रशिक्षित किया। इन आन्दोलनों के कारण ही देश की जनता अंग्रेजों के विरुद्ध तन कर खडी हूई और अंततः अंग्रेजों को देश छोड़कर पलायन करना पडा। आजादी के बाद भी बहुत से आन्दोलन भारत में हुए। 1977 मे श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा देश में आपातकाल लगाए जाने के विरुद्ध लोक नायक जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में देश भर एक सशक्त आन्दोलन हुआ। इस आन्दोलन के फलस्वरूप एक ऐसा जनमत तैयार हुआ जिसनें आजादी के बाद लगभग तीस वर्ष से लगातार  शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी को सत्ता से बाहर कर दिया। दक्षिण अफ्रीका में डाक्टर नेल्सन मंडेला के नेतृत्व मे गांधीवादी तरीके से रंग भेद नीति के खिलाफ एक लम्बा आंदोलन किया गया। जिससे स्वस्थ जनमत का निर्माण हुआ । 1990 से दक्षिण अफ्रीका में  लगातार रंग भेद रहित लोकतंत्रिक व्यवस्था चल रही हैं। हमारे पडोसी देश नेपाल में नब्बे के दशक से राजतंत्र के विरुद्ध लगातार आंदोलन चलता रहा। जिसके फलस्वरूप नेपाल में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रीक संविधान का निर्माण हुआ है और राजतंत्र का पूरी तरह खात्मा हो गया है। अभी भारत में हाल में लगभग तेरह महीने तक लम्बा ऐतिहासिक किसान आंदोलन चला। जिसके फलस्वरूप ऐसा जनमत तैयार हुआ जिसके समक्ष पूर्ण बहुमत की सरकार को झुकना पड़ा। 

निष्कर्षतः लोकतंत्र में जनमत की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। भारत सहित तिसरी दुनिया के देशों में धार्मिक और सामाजिक समस्याओं में जनमत की अभिव्यक्ति तीव्रता से होती हैं जबकि राजनीतिक, आर्थिक और बुनियादी समस्याओं पर जनमत की अभिव्यक्ति कमजोर होती हैं। इधर मंडल और कंमडल के बाद भारतीय राजनीति में जातिवादी और साम्प्रदायिक नेताओं की लम्बी कतार उभर आई हैं।  समाज में धार्मिक परम्पराएं और भावनाएं बहुत ही क्रियाशील सामाजिक शक्ति हुआ करती हैं। इसलिए धार्मिक और जातिवादी भावनाओं को भड़काने वाले नेताओं का प्रभाव जनमानस देखा जा रहा हैं। यह स्वस्थ जनमत निर्माण और स्वस्थ लोकतंत्र की दृष्टि खतरनाक प्रवृत्ति हैं। राजनीतिक, आर्थिक और बुनियादी समस्याओं पर जनमत का निर्माण करने की आवश्यकता है। जनमत मतदान आचरण और व्यवहार को भी प्रभावित करता है। स्वस्थ जनमत द्वारा हम स्वस्थ मतदान आचरण और व्यवहार अपना कर ईमानदार और जनता के पक्ष में काम करने वाली सरकार चुन सकते हैं। तभी भारतीय लोकतंत्र को महज मस्तक गणना करने वाला नहीं बल्कि जागरूक और जिन्दा मस्तिष्क वाला लोकतंत्र बना सकते हैं। 

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स्वतंत्र लेखक, साहित्यकार एवं विश्लेषक है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।